मानवीय संवेदनाओं का जीवंत दस्तावेज ‘मिट्टी कटी किनारों की’

– उदय शंकर सिंह ‘उदय’
आज तड़के ही जग गया! वैसे सुबह की
नींद बड़ी प्यारी होती है। यही
वह वक्त है जब नींद में छाली पड़ती है
और मन स्वप्न की सुरम्य घाटी में विचरण करने लगता है। लेकिन मैं आज जगा नहीं ,जगाया गया हूँ। आज सावन मास
की तीसरी सोमवारी है। उन्हें मंदिर जाना है। सो जग गई हैं, और जगा गई हैं
मुझे। आस – पास नमः शिवाय की
मंगल ध्वनि आ रही है।यह वाणी का
अपना संस्कार है कि वातावरण पवित्र – सा हो गया है और चतुर्दिक शिव के बिंब रूप उजागर हो रहे है! फिर नमः शिवाय! —- मुझे कुछ याद
आ रहा है — ओह! राहुल शिवाय!
उस दिन कवि सम्मेलन में हिन्दी नवगीत
के चर्चित युवा नवगीतकार राहुल शिवाय ने अपनी सद्यः प्रकाशित नवगीत
संकलन ‘मिट्टी कटी किनारों की’ भेंट की
थी और समीक्षा के लिए आग्रह किया था।सो इस समानार्थी शब्द ने मेरे
दायित्व- बोध की याद दिला दी।
दरअसल राहुल शिवाय क्या!
हर रचनाकार में शिवत्व है। जिसकी
आत्मा जागृत है और नई अनुभूति – विस्तार के साथ सृजन रत है, वह रूपक
है शिव का!
राहुल शिवाय को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि वह आज के नवगीत कारों से अलग अपनी भाव- संपदा का
अकेला रचनाकार है, अपनी धज और
त्वरा में बहता हुआ! गीतों की भाषा
ऐसी कि किसी दरिया का बहता हुआ
सफ्फाक जल। जीवन के हर क्षेत्र में
मानवीय संवेदनाओं की अपनी अलग
व्यथा -कथा, जिन परअब तक किसी रचनाकार की दृष्टि नहीं गई! अगर गई
भी तो इतनी जीवंतता के साथ नहीं।
संकलन का पहला गीत नांदीपाठ
या मंगलाचरण की तरह मिट्टी पर है!
मिट्टी से और शुद्ध क्या हो सकता है!
अगर जल न मिले तो धरती यानी मिट्टी
को छू लो फिर सब शुद्ध। लेकिन ऐसी
पावन मिट्टी से ,जिसकी रज में लोट- लोट कर बड़े हुए और घुटनों के बल सरक- सरक कर खड़े हुए हैं ,कट गए हैं। इस अंधाधुंध औद्योगिक प्रगति ने हमारी संस्कृति ,हमारे संस्कार ,
हमारी मानवीय संवेदना को लगभग हम से छीन – सी ली है।हमें अपनी पहचान
बचानी होगी , मिट्टी से जुड़कर मिट्टी का
दायित्व संभालना होगा। कुरुक्षेत्र में
दिनकर जी ने कर्तव्य से विमुख हो रहे धर्मराज को शायद यही शिक्षा दी है–
मिट्टी का यह भार संभालो
बन कर्मठ सन्यासी
पा सकता कुछ नहीं मनुज
बन केवल व्योम प्रवासी
ऐसे में कवि का राष्ट्र- बोध भी जागृत
हो जाता है– काश!अगर मिट्टी होते
मिट्टी हित लड़कर।
शायद कवि को यजुर्वेद का यह मंत्र
याद आ गया होगा—-
वयं राष्ट्रे जागृयाम
हम राष्ट्र के लिए सदा जागृत रहें!
संकलन का शीर्षक गीत
‘मिट्टी कटी किनारों की’ एक और
गीत है गांव- घर की गहरी संवेदना में
डूबा हुआ ! इस गीत में इतनी गहरी संवेदना है कि लगता है कि संग्रह के
अन्य गीतों को भी इस गीत नेअकेले अपने कंधे पर ढो लिया है। संग्रह का
बहिरंग ही इस गीत केअंतरंग को
खोल देता है।इस गीत में कवि ने
पाठकों को लगभग अपरिमित उछाह
के साथ अपनी मिट्टी से जुड़ने के लिए
सानुराग आह्वान किया है। वह व्याकुल
हो खोज रहा सलोने रूप वाले मिट्टी के खिलौने, विविध रंग में रंगे सूप और दौरे को—-
बाजारों में मिट्टी वाले
दीप- खिलौने नहीं दिखे
मिट्टी से जुड़ने वाले वे
रूप सलोने नहीं दिखे
× × × ×
सूप बनाती दौरे गढ़ती
गलियों में सूनापन है
रीति वही है मगर कहाँ से
टूट गया वह बंधन है
नदी का नदीपन नहीं बदला, धार नहीं
बदली ,पर हर दिन मिट्टी कट रही है
किनारों की। दरअसल धार की सार्थकता सुंदर किनारों से ही है। इसलिए कवि की लालसा है कि वह सामाजिक अंतरंगता फिर लौट आए!
फिर सब कुछ सुंदर ,सुगम और
सरस हो जाए ! यह कवि-कर्म की
श्लाघनीय अधियाचना और सुललित
अभिकामना है।इस श्रेष्ठ गीत को शीषर्क- गीत होने का पूरा हक है!
संकलन का दूसरा गीत है
‘किताबें’ ! इसमें कवि का किताबों से
आत्मीय संवाद मन को गहरा व्यथित
कर देता है। घर में अगर सबसे उपेक्षित कुछ वस्तुएं हैं तो वे किताबे हैं ।कुछ इने- गिने सुविधा संपन्न लेखकों,
कवियों को छोड़कर लगभग सभी
रचनाकारों की लगभग यही स्थिति है।
पुस्तकों के रख- रखाव और उसकी
देखभाल की समस्या सिर्फ उन्हें ही
सालती है जिन्होने उसे अपने बूंद- बूंद
अर्थ देकर सहेजा है। वर्तनों को धोया
चमकाया जा सकता है किन्तु किताबें
घर की थकीं – हारीं उन वृद्धाओं की तरह
हैं, जिनकी कोई उपादेयता नहीं।किताबों
का यह आत्म संवाद कवि को बहुत गहरे मर्माहत करता है—–
बोलीं– घर में सब बातें
करते हैं अक्सर
रद्दी से क्यों भरी हुई है
यह अलमारी
× × ×
साथ हमारे
ऐसा मत व्यवहार करो तुम
नहीं करो यों
हमें त्यागने की तैयारी
लेकिन कवि का ऐसे में मन भर आता है- और उन्हें गले लगाकर तोष देता है—–
मैं हूँ न!यह किसी कवि-कर्म की उच्चतम स्तरीयता है जो कवि को श्रेष्ठ
बनाती है। राहुल शिवाय इसके पात्र हैं।
इस संग्रह के एक गीत ने मुझे
देर तक बांधे रखा।इसमें पारिवारिकता की गहन संवेदना और दाम्पत्य रस की
उच्चतम रस अवस्था का परिपाक है!
इस गीत के कुछ सुघड़ बिंब देखिए–
इसी भाव से टांके तुमने
टूटे बटन कमीज के
जैसे मेरी उम्र मांगते
करती हो व्रत तीज के
और घर की दहलीज तब धन्य हो जाती
है जब महावर लगे पांव से जमीन पर अपनी छाप छोड़ती हुई चलती है गृहणी तब घर – आंगन के भाग्य जग जाते हैं—
अलता भीगे
कदमों के संग
जगे भाग्य दहलीज के
एक बात और कमीज के अधिकतर
ऊपर वाले बटन ही टूटते हैं जो ह्रदय-स्थली से लगे होते हैं ।जिसके स्पर्श
से शरीर की सभी सुप्त शिराएं स्फुरित हो जाती होंगी। यह पूरी संवेदना गीत की
हैऔर इस सावनी मास की भी।
घर -परिवार का एक और दुर्लभ बिंबों की स्मृति में डूबा गीत इस संग्रह
की बड़ी उपलब्धि है ।दूर रहते हुए भी
कवि कभी अपनी पत्नी से दूर नहीं हुआ।इस कोलाहल और कलह भरे समय में भी वह कुछ सुख के पल ढूंढ ही
लेता है।वह भोर की अरुणिमा को अपनी
सुशीला पत्नी की मांग के सिन्दूर की तरह देखता हैऔर शाम की लालिमा को
पांव में लगे महावर की तरह। यह अलौकिक सुख कवि मन के दैनंदिन
जीवन -अभियान के हर पल में शामिल है।
सुखद पारिवारिक जीवन का एक और सुघड़ बिंब कवि की प्रगाढ़ पारिवारिकता को दर्शाता है।अपने छोटे
नन्हे शिशु की बाल- सुलभ कौतुक-
क्रीड़ा पर आनंदित है! इतना आनंदित है
कि इस छौने संग खुद भी शिशुवत
क्रीड़ारत है! ऐसे में आशीष के शब्द
खुद ही निकल पड़ते हैं—-
सदा आनंद रहे यही द्वारे !
इधर अति आधुनिकता के व्यामोह
ने हमारे पारिवारिक जीवन को इतना डंसा है कि हम अपने मौलिक संस्कारों
से भी विलग हो गए हैं। इधर बहुत कम
गीतकारों ने राहुल शिवाय की तरह मां
पर दिल को छू लेने वाली ऐसी पंक्तियाँ लिखी हैं– जीवन सारा कटु अनुभव है
मधु मिश्री है माँ!
× × × ×
माँ है तो/ हम राज कुंवर हैं
घर में पूछ हमारी
माँ है तो
थाली में हंसती
रोटी और तरकारी
कवि अपने पिता को भी इसी शिद्दत से याद करता है—– उन्हें भला माँ जैसा
आता तरल नहीं बहना
लेकिन उनका काफी है
बढ़कर बेटा कहना
यह माता -पिता का सम्मान ही है जिसे
यक्ष के प्रश्नों का जवाब देते हुए युधिष्ठिर ने कहा था- – धरती से भी बड़ी होती है माँ और आकाश से भी बड़ा होता है पिता।
यह सुखद है कि यह यशस्वी रचनाकार राहुल शिवाय बिहार के
हैं। उस बिहार के जो बुद्ध, महावीर
की धरती भी है। भले ही बिहारी बाढ़ और सुखाड़ को झेलता हुए
अभाव में जीवन लेते हैं लेकिन अपने
अथक श्रम और उत्कट जिजीविषा
के बल पर अपने लिलार का दुख भी
मेंट लेते है
बिहारी होने के नाते कवि के मानस
में छठ पर्व की स्मृति गहरी धंसी हुई है।
दूर रहकर भी वह इस पर्व की महानता
और उसके मीठे पावन गीतों को कैसे
विस्मृत कर ले? सायं से लेकर अरुणोदय तक के इस महत्वपूर्ण पर्व
की याद और महाप्रसाद के रूप में
ठकुआ पिरिकिया का स्वाद वह कैसे भूल पायेगा?बिहार वासियों के मन में
यह पर्व ऐसे बसता है जैसे भारत माँ
का प्रसन्नता से भरा मुखमंडल हँसता
हो। संग्रह के अन्य गीत भी कवि की
प्रतिष्ठा के अनुरूप है जिन पर पर्याप्त
लिखा जा सकता है!
दरअसल राहुल शिवाय नवगीत के उन्नयन और उसके बहुविध विकास के लिए समर्पित व्यक्तित्व का नाम है।उसे
बहुत आगे बढ़ना है। अभी बहुत पढ़ना- लिखना है! वैसे अपने इस युवा उम्र में ही
इतनी चर्चा बटोर ली है कि यह कहने
का मन होता है कि “सैनानी करो प्रयाण
सारा आकाश तुम्हारा है!”.
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पुस्तक – मिट्टी कटी किनारों की (नवगीत-संग्रह)
लेखक – राहुल शिवाय
समीक्षक
उदय शंकर सिंह ‘उदय ‘
गीतांबरा
शहबाजपुर, दुर्गास्थान
उमानगर,मुजफ्फरपुर
बिहार 842004
मो- 8252122 711