विशिष्ट गीतकार :: मधुकर वनमाली

मधुकर वनमाली के सात गीत

परिचय

पूछ रहे हो परिचय मेरा

मुझ से क्या मधुकर से पूछो

खग मृग जो कुछ नहीं बताए

गिरि कानन तरुवर से पूछो।

 

हँसते सुमनों का साथी जो

मुरझाती कलियों को रोया

नीर चुराए हैं नयनों से

झर आए निर्झर से पूछो।

 

पिघल गया मैं तुहिन कणों सा

पर्वत पर मधुमास हुआ जो

जिसने शीतल देह तपायी

उस निष्ठुर दिनकर से पूछो।

 

आतुर निज की देह जलाकर

महानिशा के तम से भिड़ ले

किरणों की फुलझरियों से जो

भगजुगिनी के पर से पूछो।

 

सागर से जल पूरित होकर

झंझानिल से होड़ लगाता

गरज बरस वसुधा तर करता

मेघदूत घनवर से पूछो।

 

मेरा उसका भेद नहीं कुछ

चंदन पानी दीपक बाती

मैं वन का उन्मादक परिमल

तरल तरुण मृगवर से पूछो।

 

कौन चक्षु खोल देता

है जगाता भोर में नित

चेतना किसकी है रक्षित?

कौन इतना मानता यूँ?

जानता हूँ पर अपरिचित।

 

स्वप्न के उस लोक आके

कान में कुछ बोल देता।

कौन चक्षु खोल देता?

 

कैसे नभ की मेखला पर

रक्त सम उगते प्रभाकर

रात भर किस ठौर डेरा

कौन लाया उषा रथ पर?

 

कौन रजनी रज्जुओं के

बंधनों को तोड़ देता?

कौन चक्षु खोल देता?

 

कैसे जलधर मेघ लाते

सरिता में जो वेग लाते

गंध कैसा यह समाया

किसने यह नीरज खिलाया?

 

रोटियाँ शतदल लता की

कौन जल में बेल देता?

कौन चक्षु खोल देता?

 

गाँव की अमराईयों में

कोयलें जो कूकती हैं

क्या ऋतु की सगी लगती

क्यों नहीं वो चूकती हैं?

 

कौन विहगों की चहक में

यह मधुर रस घोल देता।

कौन चक्षु खोल देता?

 

चांदनी रात में

नाव ले के चले चांदनी रात में

संग चलती रही वो नदी साथ में।

 

दूध सा लग रहा पानी चेनाब का

आज मंजर खिला ज्यों किसी ख्वाब का

आज बादल नहीं बस फ़कत धुंध हैं

चुप्पियां फब रही इस मुलाकात में।

 

ले चलूं मैं तुम्हें पार इस चांद के

तुम चलोगी कहो डोर इक बांध के

आज बहती नदी चांद नाजिर रहे

तुम समा जो गए आज जज़्बात में।

 

यूं छिटक सी चली है गगन चांदनी

छेड़ती धड़कनें इक अजब रागिनी

बावरा मन हुआ चोर इस में पला

देखते हम तुम्हें इस ढली रात में।

 

ओस में भीग कर तन सिहरता बड़ा

ज्यों लहर सी उठे मन मचलता बड़ा

पास बैठो यहीं आज पाहुन मेरे

थाम पतवार लो थामकर हाथ में।

 

रे पवन तू डाकिया बन।

लिख रहा अश्रु कलम से

पातियाँ मनमीत को अब

आर्द्रता इसमें घनी है

सोख लेना सार मलयज

पास जाके तू बरसना

कर रहा इतना निवेदन।

रे पवन तू डाकिया बन।

 

अष्टयामों की खबर सब

कुछ नहीं उनसे छुपाना

दृग अभी जो बोलते हैं

हाल पूरा सब बताना

कर सको मनुहार थोड़ा

संग ले आओ इसी क्षण।

रे पवन तू डाकिया बन।

 

ध्यान कुछ लगता नहीं है

टूट जाती है समाधि

मृग सरीखा चित न चंचल

ज्यों बढी यह प्रेम व्याधि

प्रीत परिमल किस सरि पर

खोज फिरता हूंँ सघन वन।

रे पवन तू डाकिया बन।

 

मानता तुमसे नहीं जो

वह प्रिय मनमीत मेरा

तेल सब मेरा उड़ा दो

यह बुझा दो दीप मेरा

पग उन्हीं का छू रहे जो

ले चले आओ न रजकण।

रे पवन तू डाकिया बन।

 

कुसुम

मैं प्यार हूं तुम्हारा

कोई गैर तो नहीं

कहना कुसुम भ्रमर से

हुआ वैर तो नहीं।

 

वो सर्दियां गजब की

तुम फूल तब नहीं थे

अटका अलि जड़ों में

मौसम हसीं नहीं थे

हमने तुम्हें खिलाया

बिखरा पराग भू पर

हमको बिना तुम्हारे

कभी खैर तो नहीं।

 

सब फूल तोड़ने को

आए बड़े सितमगर

कुछ गंध के पुजारी

कुछ रुप के सुखनवर

आशिक नहीं भ्रमर सा

जो मिट गया तुझी पर

तुमको कभी न मसलूं

मेरे पैर तो नहीं।

 

मेरे नाविक

सर्दी की धूप बिछी रेशम

यह घाट सुहाना लगता है

मेरे नाविक उस पार चलो

मौसम मस्ताना कहता है।

 

यादों का तरकश छोड़ यहीं

कुछ देर तुम्हारे संग बहूँ

कुछ अपने दिल की कह लूंगी

रह मौन तुम्हारी बात सुनूं

मंथर सी नाव चलाना तुम

थोड़ा सुस्ताना बनता है।

 

सूरज जो निकला प्राची में

मद्धम मद्धम जलता दीपक

तम धीरे हीं घट पाएगा

ज्यों ज्यों बढ़ता उसका पावक

नाविक किरणें सब नाच रहीं

इक जलतरंग सा बजता है।

 

कल रात बजाती थी वीणा

कुछ मालकोश पर राग सुनो

वह गीत कबूतर ले आए

चुप कर के बस आवाज सुनो

मन तन्मय मेरा डोल रहा

लहरों सा खूब मचलता है।

 

जब रात ढले मेरी

जब रात ढले मेरी

शीतल सा सवेरा हो

तृण ओस में भीगे हों

कुहरा भी घनेरा हो।

 

सुनकर मेरी बंशी

तुम दौड़ चली आना

कुछ फूल बगीचे से

आंचल में चुन लाना।

 

फागुन सावन अगहन

जैसा भी महीना हो

जिस रोज़ न मिल पाए

वह भोर कभी ना हो।

 

मन शूल चुभे कोई

ज्यों ओझल तुम होती

यह गीत जो छेड़ा है

बोझिल पलकें रोती।

 

चोरी से अकेले में

जब शाम ढले सुनना

लोरी सा सुला देंगे

कल भोर हमें मिलना।

 

बड़ी नीरव सी रजनी

मदहोश अभी करती

देकर तेरे सपने

यह रात अभी ढलती।

 

 

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