1
आदमी थे हम
छोडकर घर-गाँव, देहरी–द्वार सब
आ बसे हैं शहर मे
इस तरह हम भी प्रगति की
दौड़ को तत्पर हुए.
चंद डिब्बों मे ‘गिरस्ती’
एक घर पिंजरानुमा
मियाँ-बीवी और बच्चे
ज़िन्दगी का तरजुमा
भीड़ के सैलाब मे
हम पाँव की ठोकर हुए.
टिफिन , ड्यूटी, मशीनों की
धौंस आँखों मे लिए
दौड़ते ही दौड़ते हम वक़्त का
हर पल जिए
गेट की एंट्री, कभी-
हम सायरन का स्वर हुए.
रही राशन और पानी पर
सदा चस्पाँ नज़र
लाइनों मे ही लगे रह कर
गई आधी उमर
आदमी थे कभी ,
अब हम फोन का नंबर हुए .
2
एक फोटो फेसबुक पर
एक फोटो रोज अपना
फेसबुक पर
डालता हूँ .
चाहता हूँ मैं दिखूँ वैसा
कि जो हूँ ही नहीं मैं
ओढ़ता हूँ आवरण
इसका कहीं– उसका कहीं मैं
‘खूबसूरत हूँ’ –यही
भ्रम –
खूबसूरत पालता हूँ .
एक दुनिया से अलग
एक और दुनिया है यहाँ पर
अपरिचित कोई नहीं
पर सब अपरिचित हैं जहाँ पर
अपरिचय के
इस नगर मे एक
परिचय ढालता हूँ .
भीड़ के इस समंदर मे
‘मैं कहाँ हूँ’ –सोचता हूँ
फिर स्वयं ही स्वयं का
होना स्वयं से पूछता हूँ
रोज के ये प्रश्न
उत्तर –
रोज कल पर टालता हूँ .
3
मेरे गाँव में
खुल गया है बंधु !
शॉपिंगमॉल मेरे गाँव में
लगी सजने कोक,पेप्सी
ब्रेड, बर्गर और
पिज्जा की दुकानें
आँख मे पसरे हुए हैं
स्वप्न
मायावी–प्रगति का छत्र तानें
आधुनिकता का बिछा है
जाल मेरे गाँव में.
हँस रहें हैं
पत्थरों के वन
सिवानों और खेतों के वदन पर
ढूँढती दर-दर
सुबह से शाम गौरैया
वही घर–वही छप्पर
हैं हताहत कुएं, पोखर,
ताल मेरे गाँव में.
उत्सवों की पीठ पर
बैठे हुए हैं
बुफ़े, डीजे और डिस्को
स्नेह, स्वागत,
प्यार या मनुहार वाले स्वर
यहाँ अब याद किसको
मौन है अब गाँव की
चौपाल मेरे गाँव में.
4
न्यू इंडिया है ये
एक हाथ मे बाइक दूजे मे
मोबाइल है
न्यू इंडिया है, ये इसका-
‘लाइफ-स्टाइल’ है.
नहीं ‘फेस-टू-फेस’ कहीं
मिलता कोई अपना
फॉलो होता सिर्फ
फेसबुक पर हरेक सपना
‘मेल’ और ;मैसेज़’ मे सिमटे
सब रिश्ते-नाते –
आभासी–चेहरों पर
‘आभासी स्माइल’ है .
टीवी की आँखों मे
बसने की लेकर आशा
सीख रही पीढ़ी
संस्कारों की नूतन भाषा
‘हेलो’ ‘हाय’ ‘टाटा’
‘ओके वाली ‘मेमोरी’ से-
हुई ‘डिलीट’
प्रणाम-नमस्ते वाली ‘फ़ाइल‘ है .
चढ़ा मीडिया के कंधों
बाज़ार शिकारी है
शयन-कक्ष से पूजाघर तक
इसकी यारी है
गाँव-शहर ‘मॉडर्न’ हुए
सब बदल गए चेहरे-
जो जितना लक़दक़
उतनी ऊंची ‘प्रोफ़ाइल‘ है . \
5
खुद से हारे मगर पिता
दुनिया-भर से जीते
खुद से हारे मगर पिता .
सफर पाँव में और
आँख मे
सपनों की नगरी
छाती पर संसार
शीश पर
रिश्तों की गठरी
घर की खातिर बेघर भटके
सारी उमर पिता .
जिनको रचने मे
जीवन का
सब कुछ होम दिया
कदम-कदम
उन निर्मितियों ने
छलनी हृदय किया
किसे दिखाते टुकड़े-टुकड़े
अपना जिगर पिता !
बोये थे जो
उम्मीदों के बीज
नहीं जन्में
क्या जानें, क्या था
बेटा-बेटी
सबके मन में
कहाँ-कहाँ, किस-किस
आखिर रखते नज़र पिता !
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