मेघ गरजा रात भर है,
प्यार सचमुच में अमर है ।
कौन कहता है विरह में
बस धरा दो टूक होती,
क्या कहूँ कि नभ-हृदय में
पीर कितनी, हूक होती;
मौन रह पाया न जब था
सब जगह दे हाँक आया,
हाथ में दीपक जलाए
गिरि-वनों तक झाँक आया;
जिस तरह छलके हैं आँसू
शैल नदिया है; लहर है।
भोर होते सो गया थक
सब तड़प आखिर छुपा कर,
पीर मन की, आग तन की
लोक-लज्जा से बुझा कर;
सो गया कोने में नभ के
भाव कोई; ज्यों अकम्पित,
झील पर, ज्यों वेदना की
एक छाया घनी बिम्बित;
पर हवाओं में सिहर है,
प्यार सचमुच में अमर है ।
2
मन उदासी तान आया;
आज किसका ध्यान आया!
नैन बेसुध, प्राण बेसुध
देह का हर रोम इस्थिर,
बोल न फूटे अधर से
जम गया; ज्यों, मोम इस्थिर;
कर्ण-पट हैं बन्द, जैसे
रसभरी रसना विरस है,
घ्राण वंचित सुरभि-सुधि से
और तन्द्रिल तन अलस है।
रीतते हैं इस तरह भी,
कब मुझे यह भान आया।
नैन खोजे रूप-छवि को,
प्राण पागल हैं मिलन को,
क्या अधर बोले किसी से
जी रहे हैं जिस जलन को!
मन अकेले चाहता है
सुर, सुधा, मकरन्द कोमल,
हो गई हैं किस तरह से
उँगलियाँ ये पल में रोमल!
प्राण के संकेत पर मन
काल-दिक् को छान आया।
3
आज वन में कुहुक बोले-
यह मधुर संसार हो ले !
मोगरे के घर बसी हो
सज-सँवर जूही-चमेली,
मोतिया से मिले चुपके
रातरानी की सहेली !
चाँदनी फिसले सुरभि पर
चाँद बढ़ कर फिर उठाए,
पुष्प-रस पर पवन बैठे
प्रीत के मधु छन्द गाए !
भाव के याचक अकिंचन
बंद कब से द्वार, खोले !
प्रात होते जागे भैरव !
दोपहर हिण्डोल डोले !
शाम तक तो मेघ गाये,
और फिर सिर-राग होले !
रात में दीपक जले तो
देर तक जलता रहे यह,
जब तलक न मालकोषी
स्वर मिले, मिलता रहे यह!
रागिनी रागों के मन में
पीत, रक्तिम रंग घोले !
4
तुम पुकारोगे जो मन से,
बज उठेंगे प्राण झन-से ।
गूंज जायेगी धरा यह
रोम तरु के खिल उठेंगे,
दूर तक बिखरे हुए जो
सब विकल हो मिल उठेंगे;
लय सजेगी, सुर सजेंगे,
कण्ठ कोकिल हो उठेगा
चाँद छू ले-क्या असंभव
ज्वार ऐसा जो उठेगा ।
बन्द अधरों से हँसो तुम,
चाँदनी बरसे तपन से !
मैं अकेला ही नहीं हूँ
प्रीत की रसधार चाहूँ,
इस तरह हो कर अकिंचन
रूप-छवि-संसार चाहूँ;
विश्व, वसुधा से गगन तक
एक हलचल से विकल है,
वेदना से मुक्ति की यह
शून्य में अन्तिम पहल है।
हाँक दे-दे कर बुलाए
कौन यह मुझको विजन से?
