कभी क़ुहरा
कभी बादल
खुले मौसम अगर तो
धूप आये आंगने में ।भँवर से कश्तियाँ बाहर
कोई कैसे निकाले
लहर बैठी हुई है
मोर्चे अपने संभाले।
जहाँ हों पुल बने,
बहुत कमज़ोर नदियों के
भलाई है सम्भल के-
लाँघने में।।
चली अश्लीलता में
डूबती- तिरती हवाएँ
छपे नववर्ष के
कैलेंडरों पर नग्न मुद्राएँ ।
हों जिस घर में
बहन, भाई, बहू, बेटी
शरम आती है इन को-
टाँगने में।।
अचंभा इससे ज़्यादा और
हो सकता है क्या भारी
कला, संगीत, कविता का
है शोषण आज भी जारी।
जो देता हो समय को
अदब, तहज़ीब की दुनिया
उमर कटती है, उसकी-
माँगने में।।
( रंग बोलता है )
2
बहुत ही ख़ूबसूरत जिस घड़ी ये चाँद दिखता है
तभी तो एक शायर,गीत,कविता,ग़ज़ल लिखता है
तभी तो गंध कलियों को
कई सपने , दिखाती है।
तभी तो सुर्ख़ , फूलों की
वो ख़ुशबू, लौट आती है।।
उसी क्षण , रातरानी पर-
कोई शृंगार, टिकता है।
तभी तो, एक शायर गीत-
कविता,ग़ज़ल लिखता है।।
मय का जाम , आँखों में
किसी के फिर छलकता है
अचानक फिर कोई चेहरा
चमकता है, दमकता है।
नहा कर चाँदनी में, रूप-
का रस स्वयं , रिसता है।।
तभी तो, एक शायर गीत-
कविता ग़ज़ल लिखता है।।
हवा में, बैठ कर जब प्यार
दिल के , द्वार आता है
कहें कैसे, जो वो ठंडक-
ज़ेहन में, घोल जाता है।
कोई सम्ममोहित हुआ सा-
एकदम इस ओर खिंचता है।
तभी तो, एक शायर गीत-
कविता, ग़ज़ल लिखता है।।
खुले आकाश में जब- जब
सितारे झिल – मिलाते हैं।
दमकती रोशनी में चाँद की-
खुल कर नहाते है ।
लगा मेहंदी किरण का हाथ-
चंदन स्वयं घिसता है ।
तभी तो , एक शायर गीत –
कविता,ग़ज़ल लिखता है ।।
किसी ने हाथ पर फिर
आज जो, मेहंदी रचाई है।
उसी मेहंदी से ही तो-
चाँद की सूरत बनाई है।।
वही तो रंग गहरा है-
जो सारी उम्र टिकता है।।
तभी तो, एक शायर गीत-
कविता,ग़ज़ल लिखता है।।
( पूर्णिमा के चाँद को देखकर )
3
आज गीत
सपना होता है
अच्छा हो या बुरा , बन्धु रे,
सपना तो सपना , होता है।
क़दम-क़दम पर, पैरों के
तलुवों में चुभते पिन।
माला के मनकों जैसे
संघर्षों वाले दिन
एक – एक कर गुरिया-
जिस का जपना होता है।
कोई शक्ल नहीं बनती
मिट्टी गुँथ जाने से
लेती हैं आकार मूरतें
चाक घुमाने से
कुन्दन बन जाने से-
पहले तपना होता है।।
धीरे – धीरे रात काट,
पाती है घना अंधेरा
इंतज़ार के बाद कहीं
आता। है, सुर्ख़ सवेरा
कई पीढ़ियों को जुगनू-
की खपना होता है।।
4
जनगीत
हर जगह
हर बार
धोखा ही दिया
राख से लबरेज़ इन-
ठंडे अलावों ने हमें।
ख़ूब जाँचा
ख़ूब परखा है-
हवाओं ने हमें।।
फिर कोई रंगीन
ताज़ा ख़्वाब दिखलाकर
हमें।
ठग लिया हर-
बार फुसलाकर हमें।।
सिर्फ़ हम मोहरे रहे,
जलसे – जलूसों के
दाँव पर रक्खा हमेशा-
ही सभाओं ने हमें ।
शोषणों के दहकते
अंगार जिस्मों पर
हमारे।
लोभ दे- देकर गये
नियमित उतारे ।।
साज़िशों, चालाकियों की
एक अंधी कोठरी में
बाँध रक्ख़ा है अभी-
भी बादशाहों ने हमें।।
( हवा बहुत तेज़ है )
5
है बहुत प्रतिकूल मौसम
चल रही हैं आँधियाँ
ये उड़ रही है, धूल।
है बहुत प्रतिकूल मौसम-
है बहुत प्रतिकूल।।
वक्र-दृष्टि सूर्य,बुध की
स्वयं के घर पर पड़ी है।
साढ़ेसाती तक शनि की,
तानकर सीना , खड़ी है।।
नीच का राहु
न जाने क्या , कराएगा।
ये गुरु दुर्बल-
हमें कैसे बचायेगा।।
एक भी, नक्षत्र तो
लगता नहीं माक़ूल।
जन्मपत्री आपको जो
हम दिखाये हैं।
चल रही इस में
अभी अंतर्दशाएँ हैं।।
हैं निरर्थक योग ,
लम्बी यात्राओं के।
चिलचिलाती धूप के-
ठंडी हवायों के।।
केंद्र में बैठा नहीं है
ग्रह कोई अनुकूल।
…………………………
परिचय : रावलपिंडी ( पूर्व विभाजन ), अब तक कई किताबें प्रकाशित
कई सम्मान प्राप्त,
पता – राधा कृष्ण पूरम, बरेठ रोड, गंज बासोदा, विदिशा ( मध्य प्रदेश )
मोबाइल: 7869602422