तुम मिले
तुम मिले तो मिट गई है
पीर इस तन की
चढ़ गई है होठ पर अब
बांसुरी मन की
हम खड़े थे कबसे इस
क्षण की प्रतीक्षा में
है मिला कब प्रेम मन को
सहज दीक्षा में
तुम मिले कुसमित हुई है
आस जीवन की
मंदिरों, दरगाह, पीपल
के बँधे धागे
तुम वही जिसके लिए
हम रात भर जागे
तुम मिले तो जग गई
झंकार आंगन की
कल्पना में था तुम्हारा
कल तलक मुखड़ा
भोज्यगृह, बिस्तर, बगीचा
सभी का दुखड़ा
आज उन सँग खुशी बाँटे
ताल धड़कन की
***
सिर्फ बाँचने लगे समस्या
सिर्फ बाँचने लगे समस्या
छोड़ समस्याओं के कारण
धर्म-पंथ विस्तार चाह है
पर अधर्म पथ चुना गया है
कितना ही षडयंत्र देश में
जालों जैसा बुना गया है
मानवता का अर्थ कहाँ है
धर्म हृदय में हुआ न धारण
छल ही छल है, हल की चिन्ता
पर संघर्षों से कतराते
सुई चुभाए बिन सिल जाए
मन में बैठे ख्वाब सजाते
भीष्म, द्रोण, कृप चुप बैठे हैं
टूट गया क्या मन का दर्पण
रंक बनेंगें महारंक अब
राजा जी महराज हो गए
भूल गए हम स्वर अंतर का
हम गीतों के साज हो गए
श्रम की सूखी रोटी मुश्किल
मगर मशीनों में आकर्षण
***
बाबूजी का खत आया है
बाबूजी का खत आया है
बेटा घर अब आओ
माँ खटिया पर लेटी बबुआ
केवल नाम तुम्हारा लेती
मेरे भी अब हाथ कांपते
अब मुश्किल है लखना खेती
बटेदार से सौ झंझट हैं
आकर तुम सुलझाओ
दशरथ बाबू के बच्चों के
भाईचारे का था किस्सा
मगर आज लछमन-सा भाई
दाब रहा है अपना हिस्सा
नहीं अकेला बाप तुम्हारा
उनको यह दिखलाओ
बेटा माना शहर तुम्हारा
आज भरण-पोषण करता है
पर क्या कोई पितृ-डीह को
धन-दौलत अपनी तजता है
तीन-चार माहों में इक दिन
तो तुम रहकर जाओ
***
नई सदी
बदल रहा है धीरे-धीरे
सबकुछ नई सदी में
सावन-भादों की बरसातें बदल गई हैं
तीक्ष्ण हो गई धूप
झूले खोये सखियों ने कजरी बिसराई
सूख गए नलकूप
फागुन में मधुमास नहीं है
ठंड नहीं सरदी में
बदल गईं है ज्यों जीवन की परिभाषायें
रिश्ते पड़े उदास
भेद-भाव ने आँखों पर पट्टी बांधी है
टूट रहा विश्वास
अंतर करना भूल गये हम
नेकी और बदी में
प्रगति पंथ पर बढ़े निरंतर पाँव हमारे
हरियाली को काट
गरज रहीं हैं तोपें, बम, पिस्टल, बन्दूकें
रहे धरा को बाँट
घोल दिया है कचरा हमने
पोखर, नहर, नदी में
***
गीत पूछो
है समय निष्ठुर बनाया
आज हमने
पर हमेशा हाल क्या ऐसा रहेगा?
गीत पूछो, तब कहीं बदलाव होगा
आग अंबर से बरसती धूप बनकर
नद, नदी, तालाब में कचरा सना है
वाहनों से हो रही दूषित हवा औ’
तीव्र ध्वनि पर नाम का केवल मना है
जानते हो
जब समस्याओं के कारण
हल निकालो, वर्ना घातक घाव होगा
हम बँटे हैं और बँटते जा रहे हैं
जानकर भी बँधी लकड़ी की कथा को
झेलना माना समय सापेक्ष होना
माना नियति, सामने आई व्यथा को
आज सीमा पर
हुआ पथराव सुनते
चुप रहे तो, केन्द्र पर पथराव होगा
गीत को जनगीत कह खोजें समीक्षक
स्वयं ही समझें, समझ पाए न कोई
कर दिया साहित्य को हथियार हमने
लोकगीतों के गले कंटक पिरोई
गीत की रचना
हुई मस्तिष्क से जब
क्यों नहीं फिर लोक से अलगाव होगा
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परिचय : राहुल शिवाय की 7 मौलिक और 6 संपादित कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं. फिलहाल कविता कोश का संपादन कर रहे हैं. कई संस्थाओं की ओर से सम्मानित हो चुके हैं.
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