प्रिये! प्रीत की रीत तुमने न जानी
विरह में समय ज्यों गुज़ारा
हृदय जानता है हमारा
हमेशा उदासीनता ही
रही साथ बनकर सहारा
व्यथा यह तुम्हारे लिए है कहानी
तुम्हारे बिना चाँदनी भी
धधकती हुई आग ही थी
मिला है कहाँ एक पल सुख
मिली बस, मिली वेदना ही
मिलन-याचना किन्तु तुमने न मानी
कहो, क्यों किया यह छलावा
न पहले कभी यों हुआ था
बताओ, तुम्हारे हृदय में
उठा प्रश्न क्यों रूठने का
कहो, आज क्यों, किसलिए रार ठानी
(2)
दो पलों का मधु मिलन विषमय विरह में ढल गया
शशि उदित हो ही रहा था
बादलों ने आन घेरा
हा! कुँआरी रश्मियों को
ग्रस गया निर्मम अँधेरा
हो गये विस्मित पथिक दो
हो उठे अन्तर विकल-से
बुझ गयीं मन की उमंगें
यों कि ज्यों पावक सलिल से
छूट प्रेमी के करों से प्रेमिका-आँचल गया
आ गयी उषा नवीना
छँट गये बादल गगन से
पत्र-दल मधु लहरियों-सम
हो उठे झंकृत पवन से
स्निग्ध, पुष्पित वाटिका में,
भृंग-दल के गीत पाकर
बन गयीं सुकुमार कलियाँ
पुष्प, नव संगीत पाकर
किन्तु लगते ही प्रभाकर-ताप जीवन गल गया