मुंगेर के युवा ग़ज़लकार विकास की गजल संग्रह “उछालो यूँ नहीं पत्थर” से गुजर
![]() – कुमार कृष्णन
आधुनिक हिन्दी गजल अपने मौलिक चिंतन तथा विशिष्ट कथ्य-प्रतिभा के बल पर चर्चित और प्रशंसित हो रही है। हालांकि कुछ आलोचक हिन्दी गजल को सौंदर्य के प्रेम-प्रसंग के अंतर्गत ही देखना पसंद करते हैं और अपनी उसी मानसिकता के साथ इसे परिभाषित भी करते हैं। जबकि सच है कि हिन्दी गजल अपने जन्मकाल से ही जीवन यथार्थ से जुड़ी रही है। ऐसी भी बात नहीं है कि इसके भीतर प्रेम और सौंदर्य नहीं है। हॉं भले प्रेम और सौंदर्य का अतिवााद नहीं है। इस संदर्भ में विकास की गजलों को ले सकते हैं, जिनमें आम आदमी की पीड़ा हैं और उस पीड़ा से जूझने के लिए ताकत और साहस की भी अमिट छाप है। विकास की गजलों के संदर्भ में ज्ञान प्रकाश विवेक के इस कथन को रेखांकित कर सकते हैं-‘ विकास को गजलें लिखते ज्यादा समय नहीं हुआ। कम समय में उन्होंने गजलगोई की जमीन को परिपक्व किया है।शेर कहने की समझ को विकसित किया है। उनकी गजलों में नए समय को व्यक्त करने की जो बेचैनी दिखाई देती है, वे मूल्यवान है। कम स्पेस में सशक्त शेर कहना चुनौतीपूर्ण होता है। विकास इस बात को समझते हैं। इसलिए शब्दों के अपव्यय से बचते हुए वो संजीदगी से गजलें लिखते हैं।’ ‘ उछालो यूॅं नहीं पत्थर’ विकास का नया और पहला गजल संग्रह है, इसे किताबगंज प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। संग्रह में कुल 83 गजलें हैं। संग्रहित गजलों के भाव एवं शिल्पगत विस्तार, तथा अंदाजे-बयां के अनुपम रंग-ढंग ने गजलकार के गजल लेखन को नई जमीन दी है। परिपक्वता तथा अनुभवों -अनुभूतियों की सघनता से ओत-प्रोत संग्रह की गजलें इस बात को प्रमाणित करती है।
वक्त की पुरवाइयों को ढो लिए हम
या कहो रूसवाइयों को ढो लिए हम
धूप की चादर समेटे शाम की बॉहें
भोर की अंगड़ाइयों को ढो लिए हम
वर्णित दोनों शेरों में गजलकार ने अपने ज्ञानात्मक और भावात्मक संवेदनाओं को प्रकट किया है। जीवन और समाज के यर्थाथ को कल्पना के सहारे नहीं, बल्कि भोगे गए जीवन की प्रमाणिकता के साथ गजलकार ने जिस विश्वास के साथ व्यक्त किया है, वह प्रशंसनीय है। बिना कोई भूमिका के विकास ने प्रत्यक्षदर्शी गवााह की तरह दो शेरों में अपनी वैचारिकता को अभिव्यक्ति दी है, वह आज की मूल की कथ्य भावना के अनुरूप है। इससे जाहिर होता है कि विकास आज के यथार्थ के प्रति जितने संवेदनशील हैं, उतने चैकन्ने भी हैं। अपने पाठकों को यथार्थ की आकुलता का बयान कर सिर्फ निराश ही नहीं करते, हौसला भी देते हैं।
मैं चला तो रास्ता चलता रहा
साथ मेरे हौसला चलता रहा
जिन्दगी की घूप का वो कारवॉं
बनके जैसे आइना चलता रहा
सामाजिक उत्थान और विकास की प्रतिबद्धताओं के साथ चलनेवाली हिन्दी गजल हिन्दी साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान और जगह बना ली है। दुष्यंत और दुष्यंत के बाद गजलकारों ने हिन्दी गजल की जो नींव रखी थी, वह काफी पुख्ता और महल के रूप में खड़ी हो चुकी है। आनेवाले नए गजलकारों ने भी अपनी जिस प्रतिभा और विश्वास के बल पर हिन्दी गजल लेखन के प्रति प्रवृत हैं इससे हिन्दी गजल की संभावनाओं और पठनीयता के कई द्वार खुलते हुए नजर आते हैं। विकास के नाम को भी उन चंद नए गजलकारों के नाम में शुमार किया जा सकता है।
विकास की गजलों और शेरों में कहीं-कहीं पर सुफियाना अंदाज भी देखने को मिलता है। मिशाल के तौर पर –
कभी शोला समझते हैं कभी शबनम समझते हैं
मगर ये भी हकीकत है तुम्हें हमदम समझते हैं
हमारे बीच दरपण की जरूरत है नहीं कोई
हमें भी तुम समझते हो तुम्हें भी हम समझते हैं
संग्रह की सारी गजलें भोगे, देखे गए क्षणों के प्रमाणिक उद्गार हैं। गजलकार ने लेखन के पथों पर चलते हुए जिन अपने अनुभवों को बटोरा है, उन अनुभवों को गजलों में ढ़ाल दिया है। गजलकार के सारे अनुभव गहन चिंतन का अभिव्यंजन हम कह सकते हैं जो अकाट्य तो हैं, महत्वपूर्ण भी हैं। भाव- बाहुलता के बावजूद कवि की जनवादी विचारधारा से भी इनकार नहीं कर सकते हैं। भविष्य में ये सारी गजलें हिन्दी गजल के लिए मील का पत्थर साबित होंगी।
समीक्षित कृति –
उछालो यूँ नहीं पत्थर (गजल संग्रह)
गजलकार – विकास
मूल्य— 195 रूपये
प्रकाशक- किताबगंज प्रकाशन
ICS (रेमण्ड शोरूम) राधाकृष्ण मार्केट
SBI बैंक के पास, गंगापुर सिटी -322201
जिला – सबाई माधोपुर (राजस्थान)
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पुस्तक समीक्षा : उछालो यूँ नहीं पत्थर
