हरिहर प्रसाद चौधरी ‘नूतन’ के पाँच गीत 

हरिहर प्रसाद चौधरी ‘नूतन’ के पाँच गीत 

(कवि की पुण्यतिथि पर स्मरण) 

 

विघटन की गहराइयाँ 

छोटे-छोटे सुख के पौधे, ऐश्वयों की डालियाँ बौरायी हैं खट्टे-मीठे फलवाली अमराइयाँ ।

धोखे की टट्टी-सा मौसम खुलता गया स्वभाव में घुलता गया कहीं कड़वापन चारित्रिक अलगाव में

फटी दरारों वाली इस सामाजिकता की खाइयाँ मीलों चली गयी हैं ढलती, विघटन की गहराइयाँ

बिंबों में अँट गया कथानक हर सपाट व्यक्तित्व का

हर चौराहा शोध-ग्रंथ-सा खुला बंद अस्तित्व का ठगती रहीं सदा नजरों को दर्पण की परछाइयाँ पानी के ऊपर हों जैसे पड़ी फफूँदी-काइयाँ ।

 

भिंची हुयी मुठियाँ स्वयं ही उठती हैं आक्रोश में जानें क्या हो गया, न हम पाते अपने को होश में

रिसती हुयी नसों की पीड़ा, द्वीपों बनी इकाइयाँ अवमूल्यित व्यक्तित्व पी रहा अनगिनती तनहाइयाँ।

बढ़े हुए नाखून चीरते चेहरों पड़ी नकाब को

भीतर अब स्वीकार न कर पाता बाहरी दबाव को हुई धड़कनों में संचारित, अनचीन्ही अंँगड़ाइयाँ झुठला गयीं हमें ही पिछली यादों की सच्चाइयाँ ।

 

अबकी भावन सावन 

अबकी भावन सावन, बाँटे ना बूँद -रतन

आँगन ना मकई के दाने बरसाए !

बैठी गुमसुस उदास, धरती की भूख-प्यास

अबकी भी क्वाँरी ही रही जुही-अमलतास गर्भवती आशाएँ पीले मुख देख रहीं

धूप गोद धूल-शिशु, हाथ जो नचाए !

रीते सब ढोल-झाल, रीते सब बीन-वेणु

जानें कब ब्याएगी सागर की कामधेनु

हाली – हाली बरसो हे इन्नर – देवता

सीता से राधा तक रात-रात गाए !

सुखड़ा हो चुए आम, गर्भपात सहे डाल

पनिहारिन दूब डगर औंधी लेटी निढाल

नइकी बदली दुल्हन, चटकी-मटकी चितवन आँखों को तरसाकर अन्तःपुर धाए !

मुस्काए बट, पीपल, नीम, कास, कुश, कनेर सामा- कोदो-महुआ, कौनी, मिरचा, जनेर

राँगो – बस्तर साढी, लेटे पकड़े़ माटी —

बासमती की थाती-गंध लुटी जाए !

खाली-खाली मुकाम, चेहरे पर स्वेद -घाम

राशन की सस्ती दुकानों पर भीड़ जाम

“लइकन सब का खइहें कइसे दिनमा जइहें ” घर-घर की ‘धनिया’ से ‘होरी’ बतिआए !

 

वैशाली का रुदन – गीत 

मैं नहीं गणतंत्र की अब आदिमाता

नर्तकी केवल बची हूँ -आम्रपाली ।

छिना तीर्थंकर जनम के बाद मुझसे

और, गौतम दे गए उपदेश केवल

भिक्षुणी बनकर रही मैं बाँटती ही

जगत के कल्याण का संदेश केवल

किंतु मेरे घुंघरुओं के बोल में थी

दर्द की थाती, उसे किसने चुराली ?

लग रहे मेले हजारों साल से हैं

नाम पर मेरे कुहकते आम्र वन में

रूप मेरा सोम-रस में ढल गया है

किसी संघागार में एकांत क्षण में

स्नेह मेरा चुक गया सब दीप लौ पर

पर नहीं बीती अभी तक रात काली !

चींटियां भी थीं सुरक्षित जिस डगर पर

आज हिंसा के वहीं पहरे कड़े़ हैं

जिन विजय के अश्रु से हैं ताल पूरे

वृज्जियों के आठ घोड़े चुप खड़े हैं

कलँगियों वाले हजारों राज कुअँरों

की लुगाई मैं, अभागिन नाचवाली ।

 

मिली नहीं रोशनी विदाई 

अतिथि हुए अंधकार के घर

मिली नहीं रोशनी विदाई !

 

हिरना-मन बंसरी न भूले

रह-रह गुलमर्ग याद आए

छल का आखेट, प्यार सपना

हँस-हँस कर मर्म काट खाए

मिला एक तीर मर्म -भेदी

कस्तूरी गंध की कमाई

पात बिछी ओस रही तकती

चोटी पर बर्फ का पिघलना

कलगी का फगुनाया मौसम

लोढ़ गया पूनम का सपना

ज्वर की पद-चाप रही सुनती

उंगलियों थमी हुई कलाई !

पलको में आँजकर गगन को

कंधों पर बोझ कर हिमालय

मेरे ही लिये था प्रतीक्षित

शायद यह सूना मदिरालय

पत्री में टाँककर अमावस

लौट ही गयी शरद जुन्हाई

 

प्रत्यावर्तन 

आज वर्षों बाद फिर पहली कहानी लिख रहा हूँ लुप्त कितने हो गए मधुमास सारे

लुप्त कितने हो गए पतझार

मैं अकेला ही बढ़ाता डेग पथपर

देख पाया यह कठिन संसार

 

भावनाएंँ जोर खा-खा उठीं कितनी

और थककर सो रहीं चुप हार

रूप-परिवर्तन हुए कितने मगर–

है आज भी उर में वही चुप प्यार

 

वर्ष बीते तो हुआ क्या ? आज मैं स्मृति के सहारे फिर उसी ‘मधु-भूमिका’ में दिख रहा हूँ

आज वर्षों बाद फिर पहली कहानी लिख रहा हूँ

 

भूत

नाच आया था गगन का मेघ, था आषाढ़

आ गई थी प्रथम दिन ही उमड़कर ज्यों बाढ़

प्रीत पी उछली धरा थी, गगन से मिल

बूँदियों की डोर घर, वर प्यार

 

तुम उधर से

मैं इधर से

एक आकर्षण लिये था ठाढ़

एक युग से

 

दबा उर में आँधियों का अदमनीय प्रहार,

किन्तु, उस दिन रूप की आणि से लगा जो घाव–

पककर बह गया था

दर्द की धारा कहूँ क्या कर गई थी आज सीमा पार

 

आज तुम थे, और मैं था

आज मैं था और तुम थे

फूल भरकर अञ्जली में मूक आँखों से दिये थे

हृदय को मुझको मुखर उपहार

एक था मेरा नया संसार

 

नवल जीवन, नवल यौवन

नवल स्वर, नव बीन, नव झंकार

चन्द्रमा जो घन-घटा से झाँकता था

दीखता था – झाँकती हो तुम मुझे हर बार

 

मैं अकेला

मुदित खेला

रात भर आई कहाँ फिर नींद ?

कैसी थी भरी उम्मीद !

 

जागती ही रही पलकों की कहानी

रात सारी करवटों के बीच

रात थी लगती कि जैसे सुनहला था

स्वप्न का संसार

प्यार से जो जगमगाता,

एक तेरा और मेरा प्यार

 

वर्तमान

आज फिर है गगन में आषाढ उमड़ा

आज सिरहाने धरा फिर फूल

नींद आँखों में न है फिर आज आई

याद बनकर जागती है भूल

 

मैं पकड़कर फिर स्मृति की डोर-

आ गया हूँ पुन: चुप-चुप चोर-

उसी नन्दन में – जहाँ तुम कोकिला थी

उसी गिरि-जिसकी कि तुम गलती शिला थी

एक लेकर प्राण में यह आस कि

जी रही होगी कहीं पर आज भी तुम

तो पहुँच आई वहाँ होगी लिये उछ्वास

दर्द पी-पीकर बुझाने जलन दिल की

आह से लिखने करुण इतिहास

 

जी रहा मैं भी इसी जगती किनारे

हो रहा उर को जरा विश्वास

इसलिये कि आज भी रुक-रुक सड़़कती

चल रही है चीटियों- सी साँस

 

तो जरा उन मधु बनों से घूम आऊँ

उन लताओं को जरा कुछ चूम आऊँ

सहज ही है जाग आया भाव

बढ-चढ़कर चला है चाव

 

किन्तु, रह-रहकर हृदय में जोर करता एक अन्धड़

एक कटु-तूफान

जो कि निर्मम है न जिसको मिल सका है

कभी कोमल स्नेह का वरदान

जो कि है वैशाख की धरती तवे-सी

जो न पाया कर सरित-रस- पान

नहीं भाता जिसे कल-गान

वह संसार ही है

जहाँ जीने की लगी है एक चिन्ता, भावना का

है न कोई स्थान

 

प्रीत प्रभुता से जहाँ चलता सिहरता

जानकर भी कर रहा विष-पान

किन्तु, फिर भी भूलकर मैं आज जग को

हो रहा हूँ भावना में लीन

है जहाँ सुख मधु – मिलन का

व्यर्थ जीवन को न कोई आह

स्वप्न के झूले झुलाता पैंग दे दे

आज जो है, है हृदय की चाह

 

आज सावन-घन गगन में घिर रहे हैं

मैं गगन के दर्द से कुछ सिख रहा हूँ

आज वर्षों बाद फिर पहली कहानी लिख रहा हूँ

 

भविष्य

सोचता हूँ –

आज तुम मुझसे मिलोगी

रूप की कलि, फिर खिलोगी

हो चलूंँगा आज मैं न्योछावर

 

सकल जीवन

सकल यौवन

रूप पर ही आज दूंगा वार

फिर हृदय को बेकली से

आज फिर उन अञ्जली से

लोढ़ तुम दोगी नया उपहार

फूल का ही, जो नहीं अब मुरझ पायेगा

 

भले संसार

मुरझ जाए, झुलस जाए

और जलकर हो न क्योंकर क्षार

किन्तु, मैं दूंगा तुम्हें जो चीज़

वह नयी होगी मगर कुछ तल्ख़

आँसुओं की धार उमड़ेगी नयन में

और दर्र-दर्र फट पड़ेगा दिल

और वह है, एक जर्जर सीख

“प्यार जीवन मय बनाओ

प्यार अबतक है रहा बस मृत्यु

शक्ति दो जल दो, इसे दो मुक्त जीवन

प्यार है बलहीन, प्यासा, मृन्न ।”

 

और दोनों मिल नहीं तो मैं अकेला

ईश से यह करूंगा विनती–

” देव! निर्धन को न दो अरमान कोई

कोई उनको प्यार जैसी चीज

जो कि जगती के खुले बाजार में ही

बेच दी जाती समझ नाचीज़

और जीवन बन रहा है भार !

देव! दीनों को न दो तुम प्यार!”

 

रे, काँपते कर से बनाता ही रहा हूँ

आजतक मैं दर्द की तस्वीर

किन्तु पीछे से पहुंचकर कोई झोंका

लीप ही देता रहा बे पीर

पर, अधूरे चित्र को भी रख हृदय में

मैं रहा गाता सदा दृग मूँद

गर्व से, अभिमान से सिर तान अपना

“बूंद भी तो प्यार की है बूँद ”

 

 

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