विशिष्ट गीतकार : डॉ रवींद्र उपाध्याय

वसन्त आ गया !

कलियों की कनखियाँ, फूलों के हास
क्यारियों के दामन में भर गया सुवास
बागों में लो फिर वसन्त आ गया !

मलयानिल अंग- अंग सहलाता जाये
मंगल के गीत मगन कोयलिया गाये
पतझड़ की पीड़ा का अन्त आ गया !

पतझड़-दुःशासन था खींच रहा चीर
प्रकृति – पांचाली के नयन भरे नीर
हरित वसन लेकर अनन्त आ गया !

धरती पर पाँव नहीं , गीत गुनगुनाये
कौए को दूध-भात प्यार से खिलाये
गोरी का परदेसी कन्त आ गया !
बागों में लो फिर वसन्त आ गया ! !

ऋतुराज का जादू

धूप में वापिस तपिश आने लगी
फिर हवाओं में घुली ख़ुशबू !

पतझरी मनहूसियत के दिन गये
हर नयन में उग रहे सपने नये
ठूँठ में भी पल्लवन की लालसा
अजब है ऋतुराज का जादू !

रंग , रस , सिंगार के दिन आ गये
मान के, मनुहार के दिन आ गये
आ गये दिन प्रतीक्षित अभिसार के
छलकता अनुराग है हर सू !

शूल सहमे-से खिले इतने सुमन
चतुर्दिक हँसता हुआ है हरापन
उठ रहा है स्वर पिकी का आगगन
लगीं सुधियाँ बदलने पहलू !
फिर हवाओं में घुली ख़ुशबू! !

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