विशिष्ट कहानीकार : प्रवेश सोनी

रिश्तों का रेशम
निशा जरा जल्दी करो भाई ,मनोज ने मोज़े पहनते हुए किचन की और देखते हुए कहा |मनोज की आवाज़ सुन कर अनमनी निशा ने हाथों को गति दी और ,टिफिन पेक करने लगी | मनोज किचन में आया और निशा के दोनों कंधो पर हाथ रख कर बोला “मेरे चाँद पर उदासी के बादल अच्छे नहीं लगते ,तुम चहकती गुनगुनाती हुई खाना बनाती हो तो सच बताऊ अंगुलियों को भी खाने का मन हो जाता है| “

सुबह से वो कोशिश में लगा हुआ था की किसी तरह से निशा नार्मल हो जाए |

“अरे बाबा मुझे अभी तीन ट्रैफिक लाईटों को लाल से हरा होने की प्रक्रिया से गुजरना है |गाडियों की लम्बी लाइन मैराथन करती हुई मिलती है ,जिसमे मुझे भी अपनी बाइक को हिस्सा बनाने की जद्दोजहद करनी पढ़ती है “|
यह कहते हुए मनोज ने निशा का चेहरा अपनी और किया ,और उसकी नीली गहरी आँखों में प्यार से देखा |आज आँखों की नीली झील में उदासी का कंकर बार –बार गिर कर गोल वृत बना रहा था |निशा उन वृत में आवृत हुई चुपचाप काम में जुटी हुई थी |उसने मनोज की और एक निस्पृह सी निगाह डाली और मुँह फेर लिया |मनोज निशा को और परेशान नहीं करना चाहता था |उसने प्यार से निशा का ललाट चूमा और कहा “सब ठीक हो जाएगा ,हम कल ही बुआ माँ के पास चलेंगे |यह सुन कर निशा के होंट तनिक से मुस्कराहट के आकार में फेल गए जिन्हें देख कर मनोज को कुछ राहत महसूस हुई ,और वो निशा से विदा लेकर आफिस रवाना हो गया |

मनोज जानता है की निशा अपनी बुआ माँ को कितना प्यार करती है |जब सुबह माँ का फोन आया तब से रोये जा रही है |इतना लगाव भी क्यों न हो ,बुआ माँ है ही ऐसी |शादी के वक्त जब कन्यादान के लिए माँ पिता जी के साथ बुआ माँ ने भी निशा के हाथ के नीचे अपना हाथ रखा तो पंडित जी ने टोक दिया |कन्यादान की रस्म सिर्फ लड़की के माता पिता या उसके बड़े भाई भाभी ही निभा सकते है |यह सुन कर निशा ने बुआ माँ का हाथ कस के पकड़ लिया ,जिसे वो पंडित जी के कहने पर पीछे खीच रही थी |तब निशा के पिताजी ने ही कहा की पंडित जी यह निशा की बुआ माँ है |इनकी ही बेटी की शादी है यह |तब पंडित जी ने मंत्रोचार करके कन्यादान की विधि पूरी की ,और निशा का हाथ हमेशा के लिए मनोज के हाथ में दे दिया |

दो साल हुए शादी को ,इस अवधि में निशा ने बुआ माँ को अपनी बातों से मनोज के दिल और दिमाग में अच्छे से उतार दिया था |निशा और बुआ माँ के आपसी रिश्तें की डोर इतनी संवेदनशील थी की जिस रात जयपुर में बुआ माँ की तबियत ख़राब हुई उसी रात दिल्ली में निशा तीन बजे गहरी नींद से जागकर अचानक सिसकने लगी |उसके सिसकने की आवाज़ सुन कर मनोज की नींद खुली तो उसने घबरा कर पूछा की क्या हुआ ? तुम्हारी तबियत तो ठीक है न ?बहुत पूछने पर निशा ने बताया की सपने में बुआ माँ उसका हाथ छोड़ कर दूर जा रही है |उसके पुकारने पर पीछे देख भी नहीं रही |मनोज ने अपना सर पकड लिया |किसी तरह समझाया की यह सपना है और सपने सच नही होते |तुम ऐसा करना कुछ दिन बुआ माँ के पास हो आना ताकि तुम्हारा मन ठीक हो जाए |आधी रात को मनोज और कर भी क्या सकता था |वो कभी कभी निशा और बुआ माँ की बात को लेकर उकता जाता पर निशा का मन दुखी न हो जाए यह सोच कर उसकी बात को धीरज से सुन लेता | जैसे तेसे उसने निशा को सुलाया ,उसे भी जल्दी उठ कर आफिस भागना होता है इस लिए नींद समय से पूरी हो जाए तो ठीक रहेगा |

सुबह वो उठे भी नहीं थे की निशा का मोबाईल बज गया |उसने आँखे मलते हुए देखा तो माँ का फोन था |इतनी सुबह माँ कभी फोन नही करती,जरूर कोई विशेष बात होगी ….|
हेल्लो, हां माँ क्या हुआ ,नींद से अपनी आँखों को आज़ाद करते हुए निशा ने माँ से पूछा |

वो बेटा बुआ माँ को तेज चक्कर आये और गिर गई, हॉस्पिटल में है वो |और अर्ध बेहोशी में तुझे पुकार रही है | यह सुनना था की निशा सिसक पढ़ी और मनोज से कहने लगी ,देखो मेरा सपना सच हो गया मनोज बुआ माँ हॉस्पिटल में एडमिट है ,पता नहीं क्या हो गया उन्हें | मनोज के पास क्या बचा अब कहने को |वो निशा को समझाता भी तो क्या |भगवान् ने उनके बीच सम्प्रेषण के तार बहुत तीव्र गति के रखे थे |” मै छुट्टी की बात करता हूं आज, और हम जल्दी से जल्दी बुआ माँ के पास चलते है |” यह कह कर मनोज टावेल लेकर बाथरूम की और चल दिया |

बुआ माँ बाल विधवा थी , अपना कहने के नाम पर एक छोटी बहिन थी जिसे उन्होंने पढ़ा लिखा कर शादी कर दी थी |शादी के बाद वो अपनी दुनिया में इस कदर मस्त हो गई की उन्हें बुआ माँ के अकेलेपन का कभी ख्याल ही नहीं आया |आता भी कैसे सुख की आँख को दुःख कब नज़र आया |बालिका स्कुल में एक पियोन की नौकरी करके अपना जीवन गुजारने वाली बुआ माँ अब उसे दे भी क्या सकती थी |कभी कभी वो अपने जीवन की वैभवता बताने कार से गावं आती भी तो जितने घंटे नहीं रूकती उससे ज्यादा बातें तो बुआ माँ को सुना जाती | बुआ माँ उनके ठहरने की यथा संभव सुविधा करती पर उनके पास कमिया निकालने के अलावा कुछ नहीं होता |
बुआ माँ से निशा के पिता का दूर के रिश्ते की बहन का नाता था | लेकिन जब दिलो में अपना पन और नजदीकियों का परिमाप सघन हो तो रिश्तें दूर के हो यह मायने नहीं रखता | बुआ माँ उम्र में निशा के पिता जी से बहुत बड़ी थी ,माँ और पिताजी उन्हें माँ समान आदर देते थे |निशा के जन्म के समय माँ की देखभाल उन्होंने सगी बेटी की तरह की , और निशा तो उनके नीरस जीवन में खुशियां और हर्षौल्लास का बहार लेकर आई |माँ से ज्यादा वो बुआ माँ के पास रहती उनसे खाना खाती ,खेलती और फिर कई बार कहानी सुनती सुनती उनके घर पर ही सो जाती |बुआ माँ का घर निशा के घर की बगल में ही था |बीच में एक दीवार भर का फासला जिसे निशा ने कभी फासला नहीं समझा | तीन साल बाद निशा के छोटा भाई आया ,तब तक निशा बुआ माँ की जान बन गई थी |वो स्कूल भी बुआ माँ की गोद में जाती और सारे दिन स्कूल में ऐसे घूमती रहती जैसे उसे कोई रोकने टोकने वाला नहीं हो |कोई अध्यापिका भूल से उसे क्लास में बैठने को कह भी देती तो वो दौड़ कर बुआ माँ के पीछे छुप जाती |टीचर कुछ नहीं कहती सिर्फ मुस्करा कर झूठी डांट का डर बताती ,जिसका असर तो कदापि नहीं होता |
बुआ माँ भी कहती अभी बच्ची है पढ़ लेगी |स्कूल में भी बुआ माँ को सब सम्मान देते थे |उनके नौकरी का पद उनके सम्मान में कभी आढे नहीं आई |

बुआ माँ के सीधे सरल जीवन में एक मोड़ था ….रफीक चाचा ,जो उनके घर के बाहर कपड़े की दुकान लगाते थे |शुरुवाती तीस रुपये किराये में यह दुकान ली थी ,बुआ माँ के माता पिता ने सौदा किया हो शायद रफीक चाचा के पिता से |वो सौदा आज भी बरक़रार था |रफीक चाचा और बुआ माँ हम उम्र होने से बचपन में साथ साथ रहे |बुआ माँ पर दस वर्ष की उम्र में ही शादी के तुरंत बाद वैधव्य का फाजिल गिर गया था |जिसे वो ठीक से समझ भी नहीं पाई |रूढिगत माता पिता को भगवान ने दुबारा सोचने का अवसर भी नहीं दिया और एक दुर्घटना में दोनों को अपने पास बुला लिया |तब बुआ माँ ने उम्र के १८ वे वर्ष पर कदम रखा था |कैसे संभली वो और कैसे सरकारी नौकरी तक पहुंची इसमें रफीक चाचा का ही सहयोग रहा |इस साथ -सहयोग में रूमानियत की धूप के कतरे गिर रहे थे ,लेकिन समाज जाति और धर्म की दीवार ने सारी धूप रोक ली |चाचा की शादी हुई पर वो निसंतान ही रहे |चाची भी जैसे अनचाही सवारी की तरह उनके जीवन सफ़र में शामिल हुई और कुछ वर्षो बाद ही जन्नतनशीं हो गई |
समय की रफ़्तार रूकती नहीं ,बुआ माँ और रफीक चाचा भी समय के साथ चलते रहे |दोनों के जीवन में थोड़ी मिश्री निशा के आगमन से ही घुली थी | बाज़ार बंद हो जाने पर भी चाचा को घर जाने का कोई प्रयोजन नहीं नज़र आता |वो अपनी दुकान बंद करके बाहर बैठे रहते और बुआ माँ घर की देहरी पर |
दोनों कभी कभी देर तक बात करते रहते या कभी मूक होकर उम्र की घड़ियां गिनते रहते | दोनों के पास समय को काटने के लिए बेसबब बातों की छुरी ही थी | इसमें न रफीक चाचा बुआ माँ के घर की देहरी लांघते और न बुआ माँ मर्यादा की सीमा रेखा पार करती |इस देहरी और दूकान पर ही रफीक चाचा बुआ माँ के लिए दिवाली के दिवलों की बाती बना देते और बुआ माँ चाचा के लिए ईद पर सिवइयां बना कर सुखा देती |जब उनके बीच नीरव क्षण गुजरते तब रफीक चाचा बैठे – बैठे बीडी सुलगा लेते |बीडी की आग उनके अन्दर भी कही सुलगती रहती ,जिसका ताप कभी कभी उनके चेहरे पर आ जाता |फिर उठ कर थके कदमों से घर की और चल पढ़ते |बुआ माँ भी उठ कर चूल्हा सुलगाती या कभी चना चबेना खा कर सो जाती |निशा जब उनके पास होती तब उसके लिए वो उससे पूछ -पूछ कर नई नई खाने की चीजे बनाती |जब निशा मन भर खा लेती तो बचे हुए के दो हिस्से करके बुआ माँ एक अपने लिए और दूसरा रफीक चाचा को दे आती |देखने वाले सब अपनी सोच से अर्थ निकालते ,लेकिन कोई कुछ कहता नहीं |निशा के पिता भी कभी कभी माँ से रफीक चाचा का नाम लेकर बात शुरू करते फिर बीच में ही चुप होकर ख़त्म भी कर देते |
समय अबाध गति से बहता रहा निशा को कालेज की पढाई के लिए जयपुर आना पढ़ा और गाँव की गलियों के साथ बुआ माँ भी गाँव में ही रह गई |महीने में एक दो बार शहर आ जाती थी निशा का प्यार उन्हें खीच लाता | शादी के एक साल बाद ही तो बुआ माँ का रिटायर मेंट हुआ था | तब छोटा सा आयोजन किया था पिताजी ने शहर में और बुआ माँ को कहा की अब वो यही रहे सबके साथ |यह उम्र अकेले रहने की नहीं है |
बुआ माँ भी क्या कहती मौन स्वीकृति दे दी थी | उम्र की सांझ ने स्वीकार लिया था की अब निलय होने तक कोई साथ जरुरी है |गिरता हुआ स्वास्थ्य भी कह देता है की अब उसे देख भाल चाहिए |लेकिन शहर बुआ माँ को रास नहीं आया | कुछ दिनों से वो खाने पीने में अरुचि दिखा रही थी |और कई बार सर दर्द की बात कह कर घंटो सोई रहती |माँ से कह भी चुकी कि उनकी आत्मा उनके साथ नहीं है | पिछली बार जब उनका चेकअप करवाया था तब तो ऐसा कुछ सामने नहीं आया जिससे आभास हो कि बुआ माँ को बड़ी बीमारी हो सकती है ,फिर यह एक दम से क्या हो गया |
निशा और मनोज दुसरे दिन पहली गाडी से जयपुर आ गए थे |निशा को देख कर बुआ माँ के चहरे पर मुस्कराहट आई ,और मुस्कराने से उनके पीले पड़े चेहरे पर थोड़ी सी चमक भी दिखी |निशा उनका हाथ पकड़ कर उनके सिरहाने ऐसे बैठी जैसे कभी छोड़ेगी नही |पिताजी ने रफीक चाचा को भी खबर कर दी थी की जीजी हॉस्पिटल में एडमिट है |खबर सुनते ही चाचा गाँव से तुरंत आ गए |हॉस्पिटल आकर बुआ माँ की नज़रो से नज़र मिली ,उस मूक संवाद ने वर्षो की पीड़ा एक दुसरे से कह दी |उसके बाद से कमरे के बाहर कुर्सी पर ऐसे बैठे जैसे उन्हें कुर्सी से जोड़ दिया गया हो |निशा के पास एक बार आये और उसके सिर पर हाथ फेर कर इतना कहा “तेरी बुआ माँ को न जाने देना “|और बाहर आकर बैठ गए |
जाँचे हुई ,रिपोर्ट आई …सब सन्न रह गए |बुआ माँ को ब्रेन टयूमर हो गया था और फुट जाने की वजह से उसका जहर शरीर में धीरे धीरे फेल रहा था |सर्जरी का विकल्प भी नहीं मिला |सब निस्पृह जोकर बैठ गए |निशा बुआ माँ का हाथ पकडे बैठी थी और धीरे धीरे उस पर कसाव बढ़ता जा रहा था |
पिताजी ने डॉक्टर से पूछा कब तक ?
डॉक्टर ने कुछ नहीं कहा ,…

रात भर निशा हाथ में हाथ लिए बैठी रही और चाचा बाहर कुर्सी पर जड़ हो कर |पिता जी के बहुत कहने पर भी उन्होंने वहाँ से हिलना पसंद नहीं किया | कब निशा की पानी भरी आँखों में नींद समां गईऔर सिर हाथ पर आ गया ,कुछ पता नहीं चला जब उसने नींद में अपने सर पर सिहरन महसूस की तो अचकचाकर जाग गई |उसने देखा बुआ माँ का हाथ उसके सर पर था और वो एक दम शांत पड़ी थी |

अंतिम क्रियाक्रम पिताजी ने ही किये |मुखाग्नि देते वक़्त वो भी बिलख पड़े |रफीक चाचा रीत गए थे ,कोई भाव नहीं था उनके चेहरे पर |एक दम खामोश ..तीसरे दिन बुआ माँ अस्थियों के रूप में कलश में सिमट चुकी थी । पिता जी कलश घर लाये तो चाचा उनके निकट हाथ फेलाकर खड़े हो गए |पनीली आँखों की नमी जुबान को भारी कर गई, फिर भी अशक्त शरीर को मजबूती से थाम कर लड़खड़ाते हुए एक वाक्य कहा
“मुन्ना (पिताजी के घर का नाम ) मुझे हरिद्वार जाने का हक दे दे |”

सुन कर पिता जी स्तब्ध रह गए |हाथ का कलश उन्हें भारी लगने लगा |उन्हें लगा जैसे उन्होंने कलश नही कोई वजनी लोहे का गोला उठा रखा है जो भार की वजह से अभी उनके हाथ से छिटक कर गिरने वाला है ।
निशा से रहा न गया ,वो अपनी जगह से उठी और उसने पिताजी के हाथ का कलश रफीक चाचा के हाथ में पकड़ा दिया |रफीक चाचा वही पिताजी के पैरो में बैठ गए और कलश को सीने से लगा कर फूट फूट कर रो पड़े |निशा ने मनोज के काँधे पर सर टिका कर कहा बुआ माँ अब अकेली नहीं रही |

 

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