विशिष्ट गीतकार :: डॉ संजय पंकज

डॉ संजय पंकज के चार गीत

गीत अधूरे

तुम क्या जानो तुम्हें पता क्या
तुम बिन कितने गीत अधूरे!
वर्तमान के जस के तस ही
अपने रहे अतीत अधूरे!

खाली खाली भरी उदासी
सांसों की यह आवा-जाही
सूरज – चंदा धूप – चांदनी
लेकर आते तिमिर-तबाही

एक तुम्हारे ना होने से
धड़कन के संगीत अधूरे!

राहत का भ्रम देकर आहट
हर पल आकर केवल छलती
प्रीत-गुजरिया करवट-करवट
संग – संग पहलू में पलती

रातें कटती खुले नयन में
हर दिन जाते बीत अधूरे!

सन्नाटों के सपने आते
सुबह सुहानी संध्या लगती
गुमसुम गुमसुम उम्मीदों की
किरण अकेली बंध्या जगती

जीत अधूरी प्रीत अधूरी
तुम भी मेरे मीत अधूरे!

जाने क्यों ना देखा – समझा
फूलों का खिलना-मुरझाना
सुर में गाती चिड़ियों का भी
ध्यान न आया आना-जाना

सिहरे सिमटे सुधियों के स्वर
पल-पल हुए व्यतीत अधूरे!

बादल बिखरा

फुहियों में भींगा मन!
गुमसुम गुमसुम देख रहा है
मेघों का संवेदन!

भीनी भीनी खुशबू बोकर
वन उपवन का अपना होकर
बादल बिखरा झीना झीना
घर दरवाजे आंगन!

बूंदों की लड़ियों का आना
मनभावन मौसम का गाना
फुलझड़ियों सी झड़ियों में है
अंबर का अपनापन!

अंबर का धरती से कैसा
नाता नहीं कि जैसा तैसा
दूर क्षितिज तक चौवाई में
गहरा है संबोधन!

मेघ घनेरे आना रे
आना सावन आना रे!
पावन प्रीत जताना रे!

सूखी नदियां प्यासा सागर
खाली अंबर खाली गागर
धू धू जलती धरती देखो
मेघ घनेरे आना रे!
रूठे मीत मनाना रे!

महा अमंगल लू का दंगल
जलते पर्वत जलते जंगल
राम भरोसे श्याम सलोने
कोने कोने छाना रे!
मन के गीत सुनाना रे!

सबके सब मुंह फेर रहे हैं
जलचर थलचर टेर रहे हैं
आकुल व्याकुल मोर पपीहे
सजल नयन तू गाना रे!
प्यारी जीत बताना रे!

हमने ठान लिया है

चाहे जैसी विपदा आए
मधु मुस्कान लिया है!
चलना है केवल चलना है
हमने ठान लिया है !

बाधाएं तो आती रहतीं
जाने क्या क्या कहती रहतीं
वह तो बस एक कसौटी है
यह पहचान लिया है!

बादल बिजली अंबर बोले
बूंदों के संग पड़े ओले
संकट को अविचल धरती से
सहना जान लिया है!

जग-जीवन का इतना नाता
सूरज जैसा आता जाता
धूप चांदनी का पुरखों से
अनुपम ज्ञान लिया है!

हरियाली ले जंगल गाता
मंगलमय सागर लहराता
पर्वत पाथर झील नदी का
गौरव गान लिया है!

सत्य निदर्शन गीता-वाणी
भारत गाथा अमर कहानी
हम थे, हैं, और रहेंगे भी
हमने मान लिया है!

पंखों में घुसी दिशाएं

गोद नींद की बड़ी दुलारी
बैठी लोरी गाने!
रात हुई तो सोए पंछी
जागे सपन सुहाने!

मलयानिल ने उसे जगाया
सूरज ने दुलराया
नीड़ों तक बगिया की खुशबू
आई, मन हुलसाया

पंखों में आ घुसी दिशाएं
लगीं उसे तड़पाने
सुबह हुई तो निकले पंछी
गाते मधुर तराने!

दूर-दूर तक धरती फैली
लगी नहीं मट मैली
जीवन रस की ज्वार उठाती
अनुपम मोहक शैली

औचक ही जब हिचकी आई
चुगते चुगते दाने
दुपहर हुई कि चिहुंके पंछी
कैसे ठौर ठिकाने!

घात लगाए वधिक अंधेरा
बिखरा जाल घनेरा
कदम कदम पर कंकड़ कांटे
कैसे यहां बसेरा

किस्मत की है चाल निराली
धोखा चारों खाने
सांझ हुई तो लौटे पंछी
अपनी चुभन मिटाने!

…………………………

परिचय: डॉ संजय पंकज की कविताओं और गीत की करीब एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. इनकी रचनायें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होती रहती हैं

संपर्क – ‘शुभानंदी, नीतीश्वर मार्ग, आमगोला, मुजफ्फरपुर-842002
मोबाइल 6200367503

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