फसलों-सा कट जाओ
जैसे मुस्कातीं हैं सुबहें,
वैसे तुम मुस्काओ।
बहो हवा-सा रिश्तों में तुम,
पेड़ों जैसा झूमों।
पत्थर भी हों राहों में तो,
लहरें बनकर चूमों।
समय परोसे गर दुख तुमको,
रोटी जैसा खाओ।
करजे की मिट्टी में गड़कर,
बीजों जैसे उगना।
चिड़ियों जैसा ही लाना है,
इन चूजों का चुगना।
पंख हौसलों के फैलाकर,
विपदा पर छा जाओ।
चलें प्रयासों के जब हल तब,
परती धरती तोडें।
बहे पसीना एड़ी-चोटी,
खुशियाँ कल्ले फोडें।
मुखिया हो तुम घर की खातिर,
फसलों-सा कट जाओ।
घर में कितना खटती हो माँ!
घर में कितना खटती हो माँ!
उठते ही जब झाड़ू थामों
कचरा भागे आगे।
हँसते मिलता है घर-आँगन,
सोया घर जब जागे।
घर में पौ-सी फटती हो माँ।
फटे वस्त्र की सुइया बनकर,
करती कभी सिलाई।
उधड़ी दिखती रिश्ता-सीवन
करती हो सुधराई।
रस्सी जैसी बटती हो माँ!
चूल्हा-चौका बरतन-भाँडे,
कपड़े-लत्ते पूजा।
काम पूर्ण हों सभी तुम्हीं से,
करे न कोई दूजा।
सैनिक जैसी डटती हो माँ!
मन्नत-मँगनी औना-गौना,
जच्चा-बच्चा सेवा।
रिश्तों में तुम ऐसे बहती,
जैसे गंगा-रेवा।
कभी न पीछे हटती हो माँ
वोटर सिर्फ बनाये हैं
बना न पाये श्रेष्ठ नागरिक,
वोटर सिर्फ बनाये हैं।
दुष्ट कमीने लोभी सारे,
इस सिस्टम पर भारी हैं।
हवा-दवा की करें तस्करी,
ये ऐसे व्यापारी हैं।
चरम पतन का दौर सामने,
राम-राज्य में लाये हैं।
ज्ञान समूचा धरा रह गया,
छल ने बाजी मारी है।
मास्क बाँधकर सत्य खड़ा है,
चेहरे पर लाचारी है।
मातृ-वंदना गीत सभी ने,
दिखलावे के गाये हैं।
एटम बम की मार झेलकर,
आज खड़ा जापान कहाँ।
देशभक्ति कुछ सीखें इससे,
पर हममें यह ज्ञान कहाँ।
मंदिर-मस्जिद से आगे की,
नहीं सोच हम पाये हैं।
कितना सहकर कहा कबीरा!
छः सौ सालों पहले तुमने,
कितना सहकर कहा कबीरा!
अब तो सभी निशाने पर हैं,
रहे तुम्हारे जो अनुयायी।
बने चहेते वे सब उनके,
जिनने पीछे पूँछ उगाई।
गलियों में बारूद बिछी है,
किला प्रेम का ढहा कबीरा!
हो सकता है कभी किसी ने,
तुम तक गुंडे भेजे होंगे।
और तुम्हारे डेरे ऊपर,
पत्थर भी तो फेंके होंगे।
गरल घृणा का पीकर तुमने,
कितना कुछ था सहा कबीरा!
कहाँ गये वे लोग जिन्होंने,
मगहर में थे फूल समेटे।
मिलजुलकर तुमको पूजा था,
अपनी बाँहें फैला भेंटे।
गंगाजी में लाश सरीखा,
भाईचारा बहा कबीरा!
डी.जे.के कोलाहल में
थाप ढोलकी की अब गुम है,
डी.जे.के कोलाहल में।
दादीजी के गीत-बधावे,
झेल रहे हैं निर्वासन।
मुम्बइया धुन पर अब बहनें,
मलतीं दूल्हे को उबटन।
साँस उखड़ती संस्कारों की,
इस बाजारू दलदल में।
चंग टँगी है दीवारों पर,
धूल फाँकता है बाजा।
अब दिल्ली की तर्ज यहाँ पर,
डी.जे. घोषित है राजा।
कान मरोड़े लोकगीत के,
त्योहारों की हलचल में।
फीके सारे रंग हुए हैं,
रिश्ते की तस्वीरों के।
बाज़ारों में काँच सजे हैं,
मोल नहीं अब हीरों के।
प्रेम हुआ सौदे की मंडी,
भाव बदलते पल-पल में।
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परिचय : कुँअर उदय सिंह अनुज की कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती है.
संपर्क : पोस्ट- धरगाँव (मंडलेश्वर), खरगोन (मध्य प्रदेश)- 451221