विशिष्ट कहानीकार : ऋचा वर्मा

ऋण 

  • ऋचा वर्मा

 

शहर के इस पांच सितारा होटल का बैंक्वेट हॉल बत्तियों और गुब्बारों से सजा हुआ था। रामरूप सिल्क का कुर्ता और झकाझक सफेद पजामा पहने कार्यक्रम स्थल के चप्पे-चप्पे का निरीक्षण कर रहा था। प्रवेश द्वार पर खड़ी दो सुंदर लड़कियां चांदी की ट्रे में रखे गुलाब के फूल की पंखुड़ियों से अंदर जाने वालों के ऊपर पुष्प वर्षा कर खाने का मेनू कार्ड भी थमा  रही थीं। प्रवेश द्वार से लेकर बैंक्वेट हॉल तक हर जगह शैलेंद्र सहाय के बचपन से लेकर इस उम्र तक की सौ तस्वीरें सुंदर फ्रेम में  सजाकर रखी गई थीं। कहीं वे छोटे बच्चे के रूप में दिख रहे थे,कहीं स्कूल के छात्र के रूप में ,कहीं डिग्री लेते हुए गाउन में, कहीं खेलकूद के लिए पुरस्कार लेते हुए, परिवार के साथ, ऑफिस के लोगों के साथ, पत्नी के साथ, बच्चों के साथ ,नाती पोतों के साथ , होली और छठ की तस्वीरें.. उनके पूरे जीवन की एक झांकी  प्रस्तुत थी उन तस्वीरों में । अंदर घुसते ही सबकी नजरें बहुत ही खूबसूरत मेज पर जाकर अटक जा रही थीं। उस मेज को सौ रंग -बिरंगे गुलाबों से सजाकर  उनकी निजी पुस्तकालय से निकालकर विश्व भर के साहित्यकारों की सौ पुस्तकें बहुत ही खूबसूरती से सजा कर रखी गई थीं।

प्रवेश द्वार से लेकर बैंक्वेट हॉल के अंदर तक हर जगह सुंदर लाइट से लिखा हुआ बधाई संदेश जगमग कर रहा था – ” वी वेलकम यू ग्रैंडपा, विद हंड्रेड फोटोग्राफ्स, हंड्रेड कैंडल्स,हंड्रेड रोजेज एंड योर फेवरिट हंड्रेड बुक्स फ्रॉम वर्ल्ड लिटरेचर ऑन द हैपिएस्ट ओकेजन ऑफ योर हंड्रेड्थ बर्थडे।” हॉल के दूसरे छोर पर सफेद और सुनहरे रंग के समायोजन से बने स्टेज पर फरमाइशी गीत गाये -सुनाये जा रहे थे। स्टेज क्या, पूरे हॉल की सजावट सफेद और सुनहरे रंगों के समायोजन से बहुत ही खूबसूरती से की गयी थी । बगल वाले स्टेज पर सिंहासननुमा कुर्सी रखी गई थी। कुर्सी के बैकग्राउंड में बने पर्दे पर भी विभिन्न प्रकार के प्रकाशों के समायोजन से बहुत ही कलात्मक ढंग से लिखा गया था – ” हैप्पी बर्थडे दु आवर ग्रैंडपा ।”  बुढ़ापे में ही सही रामरूप ने इतनी अंग्रेजी सीख ली थी, सो संदेशों को पढ़ते ही उसके होठों पर एक मुस्कान आ गई ,आंखें डबडबा गईं,और मन ही मन उसने हाथ जोड़कर ईश्वर को धन्यवाद दिया और फिर मंच के ठीक नीचे की सीढ़ियों के पास खड़े होकर उसने पूरे हॉल पर एक विहंगम दृष्टि डाली।सब कुछ ए – वन था‌। कैटरर्स के सारे कर्मचारी यूनिफॉर्म में सजे- धजे ..टोपी, दस्ताने, मास्क ,और सबसे बढ़कर सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए ।

…सोशल डिस्टेंसिंग से याद आया, सैंतीस वर्ष पूर्व कोरोना की दूसरी लहर आई थी। सहाय साहब और उनकी पत्नी चैत नवमी के पूजा के लिए गांव आए थे…

‘पहले चाय पी लीजिए। फिर अखबार पढ़िएगा।’ मिसेज सहाय ने सहाय साहब के हाथ से लगभग अखबार छीनते हुए कहा। लेकिन  अखबार पर अपनी नजरें जमाए सहाय साहब चाय पीते रहे।

‘इस तरह बिना देखे चाय पी रहें हैं ..! मक्खी – वक्खी गिर गई तो !’

‘तुम्हारे रहते ऐसा कुछ भी नहीं हो सकता है।’

विवाहित जीवन के चालीस वर्षों के अनुभव के बाद अगर सहाय साहब ने ऐसा कुछ कहा, तो इसे अतिशयोक्ति नहीं माना जा सकता था। सहाय साहब की आंखें बेसाख्ता मिसेज सहाय के सुंदर गोल मटोल चेहरे पर अटक गईं थीं। इस उम्र में भी शर्म की एक लाली मिसेज सहाय के चेहरे पर दौड़ गई और उन्होंने अपनी मोटी मोटी पलकें झुका लीं। सहाय साहब के मन में आया कि झट से अपनी सुंदर पत्नी को चूम लें, परंतु वे लोग दालान में बैठे थे ,राहगीरों की नजर उनसे टकरा भी रही थी, इसीलिए उन्होंने पूर्ववत अखबार पर नजरें गड़ा लीं।

‘चलिए पटना ,ताजा अखबार मिलेगा। यहां गांव में तो शाम को  अखबार मिलता है…बासी अखबार…।’

मिसेज सहाय की आवाज में किशोरियों सी चपलता और चुहल थी।

‘बड़ी जल्दी मची है पटना जाने की ?’

कहते हुए सहाय साहब के होंठ मुस्कान के अंदाज में अवश्य फैले, पर दिल के अंदर का दर्द उनके होठों पर साफ – साफ नजर आ रहा था… रहस्यमयी मुस्कान, मोनालिसा जैसी।  शहरों में सेवानिवृत्ति के बाद पुरुषों को एक चीज की कमी सबसे ज्यादा महसूस होती है… और वह है साथियों की, या फिर कह लें कि मिल बैठकर बातचीत करने वालों की। पड़ोस में अपने वय के लोग मिल गए, तो बहुत अच्छा। वरना तो हर इंसान दौड़ता – भागता नजर आता है ।अपार्टमेंट के फ्लैट में अगर बाहर का दरवाजा बंद कर दें, तो  दुनिया को देखने के लिए बस एक ही खिड़की बचती है… वह है टेलीविजन। बालकनी में बैठकर आने – जाने वाले लोगों को देख तो सकते हैं, परंतु इंटर‌एक्शन एकदम शून्य। इधर गांव में बाहर ओसारे पर बैठें या फिर दालान में, सुबह – शाम तो लोग  मिलने आते ही हैं और नहीं भी आए तो रास्ते से गुजरते दुआ – सलाम जरूर हो जाती ‌। रिश्तो में इतनी  प्रगाढ़ता होती है कि आते – जाते कोई भी युवक जरूर पूछ लेता  -“बाबा कोई चीज के जरूरत होई त कहम।”

और ऐसी बातें महज औपचारिकता में नहीं कही जातीं। सहाय साहब हक से उन्हें छोटा से छोटा काम अढ़ा देते। मिसेज सहाय बहुत ध्यान से उनके चेहरे पर नजर टिकाए देखती रहीं । तभी फोन की घंटी बजी

‘किसका फोन है?’

‘समीक्षा का।’

‘लो बात करो।’

‘क्यों आप नहीं कर सकते?’

‘अरे, आज नवमी है। उसकी छुट्टी होगी। लंबी बात करने के मूड में होगी।’

मिसेज सहाय ने फोन थाम लिया,

‘हेलो ..।’

‘प्रणाम मम्मी।’

‘खूब खुश रहो, स्वस्थ रहो ,सदा सुहागन रहो ..।’

‘पूजा पाठ हो गया.. झंडा लग गया? ‘

‘हां लग गया ,रामरूप और उसकी पत्नी लगे रहते हैं ,खाना वगैरह भी वही लोग बना देते हैं।’

‘पापा का मन लगता है?’

‘खूब लगता है।डाक्टरी भी चल रही है। गांव भर के लोग अपने पशुओं के इलाज के लिए इनके पास आते हैं।’

सहाय साहब पेशे से पशु चिकित्सक थे, सो आए दिन गांव वाले अपने जानवरों को उनके पास इलाज के लिए ले आते और बदले में दूध, दही, फल सब्जी.. जो भी जुड़ता – अंटता उनके घर तक पहुंचा देते। इसके अलावा आए दिन दरवाजे पर पंचायत लगती ।लोगों के बीच झगड़े सुलझाने हों, उन पर लगे पुलिस केस को सुलझाने की बात हो या फिर बैंक संबंधी कोई काम हो, उनके द्वार पर लगी चौकी और उसके आसपास लगी कुर्सियां ऐसी बातों को सुलझाने के लिए सबसे मुफीद जगह होतीं।

रामरूप का नाम सुनते ही समीक्षा चिहुंक गई  – ‘कितने स्वादिष्ट गोलगप्पे बनाते हैं रामरूप भैया ! ‘

समीक्षा उन्हें भैया ही कहती

‘और अहा! छेदी चा के हाथ के गट्टे और सोनपापड़ी.. आज तक नहीं भूली उनका स्वाद..।’

सहाय साहब जब शहर में होते, तो रामरूप गांव के बाज़ार में गोलगप्पे चाट का ठेला लगाता।  उसके पिता भी एक जमाने में बहुत अच्छी सोनपापड़ी ओर गट्टे बनाया करते। गर्मियों की छुट्टी में सहाय साहब सपरिवार गांव जरूर जाते। बच्चों को बड़ा इंतजार रहता उस इवेंट का जिसका नाम था ‘गांव जाना है आम खाने’ । गांव में उनका बहुत बड़ा बागीचा था आम के पेड़ों का..सिनुरिया,बीजू, मालदह सीपिया,सुकुल..हर आम की अपनी सुगंध, अपनी तासीर और खाने का अपना तरीका.. इतने स्वाद और मिठास के बावजूद रामरूप के पिता के हाथ की बनी सोनपापड़ी और गट्टे बच्चों के स्वाद ग्रंथि पर अपना एक अलग ही असर रखते और बच्चे उसे जरूर खरीदकर खाते-खाते बगीचे तक पहुंच जाते । तो गांव में एक सामाजिक जीवन के अलावा रामरूप के हाथ के खाने का स्वाद भी सहाय साहब को शहर जाने से रोक लेता। इस बार भी वह रूक गये।

बेटा तो ऑस्ट्रेलिया जाकर बस गया था, पर तीनों बेटियां बिहार के ही अलग-अलग शहरों में रहती थीं । लिहाजा बेटे ने पटना में उन्हें एक फ्लैट खरीद कर दे दिया था,ठीक अपनी बहन के फ्लैट के बगल में, ताकि परिवार के सानिध्य के साथ-साथ उन्हें अपनी स्पेस भी मिल सके।

सभी बच्चे अपनी-अपनी ज़िंदगियों में अच्छी तरह सेटल्ड थे, समृद्ध थे। सो अपनी पेंशन की राशि खुले हाथों से खर्च करते। मतलब कि गांव वालों को आर्थिक मदद करने में भी आगे – आगे रहते । उन्हीं गांव वालों में से एक था रामरूप। सहाय साहब के घर-बार खेती-बाड़ी सबकी देखभाल उसके जिम्मे होती।

पटना शहर की सड़कें मनहूसियत की प्रतिमूर्ति बन एक छोर से दूसरे छोर तक अपने सीने पर एंबुलेंस ,तड़पते हुए रोगी, भटकते हुए परिजन, बिछड़ते हुए प्रेमी ,विधवा होती महिलाएं ,अनाथ होते बच्चों का बोझ लिए बेतहाशा दौड़ रही थीं । किसी को अपनी मंजिल का पता नहीं था… बस सब दौड़ रहे थे।लाशें भी दौड़ रही थी, इस घाट से उस घाट तक ,जली तो जली, नहीं तो गंगा मैया की  गोद में प्रवाहित कर दी गईं। हर व्यक्ति अपने घर में दुबका बैठा था। खिड़कियां तो खुली रहतीं,  पर दरवाजे सिर्फ ऑनलाइन ग्रॉसरी या दूसरे जरूरी सामानों को लेने के लिए खुलते। किसी को जल्दी नहीं थी किसी सामान को चेक करने की। सामान घर पहुंचकर  भी अपने ठिकानों पर बारह घंटे बाद ही पहुंचते। सहाय साहब की तीनों बेटियां भी सपरिवार अपने घरों में दुबकी पड़ीं थीं।

सड़क पर दौड़तीं उन्हीं एंबुलेंसों में से एक एंबुलेंस में मिसेज़ सहाय और मिस्टर सहाय एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल तक भटक रहे थे। उनके पीछे गाड़ी लेकर रामरूप और एक दूसरी गाड़ी लेकर उनके दामाद भटक रहे थे, लेकिन किसी भी हॉस्पिटल में जगह नहीं मिली । इसी जद्दोजहद में इस अस्पताल से उस अस्पताल भटकते हुए शहर के नामचीन अस्पताल के गेट तक पहुंचकर मिसेज सहाय का ऑक्सीजन लेवल 19  पर चला गया। दो बुजुर्गों के बीच मात्र एक अटेंडेंट रामरूप कभी हॉस्पिटल के काउंटर पर, तो कभी सहाय दंपत्ति के बच्चों के फ़ोन अटेंड करते हलकान था। दामाद जी का हाल ही में एक बड़ा आपरेशन हुआ था।सो, अस्पताल के काउंटर और एंबुलेंस के पास तक जाना उनके लिए खतरे से खाली नहीं था।सो मन मसोस कर वे गाड़ी में ही बैठे रहे। तभी एंबुलेंस के कर्मचारी ने आवाज दी ,मिसेज सहाय को सांस लेने में तकलीफ हो रही थी।वह बहुत छटपटा रहीं थीं और फिर अचानक शांत हो ग‌ईं। अस्पताल के कर्मी और डॉक्टर ने एंबुलेंस में आकर परीक्षण किया और उन्हें मृत घोषित कर दिया पर सहाय साहब अभी तक होश में थे। रामरूप हतप्रभ था।चारों बच्चे कॉन्फ्रेंस कॉल में थे।तकनीक का असर था…खबर आग की तरह फैली और कॉन्फ्रेंस कॉल की आभासी  दुनिया रुदन और सिसकियों से गूंज उठी । सब व्याकुल थे..काश कि एक – दूसरे के आंसू पोंछ सकते।काश कि मां के शरीर को छू – छूकर जानने की कोशिश कर पाते कि अभी कुछ जिंदगी बाकी है! उन्हें वहीं रोना था, वहीं चुप होना था । कोरोना प्रोटोकॉल के तहत मां का अंतिम संस्कार हुआ‌। सहाय साहब को हॉस्पिटल में एक बेड दे दिया गया, बेटे ने बहुत ऊंची पैरवी लगाई थी । पिता कोविड वार्ड में थे। बार्डर बंद था।शहर में लॉकडाउन था। केवल  समीक्षा.. उनकी बड़ी बेटी के लिए ही हॉस्पिटल जाना संभव था,  लेकिन सबने उसे भी जाने से रोका –

“बहुत मुश्किल से हॉस्पिटल में एक बेड मिला है। अगर तुम गई और तुमको इन्फेक्शन लगा और जीजाजी को भी हो गया, तो दो और बेडों का इंतजाम करना पड़ेगा। ‘

सभी बच्चे धाड़ – धाड़ रो रहे थे। मां मर गई थी। पिता अस्पताल में थे। बेटी तक कोविड वार्ड में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। परंतु रामरूप इस मौके पर देवदूत बनकर खड़ा हो गया पीपीई किट पहनकर रोज कोविड वार्ड में जाता ,सहाय साहब को ढांढस बंधाता।  बहुत से लोगों ने उसे चेताया भी कि तुम्हारे बाल बच्चे हैं, परिवार है.. जरा संभल कर रहा करो।

पर रामरूप का टका – सा जवाब होता –

” चाहे कुच्छो हो जाए, हम बाबा के ना छोड़ब।”

अस्पताल में रामरूप के विषय में डॉक्टर पूछते, तो सहाय साहब कहते

” ही इज माई एडाप्टेड सन।”

“लेकिन यह तो आपको बाबा कहता है !”

डॉक्टर मुस्कुराकर कहते

“अरे,यह तो गांव का रिश्ता है, इसलिए।”

 

रामरूप की सेवा का असर था कि सहाय साहब धीरे-धीरे ठीक होने लगे और फिर डिस्चार्ज होकर सीधे गांव चले गए । गांव पर पत्नी का ‌‌श्राद्ध  – तर्पण का कार्यक्रम हुआ।बेटियां आईं , बेटा तो खैर नहीं आ सका, और सब कुछ खत्म होने के बाद वे सब अपने अपने घर चलीं गईं।

जीवन की राह पर अकेले पड़ गए थे सहाय साहब ! उम्र का असर और आर्थराइटिस का बढ़ता प्रकोप … पत्नी तो रही नहीं और खुद उन्होंने   व्हीलचेयर पकड़ लिया था। अब उन्हें चौबीसो घंटे अटेंडेंट की जरूरत थी। वे गांव छोड़ने को तैयार नहीं थे और  बच्चों के लिए गांव में रहना संभव नहीं था । ऐसे में रामरूप उनका पीर, बावर्ची, भिश्ती ,खर सबकुछ बन गया और वह उसके बच्चों के दादाजी। उन्होंने उसके बच्चों की पढ़ाई – लिखाई अपनी देखरेख में करवाई। अच्छी संगत पाकर उसके बच्चों  ने भी जिंदगी में मुकाम हासिल किया। सहाय साहब के नाती – पोतों के साथ उन बच्चों की हैसियत एकसार हो गई। वे सब एक दूसरे के भाई – बहन हो गये।

आम के बगीचे में पुराने पेड़ों की जगह न‌ए पेड़ लग गए थे। और इधर, रामरूप और सहाय साहब के परिवारों में पुराने विचारों की जगह  नये विचारों के वृक्ष भी उग आए थे। आर्थिक एवं सामाजिक विषमताओं को विस्थापित कर सहाय साहब के नाती और रामरूप के बेटे दोनों ने कृषि विज्ञान में स्नातक की पढ़ाई पूरी कर गांव में बहुत सारे खेतों को मिलाकर ऑर्गेनिक खेती का काम प्रारंभ किया, जो कि बहुत ही लाभ का सौदा साबित हुआ। इधर उनका बेटा भी रिटायरमेंट के बाद ऑस्ट्रेलिया से सपत्नीक गांव आ गया।

‘ बाबूजी, तू इहाँ खड़ा बारऽ। बाहर चल के  देखऽ बाबा आ गईल हवन।’

अपने सबसे छोटे बेटे की आवाज से रामरूप की तंद्रा टूटी । लपककर बाहर गया, खुली और फूलों से सजी जीप में सहाय साहब बैठे थे। ऊपर सुनहरे रंग की छतरी थी और नीचे कृत्रिम धुआँ। लग रहा था जैसे कोई ईश्वर आसमान से  धरती पर उतर रहे हैं।शहनाईयों की धुन के बीच सहाय साहब को अंदर स्टेज तक लाया गया। रामरूप के लिए सहाय साहब कोई ईश्वर से कम नहीं थे। उसके हाथ फिर से जुड़ गये। उसने एक बार सहाय साहब को देखा और एक बार ऊपर की ओर। सहाय साहब स्टेज पर आ गए थे। हॉल में राजनीति से लेकर कॉरपोरेट घराने और सरकारी महकमे के बड़े – बड़े अधिकारी से लेकर गांव के छोटे – बड़े किसान.. सबों के बैठने की समुचित व्यवस्था थी। चूँकि इस पूरे आयोजन की  बागडोर शहर के जाने-माने इवेंट ऑर्गेनाइजर के हाथ में थी, तो लाजिमी तौर पर एक एंकर ने माइक थामा… वह कुछ कहने को हुआ, कि सहाय साहब ने कहा –

‘लावऽ दऽ माइक, हमरा कुछ बोले के बाऽ।’

सहाय साहब  ज्यादातर अंग्रेजी या फिर भोजपुरी भाषा में ही बात करना पसंद करते थे। उन्हें माईक थमा दिया गया –

‘रउआ सभन इहाँ आइल बानी हम्मर सौवां जन्मदिन पर। हमरा ला इ बहुत खुसी के बात बाऽ, लेकिन अगर इ रामरूप ना रहतन, तऽ न जाने हमर जिनगी के का होइत..। ‘

उन्होंने इशारे से रामरूप को मंच पर बुलाया।

रामरूप उनके बगल में खड़ा था और उनका हाथ उसकी पीठ पर …

‘हम आ चाहे हम्मर परिवार वाला कुछ भी करके इनकर कर्जा ना उतार सकीले… लेकिन फिर भी.. हम्मर बेटा समीर तय कइलन हऽ कि इ जे लइकन लोग आर्गेनिक खेती के काम सुरू करवउले हवन, ओकरा एगो कंपनी के तौर पर रजिस्ट्रेशन करवावल जाई, जेक्कर बराबरी के हिस्सेदार उ सब लोग होई, जे एकरा ला काम करऽता..। एक अउर बात आप सभे प्रार्थना करीं कि भगवान अब हमरा के मुक्ति देवस। बहुत जी लेनी…। ‘

तभी रामरूप ने सहाय साहब के हाथों से माइक ले लिया –

‘ना बाबा, अइसे मत कहीं। रउआ ना रहतीं, त आज हम्मर बच्चा सब…।’आगे की बात उसके आंसुओं ने पूरी कर दी।

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परिचय : ऋचा वर्मा कहानी, आलेख, लघुकथा सहित साहित्य की विभिन्न विधाओं में लिख रही हैं. मारीशस में 2019 में आयोजित विश्व हिंदी उत्सव हिन्दी गौरव सम्मान और बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा ‘हिन्दी दिवस’ के अवसर पर ‘हिन्दी सेवी सम्मान’ मिल चुका है.

 

 

 

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