विशिष्ट गीतकार : माधवी चौधरी

सखि आया देख बसंत
पीत वसन को पहन पधारा
लगता प्रिय ज्यों कंत

आमों में मँजरिया डोले
बागों में कोयलिया बोले
मन में उठे उमंग
नाचे सकल-दिगंत
हे सखि….

भांति भांति के फूल खिल रहे
आपस में फिर हृदय मिल रहे
प्रेमिल हुआ तरंग
रहा न कोई हंत
हे सखि…..

तन मन में है पुलक समाया
बिखेरी प्रकृति ने कैसी माया
नेह भरे हैं अंग
सोभा अगम अनंत।।
हे सखि……

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प्रिय फिर से यादों में आए

सुधियों के छाए फिर बादल
मन-हृदय हुआ फिर से विह्वल
आँचल में जिसे बसाया था
वे पुष्प प्रेम के मुरझाए
प्रिय फिर से यादों में आए

है अग्नि-क्षुधा इस तन-मन में
सूनापन मन के आँगन में
है सावन जेठ सदृश तपता
सब गीत मिलन के झुठलाए
प्रिय फिर से यादों में आए

प्रेमिल मन की पीड़ाओं ने
खोई सारी आशाओं ने
जीवन लक्ष्यों को मोड़ दिया
ज्यों प्रीत-पंथ को बिसराए
प्रिय फिर से यादों में आए

 

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