राहुल शिवाय के पांच गीत
मन के पाँव
आँगन तक बढ़कर
कोहवर को लौट गये
मेरे मन के पाँव बड़े नखरीले हैं
धीरे-धीरे
फगुनाहट चढ़ आएगी
मन की कोयलिया भी
गीत सुनाएगी
अभी सहजता
चौठारी तक पहुँची है
हल्दी वाले हाथ अभी तक पीले हैं
सुगापंखिया साड़ी में
ये लाल अधर
और अधिक अपनापन
भरते हैं खिलकर
उसपर कहना
खुले बाल का रह-रह कर
ज़रा सूखने दो हमको हम गीले हैं
आप-आप में
तुम-तुम की चाहत भरती
शर्माती आँखों में
कुछ हिम्मत भरती
पास अगर
आ जाती तो कैसा होता
इन्हीं रसों में खोये भाव रसीले हैं
हो पाते संवेदित
मेरे बेटे ने इक मरा
कबूतर देखा
चार दिनों से उसको भूल नहीं पाया है
कौआ कभी,
कभी तोता कहता है उसको
और पूछता है- ‘पापा क्यों मरा हुआ था’
वह अपने अंदर के
विचलन से विचलित था
आख़िर क्या था जिसने उसका हृदय छुआ था
कितनी बातें
रोज़ भूल जाता है लेकिन
पता नहीं क्यों उसे नहीं वह बिसराया है
शायद भोले मन ने
वह महसूस किया था
हम जिसको हर दिन अनदेखा कर देते हैं
थोड़ा भी
संवेदन जब मन में जगता है
मान बचपना उसके पंख कुतर देते हैं
हमें नहीं
पीड़ा देती औरों की पीड़ा
हमने दुनिया को ऐसी ही ठुकराया है
काश! कभी
जुड़ पाते, हो पाते संवेदित
और ढूँढते दुनिया के भी दुख का कारण
कितनी बदली-बदली
अपनी दुनिया होती
अगर शोर में सुन पाते दुख का उच्चारण
उसी कबूतर के जैसे
जाने कितनों को
हमने देखा, और देखकर झुठलाया है
घुस आया तेंदुआ शहर में
तुम कहते हो
घुस आया तेंदुआ शहर में
लेकिन सच है
घुस आये हम उसके घर में
हमने धीरे-धीरे
उनका जंगल छीना
जीवन छीना
सुख, आज़ादी, मंगल छीना
हमको सिर्फ़
विरोध दिखा है कातर स्वर में
धरती क्या हम
आसमान भी छीन चुके हैं
पंक्षी की ऊँची
उड़ान भी छीन चुके हैं
हमने कोमल मन को
बदल लिया नश्तर में
सारी धरती
जीव सभी बस हैं संसाधन
हमें सुनाई देता नहीं
किसी का क्रंदन
ज़्यादा अंतर नहीं
आज मानव-पत्थर में
सुनो त्रिलोचन!
सुनो त्रिलोचन!
अब चम्पा भी
लगी चीन्हने काले अक्षर
‘कलकत्ते पर बजर गिरे’
ऐसी बातों को
भूल गयी है
थैला लिए
पीठ पर अपने
सुबह-सुबह स्कूल गयी है
गोद रही है
काग़ज़ पर वह
सपनों भरे निराले अक्षर
अब भी चंचल है,
नटखट है
और उधम करती रहती है
गाँधी बाबा की बातों को
अब वह
‘सुन्दर’ से कहती है
मस्ती में रहती,
पढ़ती है,
गढ़ती है मतवाले अक्षर
आओ सीखो!
मोबाइल पर
कविताएँ लिखवाएगी अब
पढ़-लिख कर
क्या कर सकते हैं
ख़ूब समझती इसका मतलब
देखो कैसे
खोल रहे हैं
अब जड़ता के ताले अक्षर
सुबह
तुम्हें कौन सी सुबह चाहिए
किसकी तुमने की तैयारी
एक सुबह उतरी खेतों में
ओस-कणों पर धाक जमाने
अलसाई कलियों के मन में
फूलों का अहसास जगाने
यही सुबह है गाँव-घरों की
पा जिसको हँसती है क्यारी
एक सुबह शहरी सड़कों पर
लेकर आती आवाजाही
एक सुबह सूने अंबर पर
गोद रही सिंदूरी स्याही
यही सुबह है जिसे जानती
जगती-सोती दुनिया सारी
एक सुबह है जो जीवन में
रोज़ नया अँधियारा बुनती
जो सत्ता, पैसे, ताक़त से
दिन के मालिक को है चुनती
वर्षों से हम इसी सुबह को
चुनकर, झेल रहे लाचारी
एक सुबह प्रतिरोधों की है
जिसकी आँखों में है सपना
एक सुबह उम्मीदों की है
जिसमें श्रम लगता है अपना
ऐसी सुबहें ताक रही हैं
जाने कबसे राह हमारी
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परिचय :: राहुल शिवाय कवि और गीतकार हैं. इनके पांच नवगीत संग्रह सहित 17 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.
उ. प्र. हिन्दी संस्थान से हरिवंश राय बच्चन युवा गीतकार सम्मान प्राप्त है
उपनिदेशक : कविता कोश।
मो.: 8240297052