पुस्तक समीक्षा : परवाज-ए-ग़ज़ल

गहन संवेदना का प्रखर दस्तावेज परवाज-ए-ग़ज़ल
गजल जब अपने परंपरागत ढांचे को तोड़ते हुए  रूहानियत और रूमानियत के सिंहासन से उतरकर किसी झोपड़ी के चौखट की पीड़ा के प्रति जवाबदेह हो जाती हैं तब ग़ज़ल अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम साबित होती है।
 गजलें मानव मन की गहन संवेदना का प्रखर दस्तावेज साबित होती हैं। अपनी गज़लों के माध्यम से कलमकार सिस्टम पर चोट करते हैं और व्यवस्था से जुड़ी विसंगतियों से सीधा संवाद स्थापित करते हैं।आप देखेंगे कि गजलें आम आदमी के रोजमर्रा की जिंदगी के अनथक संघर्ष को बेहद करीने से रेखांकित करते चलती हैं।
फरीदाबाद के शानदार गजलकार अजय अज्ञात जी के सशक्त संपादन में 【परवाज़ ए ग़ज़ल】 का तीसरा साझा संकलन प्रकाशित हुआ है। जिसमें स्वयं उनको मिलाकर कुल 18 रचनाकारों में डॉ अजय ढींगरा, अनिमेष शर्मा, कालीशंकर सौम्य,डॉ शैलेष गुप्त वीर, गुरचरण मेहता रजत,दिनेश कुमार,दिनेश मंजर,नीरज झा, नीरज कुमार निराला, प्रदीप गर्ग पराग ,भूप सिंह अंतस,रविंद्र कुमार रवि, शुभदा बाजपेई, संजय कुमार गिरि, डॉक्टर संजीव अंजुम, सागर आनंद, सीमा शर्मा मेरठी जैसे चर्चित और प्रभावी नाम शामिल हैं।
सोनीपत हरियाणा के डॉक्टर आदिक भारती ने इस गजल संग्रह की शानदार भूमिका लिखी है।
अक्सर देखा गया है कि साझा संकलन जब भी निकलते हैं तो पूर्वाग्रह या अति आग्रह के चलते रचनाकारों में कभी कभी कोई कमजोर कड़ी जुड़ जाती है और वह कड़ी संकलन हेतु मखमल में टाट के पैबंद जैसा हो जाता है।
 लेकिन परवाज़ ए ग़ज़ल के कुल 19 गजलकारों में सभी एक से बढ़कर एक हैं। कोई किसी से कमतर नहीं हैं। गज़ल कहने का सब का अंदाज़ जुदा ,तेवर जुदा है। फिर भी रचनाकारों की अभिव्यक्ति समान रूप से प्रभावी है। किसी साझा संकलन  का संपादन करना तलवार की धार पर चलने जैसा होता है।संतुलन और प्रबंधन संपादन की खूबसूरती होते हैं इस लिहाज से भी अजय अज्ञात जी अपने उद्देश्य में पूर्णतया सफल और खरे उतरते हैं।
इस संकलन के रचनाकार शब्दों से किलोल करते हैं, भावना को दुलराते हैं,विद्रूपताओं को झिंझोड़ते हैं।विसंगतियों को तीखे तंज सौंपते हैं और व्यवस्था के प्रति विद्रोह करते हैं। हर रचनाकार में एक बात लगभग समान है कि तमाम सिस्टम के विरुद्ध उनके तेवर बेहद तल्ख हैं। वास्तव में यह रचनाकार के संजीदा होने की पहली शर्त होती है।आपकी संवेदना आपको जिंदा अहसासात से रूबरू कराते हैं। इसी संवेदना के उत्स का व्यापक संस्पर्श आपको सृजन के शिखर तक ले जाता है। यही रचनाकार का सृजनात्मक अभीष्ट भी होता है।
आश्चर्य तो यह देख कर होता है कि आज की जिंदगी में एक अजीब किस्म के विदूषकत्व का प्रवेश देखा जा रहा। किन्तु इस विदूषकत्व को (जो तथाकथित आलोचकों की दृष्टि में विकृति है) कई गजलकारों ने रचनात्मक संदर्भ में रखा है जो समूचे समाज को रेखांकित करते हुए एक अर्थपूर्ण मूल्यदृष्टि को संकेतिक करता है।
अपने संपादकीय में अजय अज्ञात जी आश्वस्त करते हैं कि इस साझा संकलन में सभी ग़ज़लकार अपनी मुख्तलिफ सोच, ख्यालात,उनवान, शब्द शिल्प और अंदाज-ए-बयां के लिए जाने जाते हैं। उन सभी की शायरी की उलझनों में जिंदगी की तहज़ीब नजर आएगी और इनके अहसास की तर्जुमानी में आज के माहौल का पस- मंजर भी दिखाई पड़ेगा।
अपनी गजलों में अजय ‘अज्ञात’ जी सृजनात्मकता के उस शिखर पर खड़े नजर आते हैं जहां से संवेदना को सहलाना मानो बच्चों का खेल लगता है-
कह रही हैं मंजिलें आवाज दे दे कर मुझे,
इस थकन के सिलसिले को छोंड़कर आगे बढ़ो।
नहीं तकलीफ देता अब मुझे यह,
पुराना जख्म है ताजा नहीं है।
मुश्किलें सब मेरी होती जाती है हल,
मेरी खातिर दुआ मांगता कौन है?
उसको जीवन भी बोझ लगता है,
 जिसमें कुछ हौसला नहीं होता।
डॉक्टर अजय ढींगरा अपनी ग़ज़ल में कुछ बेहतर प्रयोग करने में सफल रहे।उनके शेर आपस में बखूबी बतियाते हैं-
बुजुर्गों की दुआओं से मिली है जिंदगी मुझको
नजर उनसे चुराऊं मैं ये मुझसे हो नहीं सकता।
आने जाने का सिलसिला रहता
घर की सांकल अगर खुली रहती है।
खुद को दानिश्वर समझ बैठे जनाब
दरमियां अंधों के दर्पण बाँटकर।
खुद को खिदमतगार वह कहने लगे
बस्तियों में अपनी उतरन बाँट कर।
बोझ अपने दिल का हल्का कीजिए
आप हमसे अपनी उलझन बांटकर।
अनिमेष शर्मा की गजलों का शिल्प और शैली लाजवाब बन पड़ी है-
बर्बाद करना छोड़ के आबाद करना सीख
उजड़े हुए घरों को बसाने की बात कर।
सब खुदपरस्त लोग हैं मतलब का दौर हैं,
हर हाल अपनी बात बनाने की बात कर।
 यह रवायत है समंदर पर नदी मरती रही
बात तब है जब समंदर खुद नदी पर मर मिटे।
 कालीशंकर ‘सौम्य’ की गजलों में जीवन राग बखूबी मुखर होकर हमारी भावनाओं के इर्द गिर्द एकालाप करता प्रतीत होता है-
तुम मिले तो जिंदगी यह जिंदगी सी हो गई।
दर्द में जो आह निकली शायरी सी हो गई।
हिचकियों के शंख गूंजे धड़कनों की घंटियां,
आपके आने से दिल में आरती सी हो गई।
गुरचरण मेहता ‘रजत’ ज़माने की बेदर्द रवायतों को आईना दिखाने में बखूबी कामयाब रहते हैं-
यूं कहने को सारी दुनिया है मेरी,
मगर सर पे मेरे कोई छत नहीं है।
मैं अम्मी को अब्बू को छोडूं तो कैसे,
मेरे नाम अब तक वसीयत नहीं है।
गुरचरण मेहता ‘रजक’ की कलम की धार बेहद पैनी है-
हम अपने दम पर जीते हैं न बेशक जेब में पैसे,
फकीरी में मजा करते, नहीं अहसान लेते हैं।
मेरी जान ले ले गर,नहीं कोई गिला होगा,
 गिला इस बात का है वह मेरा ईमान लेते हैं।
दिनेश कुमार की ग़ज़लों में तल्खियों का राग अपने चरम पर नज़र आता है-
रिश्वत ली थी रिश्वत देकर छूट गया,
 हर ताले की चाभी पैसा होता है।
बारिश से टपके है कच्ची छत मेरी,
कंगाली में आटा गीला होता है
दिनेश ‘मंजर’ की अभिव्यक्ति भी कहीं से कमतर न रही-
मौन जब भी व्यंग से तोड़ा गया।
 तीर मानो विष भरा छोड़ा गया।
 सच उजागर कर गया स्वभावतः,
मूर्ख दर्पण इसलिए तोड़ा गया।
नीरज झा अभाव के आहत पक्ष को अपने लेखन का केंद्र बनाते हैं-
क्या सियासत को किसी साधू का गहरा शाप है,
जिस किसी ने ताज पहना खुद को अंधा कर लिया।
गांव   से   भागे   हुए   ढाबे   के   छोटू   ने   सुनो,
मुफलिसी की चीख सुनकर खुद को गूंगा कर लिया।
 नीरज ‘निराला’ की तल्खी उनकी कलम में चुपके से उतर आई-
झूठ सुना कर खुश रखता था,
 सच बोला तो रूठी दुनिया।
प्रदीप गर्ग ‘पराग’ बेहद सलीके से अपनी बात कहते हैं-
हमारा फर्ज है करते रहे हर काम मन से हम,
 किसी को क्या मिलेगा बस मुकद्दर जानता है।
भूपसिंह ‘अंतस’ की गजलों का हर शेर बेशकीमती है।उनका शब्दशिल्प,भावव्यंजना, भावाभिव्यक्ति, उन्हें गम्भीर मूल्यांकन का हकदार बनाती है-
रास्ता हमवार भी हो यह जरूरी तो नहीं।
जिंदगी गुलजार भी हो यह जरूरी तो नहीं।
हार कर भी यार मेरे मुस्कुराना सीख ले,
हार यह हर बार भी हो यह जरूरी तो नहीं।
एक बुढ़िया उदास बैठी है,आज रिश्ते बहुत अकेले हैं।
रोज कोई नया तकाजा है,जिंदगी क्या दुकानदारी है।
कि बच्चे दौड़ कर आए गली में,
मेरे घर लौट आने की खबर से।
इसी उम्मीद पर जिंदा है मां अब,
कि बेटा लौट आएगा नगर से।
रविंद्र कुमार ‘रवि’ वर्तमान सिस्टम को कटघरे में खड़ा कर देते हैं-
जिसने सच को साथीमाना उसके सर इल्जाम जियादा।
 अच्छा बनने की कोशिश में,हो बैठा बदनाम जियादा।
मैं सच बोल कर भी परेशान था,
वो झूठा था फिर भी खबर में रहा।
शुभदा बाजपेई की अभिव्यक्ति तमाम विद्रूपताओं को जीवित स्वर सौंपती हैं-
अक्सर मुखौटे टांग के मिलते हैं लोग सब,
इस दौर में है मिलती शराफत कभी कभी।
एक उम्र इसकी चाह में कट जाए दोस्तों,
मिलती है इस जहान में शोहरत कभी-कभी।
 डॉ शैलेष गुप्त ‘वीर’,  रिश्तों की गणित के एक संजीदा खिलाड़ी साबित होते हैं।उनका विसंगतियों से सीधा संवाद प्रभावी लगता है।हताशा के गहनतम अंधेरों मध्य प्रकाश पुंज की भांति उम्मीद की किरण लेकर आती है  उनकी ग़ज़लें।उनके तेवर देखें-
थोड़ी सी ही उम्र बहुत है,सदियां कई जिए बैठा हूं।
बची रहे मर्यादा तेरी,अपने होंठ सिये बैठा हूं।
 सोच समझकर लेना यारों,कर्जा है, यह दान नहीं है।
मेरा उसका मिलना जुलना,मुश्किल है आसान नहीं है।
जाने कैसी खाद है डाली इस बगिया में,
फूलों से, बन बैठे हैं अंगारे रिश्ते।
रूह की कोई प्यास बुझाने कब आया,
चारों ओर है जज्बों के बस अंधे रिश्ते।
 संजय कुमार गिरि की दुनियाबी ज़बान बेहद तल्ख दिखी-
सूरत बदल गई कभी सीरत बदल गई।
 इंसान की तो सारी हकीकत बदल गई।
पैसे अभी तो आए नहीं पास आपके,
यह क्या अभी से आपकी नियत बदल गई।
 खाना नहीं गरीब को भरपेट मिल रहा,
 कैसे कहूं गरीब की हालत बदल गई।
 डॉ संजीव ‘अंजुम’ की बेबसी ज़ेहन में एक सिहरन छोंड़ जाती है-
अपने बीमार बच्चे की खातिर वो माँ,
बेच कर अपनी अस्मत दवा ले गई।
सागर ‘आनंद’ का अंदाज सबसे अलहदा लिबास पहने नज़र आया।उनके सवाल बेहद संजीदा लगते हैं-
अगर जरूरी हो कभी तो हम लिखे जज्बात अपने
 आ जरा सा जिंदगी को हर्फ़ का हकदार कर लें।
कोई मिलता नहीं सलीके से
हड़बड़ाहट में यह सदी क्यों है?
 सिर्फ हर्फों से भला हो क्या ग़ज़ल,
आ ग़ज़ल की गुनगुनाहट गिन जरा।
सीमा शर्मा ‘मेरठी’ का अंदाज़े बयां देखें-
उतर रहा है सभी रास्तों से एक दरिया,
पहाड़ बर्फ का कोई पिघल रहा होगा।
कुल मिलाकर यह साझा संग्रह न सिर्फ पठनीय है बल्कि संग्रहणीय भी है। मैं संग्रह से जुड़े सभी रचनाकारों का बेहद शुभकामनाएं संप्रेषित करता हूं और सम्पादक अजय अज्ञात जी को बेहद बधाई देता हूं।मेरा विश्वास है यह गजल संग्रह खूब पढ़ा जाएगा, हिंदी ग़ज़ल के जानकारों के बीच चर्चा का विषय बनेगा।साझा संग्रहों की श्रृंखला में मील का पत्थर साबित होगा।
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कृति : परवाज-ए-ग़ज़ल (साझा ग़ज़ल संग्रह)
सम्पादक – अजय अज्ञात
प्रकाशक – शब्दांकुर प्रकाशन, दिल्ली
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समीक्षक – संदीप ‘सरस’
संपर्क – शंकरगंज, बिसवां (सीतापुर), उप्र – 261201
मोबा. 9450382515

 

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