तुम नदी के उस किनारे,
और मैं इस पार बैठा
यूँ हमारे बीच कोई खास तो दूरी नहीं है
तैरना भी जानता हूँ,यह भी मजबूरी नहीं है
नाव है,पतवार है,उद्दिग्न है मन भी मिलन को
पर तुम्हारी टेर में आमंत्रणा पूरी नहीं है
है अहं जिद पर अड़ा,
मन कर रहा मनुहार बैठा
क्या तुम्हें अब याद है,हम तुम मिले थे जिस लगन में
क्या भयानक रात थी,चपला चमकती थी गगन में
फिर अचानक थरथराकर तुमने मेरा हाथ थामा
सौ बिजलियाँ लपलपाकर आ गिरी थीं मेरे मन में
तुम हँसी पलकें झुकाकर
और मैं मन हार बैठा
साक्षी भी रह चुके हैं यह नदी के दो किनारे
उन पलों के जो कभी हमनें यहीं मधुमय गुजारे
पर न अपने मान को तुम त्याग पाई और न मैं
प्रेम की नवबेल चढ़ पाई न दोनों के सहारे
इसलिए यह रास्ता पग-पग हुआ दुश्वार बैठा
तुम नदी के उस किनारे
और मैं इस पार बैठा
(२)
अब मेरी सुधि में तुम पथ पर
दीप जलाये मत रखना
मैं सागर में खोयी नौका
कब जाने किस छोर लगूँ
और तुम्हारा कुसुमित जीवन
खिलकर फिर मुरझा जायेगा
माना मन से मन के विनिमय
में कुछ मोल नहीं चलता है
फिर तुम सा मुझ जैसे को
पाकर भी क्या कुछ पायेगा
यक्ष-प्रश्न जीवन के जितने
सुलझा पाओ सुलझा देना
पर इन प्रश्नों मे ही जीवन
तुम उलझाए मत रखना
जिसकी कोई भोर न होगी
ऐसी कोई रात नहीं है
कौन घाव ऐसा जीवन का
समय न जिसको भर पाया है
जीवन खुशियों का मेला ही
नहीं अपितु दुख भी सहने है
सबको मनचाहा मिल जाये
यह संभव हो कब पाया है
अपने हिस्से के सारे सुख
जितने चुन पाओ चुन लेना
लेकिन मन में गिरह लगाकर
दर्द पराये मत रखना