विशिष्ट गीतकार : दिनेश प्रभात

(1)
उमर की सीढ़ियाँ चढ़ते
मुझे फिर याद आये तुम

पुकारा है मुझे फिर से
मनोरम झील के तट ने
निमंत्रण उँगलियों को फिर दिया
उड़ती हुई लट ने
कई दिन बाद मीठा कान में
कुछ गुनगुनाए तुम

तुम्हारा रूप अब भी
पंचमढ़ी का धूपगढ़ लगता
तुम्हारा प्रेम मायावी
सभी को राह में ठगता
अभी भी ज़िंदगी में पूर्व-सा
जादू जगाए तुम

तुम्हारे हाल बतलाता
पवन का डाकिया अकसर
तुम्हारी याद के पत्ते खड़कते
आज भी जी भर
सुना है नींद में अकसर वहाँ
कुछ बुदबुदाए तुम

(2)
लिखी है नाम यह किसके
तुम्हारी उम्र बासंती?

अधर पर रेशमी बातें
नयन में मख़मली सपने
लटें उन्मुक्त-सी होकर
लगीं ऊँचाइयाँ नपने
शहर में हैं सभी निर्धन
तुम्हीं हो एक धनवंती

तुम्हारा रूप अंगूरी
तुम्हारी देह नारंगी
स्वरों में बोलती वीणा
हँसी जैसे कि सारंगी
मुझे डर है, न बन जाओ
कहीं तुम एक किंवदंती

तुम्हें यदि देख ले तो ईर्ष्या
सच, उर्वशी कर ले
झलक यदि मेनका पा ले
तो समझो खुदकुशी कर ले
कहो तो प्यार से रख दूँ
तुम्हारा नाम बैजंती

धवल—सी देह के आगे
शरद का चाँद भी फीका
सुकोमल गाल पर यह तिल
नज़र का लग रहा टीका
तुम्हारा कौन राल नल
बताओ आज दमयंती?

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