विशिष्ट गीतकार :: वशिष्ठ अनूप

वशिष्ठ अनूप के दो गीत

 

हमारा वतन

जाति-धर्मों में इसको न बाँटे कोई
प्रेम की पाठशाला हमारा वतन ।
इसके जैसा नहीं है कोई दूसरा
सारे जग से निराला हमारा वतन।
जाति-धर्मों में …

सृष्टि सोई हुई जब थी अज्ञान में
सभ्यता ने यहीं आके खोले नयन ,
सूर्य ने सबसे पहले जगाया इसे
चहचहाई यहीं पर सृजन की किरन ;
सारी ऋतुएँ हैं सजकर उतरती यहाँ
बाँटता है उजाला हमारा वतन ।
जाति-धर्मों में ….

भव्य हिमगिरि की पावन धवल चोटियाँ
रत्नगर्भा धरा, दिव्य सागर यहाँ
कन्दराओं-वनों में कलाएँ भरीं
गंगा-यमुना-सा अमृत का गागर यहाँ
धर्म गुरुओं की, संतों की बानी यहाँ
एकता का शिवाला हमारा वतन ।
जाति-धर्मों में …

हम हैं सीमा पे डटकर खड़े हर तरफ
हम हैं खेतों में , हैं कारखानों में हम ,
चप्पे – चप्पे पे रखते हैं चौकस नज़र
सिंधु में हम डटे , आसमानों में हम ,
है लहू एक – सा , धड़कनें एक – सी
सारे रंगों की माला हमारा वतन ।
जाति धर्मों में …

 

देश है एक माँ

एक माँ देश में , देश है एक माँ
माँ तुम्हारे लिए कुछ भी कर जायेंगे
यह तो सौभाग्य होगा हमारा कि हम
तेरी गोदी में सर रख के मर जायेंगे

शान्ति प्यारी हमें , प्रीति प्यारी हमें
हम नहीं चाहते युद्ध की गर्जना ,
किन्तु दुश्मन की तुझ पे उठी गर नज़र
सच बताते हैं हद से गुज़र जायेंगे ।

जन्म तूने दिया तूने दी ज़िन्दगी ,
ज़िन्दगी अपनी तुझ पे लुटा देंगे हम
मेरी खुशबू से महकेगा सारा चमन
तेरा आँचल तो खुशियों से भर जायेगें ।

हम रहें ना रहें देश कायम रहे
आसमाँ में तिरंगा हँसे शान से
फूल-सी चार दिन की है यह ज़िन्दगी
गर न तोड़े गए तो भी झर जायेंगे ।

 

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