विशिष्ट गीतकार :: रमेश शर्मा

अब देह का है कहाँ नेह प्रिये !

निस्तेज हुए अब नैन तेरे, वेणी में झलकते, केश धवल !

मुस्कान की झीलें, सूख गई, कुम्हलाने लगे, अधरों के कंवल !

अब देह का है कहाँ नेह प्रिये !

बस नेह रहा, गई  देह प्रिये !

 

कोयल की कुहुक अब, हूक बनी, बाँसुरिया तू, शंखनाद हुई !

वो तनी, चमकती, दमकती त्वचा, अब झुर्रियों में अनुवाद हुई !

अब झंझावात हैं और कई, एक मैं ही नही संताप तेरा !

मुख पर हैं भाव, पराजय के, और मंद हुआ रक्तचाप तेरा !

है मुझ को भी मधुमेह प्रिये !

अब देह का है कहाँ, नेह प्रिये !

बस नेह रहा, गई देह प्रिये !

 

अब कंटकवन से, फूल चुनें, वो दुस्साहस, छिन्नभिन्न प्रिये !

अब बन्द है उम्र की बोतल में, वो देह का रसिया, जिन्न प्रिये !

बादल बरसे, टिप टिप सर पे, और पांव तले छप छप पानी !

वो भीग ठिठुरते, छींकते दिन, एक आंच छुपाए अनजानी !

अब सधता नही वो मेह प्रिये !

अब देह का है कहाँ नेह प्रिये !

बस नेह रहा-गई देह प्रिये !

 

अब गुलमोहर से फूल नही, चूल्हे की लकड़ी चुनने लगे !

तुम आधा स्वेटर, छोड़ मेरा, खाटों की, निवाडें,बुनने लगे!

मनभावन थे, पहले बादल, अब इन से चोटें टीसती है !

उबटन के लिए नही अब हल्दी, चोटों के लिये तू पीसती है !

लूँ नियमित मैं, अवलेह प्रिये !

अब देह का है, कहाँ नेह प्रिये !

बस नेह रहा, गई देह प्रिये !

 

वो कुल की मर्यादा, लज्जा, पुरखों का कोई बखान नही !

अब दरवाजे में, खड़ी रहो, या खिड़की पर कोई ध्यान नही !

जितनी भी सजे सँवरे लेकिन्, अब तू कागज का गुलाब दिखे !

मुझे ख़त भी लिखे, तो दुनिया को, घर के खर्चे का हिसाब दिखे !

क्या कोई करे संदेह प्रिये !

अब देह का है, कहाँ नेह प्रिये !

बस नेह रहा गई, देह प्रिये !

 

मैं तब से जानता हूँ

दर्पण में जब वो हर दिन, ख़ुद को नया-नया सा

अचरज से ताकती थी, मैं तब से जानता हूँ

सीधी सी बात पर भी, सीधे सहज ही उसने

मुझसे न बात की थी, मैं तब से जानता हूँ

 

जंगल में एक दानव, परियों को बांधता जब

करती थी प्रार्थना वो, युवराज आओ भी अब

किस्से-कहानियों में, इक चांद बैठी बुढ़िया

जब सूत कातती थी, मैं तब से जानता हूँ

 

चिट्ठाए बालों वाले सर को झुकाए नीचे

आँखों पे आए लट फिर, फिर फेंकती वो पीछे

आंगन में अपने घर के, लू की भरी दुपहरी

उपले वो पाथती थी, मैं तब से जानता हूँ

 

आँखों में मोटे-मोटे, सपनों की छोटी दुनिया

गोदी लिए वो फिरती, भाभी की नन्हीं मुनिया

मेरा ध्यान खींचने को, उसे डाँटकर रुलाती

और फिर दुलारती थी, मैं तब से जानता हूँ

 

प्रेम को ‘परेम’ लिखती, दिन को वो ‘दीन’ लिखती

जीना हुआ है ‘मुस्किल’, अब ‘तूम बीन’ लिखती

अशुद्धि में व्याकरण की, वो शुद्ध भाव मन के

कहते थे आपबीती, मैं तब से जानता हूँ

 

मुझे वो चिठ्ठी लौटा दो !

ए दूरभाष की सुविधाओं, मुझे वो चिठ्ठी लौटा दो !

फाड़ के फैंकी उस चिठ्ठी का, पुरजा पुरजा ला दो!

मुझे वो चिठ्ठी लौटा दो !

 

चिठ्ठी आये, या ना आये, भय संशय व्याकुलता !

आँख उनींदी, नींद न आये, एक आनन्द अलग सा !

चिठ्ठी तो बढ़ चढ़ कर लिखना, सम्मुख थर थर कम्पन –

भय के पांवों, दबे समर्पण का सम्बन्ध अलग सा !

मन के मौलिक, सुख दुख की उस दुनिया को दोहरा दो !

मुझे वो चिठ्ठी लौटा दो !

 

वो भी दिन थे, घर में जब जब, चिठ्ठी कोई आती !

अनपढ़ दादी, मनुहारें कर, पोतों से पढवाती!

अपने नाम नमस्ते पढ़ कर, काका खुश हो जाते –

वंदन चरण का सुन के ताई, फूली नही समाती !

अपनी नहीं मिले तो चिठ्ठी, औरों की ही ला दो !

मुझे वो चिठ्ठी लौटा दो !

 

सोच के लिक्खी, जाँच के लिक्खी, काट छाँट कर लिक्खी !

रात गए तक जाग लिखी, कुछ छत पर छुप कर लिक्खी !

क्या सोचेगी, उसकी जगह, खुद को रख के सोचा

पूरी कॉपी फाड़़ के लिक्खी, एक ज़रा सी चिठ्ठी !

उसकी किताबों में ख़त मेरे, चुपके से रखवा दो !

मुझे वो चिठ्ठी लौटा दो !

 

छोटे बच्चे को लालच दे, भेजे ख़त का उत्तर

कंकर से लिपटे कागज़ में लिखा हुआ आया था !

“ख़त लिखती हूँ खून से स्याही, तुम न समझना प्रियतम”

ऐसे ही कुछ शेरों के संग, फूल बना पाया था !

उस मुशायरे की जाजम फिर, कागज़ पे बिछवा दो !

मुझे वो चिठ्ठी लौटा दो !

 

फ़ुर्सत की रातों में हम, सन्दूक सम्भाला करते !

सभी पुराने ख़त पढ़ कर, यादों का उजाला करते !

उस ने सीधे, सरल भाव से लिक्खा होगा फिर भी —

एक ही बात के, जाने कितने अर्थ निकाला करते !

चाबी गुम है, तार से तुम ,संदूक मेरा खुलवा दो !

मुझे वो चिठ्ठी लौटा दो !

 

पत्ते झरने लगे, बूढ़ा बरगद हुआ, बस गई उम्र का आकलन रह गया !

पत्ते झरने लगे, बूढ़ा बरगद हुआ, बस गई उम्र का आकलन रह गया !

मेरे गीतों पे जो, तुमने बांधी कभी, ज़िल्द वो फट गई, संकलन रह गया !

पत्ते झरने लगे …

 

एक बरसात की सील ऐसी जमी –

मन की दीवार, भीगी है बरसों हुए !

एक दशक बीत कर भी, ये लगता मुझे –

अलग जैसे, हम कल या परसों हुए !

एक हथेली तेरी, एक हथेली मेरी, ओक बन ना सकी, आचमन रह गया !

पत्ते झरने लगे …..

 

हैं वो कंकर अभी भी मेरे पास में –

बाँध चिठ्ठी में तेरे उछाले हुए !

दोपहर उम्र की, गाँव के छोर पर-

बीती पगडंडी पे प्याऊ डाले हुए !

ठंडा पानी भी था, गुड़ भी था नेह का, लोग आए, तेरा आगमन रह गया !

पत्ते झरने लगे …..

 

पात पीपल के तुम ने, गणित में रखे –

तितलियां मार डाली थी इतिहास में !

पाठ पढ़ते वो हिंदी में तुम राम का –

रोये कितने थे सीता के बनवास में !

बात भूले वो तुम, तितलियां खो गईं, याद मुझ को सभी, आदतन रह गया !

पत्ते झरने लगे ……..

 

धुँधले दर्पन में गालों की अरुणाईयाँ –

अपनी आंखों को दिखला के, छलता रहा !

उम्र की उंगलियाँ, दस्तख़त कर गईं –

मैं भुलावे का, उबटन ही मलता  रहा !

कौन से रास्ते, जाने किस मोड़ पर, कब बिछड़ कर मेरा, बांकपन रह गया !

पत्ते झरने लगे ……

 

जब गरजे तब बरसे नही, उस शाम सी लड़की थी !

जब गरजे तब बरसे नही, उस शाम सी लड़की थी !

उहापोह के निकले हुए, परिणाम सी लड़की थी !

गीत मैं जिसके गाता हूँ, एक आम सी लड़की  थी !

 

परी न चंदा, मृगनयनी ना रूप की राजकुमारी सी !

कलकल नदिया, ना ही अप्सरा, ना सुंदर फुलवारी सी !

कलाकार की कल्पित रचना, मैना ना अमराई की –

,मस्त ठुमकते सावन जैसी, ना चंचल पुरवाई सी !

लीपे आँगन पर मांडे,  चित्राम सी लड़की थी !

गीत मैं जिसके गाता हूँ, एक आम सी लड़की थी !

 

दो के पहाड़े जैसी सीधी, एक से दस तक गिनती सी !

पहली कक्षा के बच्चे की विद्या माँ से विनती सी!

चूल्हा चौकी ,झाड़ू बर्तन, बचपन से ही बोझ लिए –

चित्रकथा की पुस्तक थी वो, माँ के हाथों ,छिनती सी !

आधे वाक्य के आगे, पूर्णविराम सी लड़की थी !

गीत मैं जिसके गाता हूँ, एक आम सी लड़की थी !

 

मोहल्ले की हलचल पर वो, करती नही थी परिचर्चा !

मोर सा नर्त्तन, भँवरे गुनगुन ,तितली सी ना दिनचर्या !

रजनीगंधा, जूही, केतकी, अनुकम्पा, ना जिज्ञासा

श्वेता, मुक्ता, युक्ता ना ही क्षमा ,विभा या ऐश्वर्या !

सीता, गीता, मीरा जैसे नाम सी  लड़की थी !

गीत मैं जिसके गाता हूँ, एक आम सी लड़की थी !

 

गन्धों का ना, मादकता का उत्तेजक अहसास जगे !

भावभंगिमा नही के ऐसी, कंठ सुखाती प्यास जगे !

ताजमहल पर, रुके चांद का चित्र न दीखा उसमें तो

मैं क्या बोलूँ, देख के उस को, मुझ में क्या अहसास जगे !

तेज़ बुखार के, बाद हुए, आराम सी  लड़की थी !

गीता मैं जिसके, गाता हूँ, एक आम सी लड़की थी !

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परिचय : रमेश शर्मा चर्चित गीतकार हैं. इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं
संपर्क – चित्तौरगढ़, राजस्थान

 

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