विशिष्ट ग़ज़लकार : अशोक अंजुम

1
वो मिले यूँ कि फिर जुदा ही न हो
ऐसा माने कि फिर ख़फ़ा ही न हो

मैं समझ जाऊँ सारे मजमूँ को
खत में उसने जो कुछ लिखा ही न हो

कैसे मुमकिन है उसने महफ़िल में
मेरे बारे में कुछ कहा ही न हो

मेरे इज़हार पे वो कुछ यूँ था
जैसे उसने कि कुछ सुना ही न हो

कितनी हसरत थी उससे मिलने की
वो मिला यूँ कि जानता ही न हो

अब ये झंझट सहन नहीं होता
वो मरज दे कि फिर दवा ही न हो

2
कभी सूरज नहीं देखा, कभी चन्दा नहीं देखा
तुम्हारे बाद दुनिया को कभी पूरा नहीं देखा

तुम्हारे दूर जाने की कहानी जो भी हो लेकिन
हमारी प्यास ने उस रोज़ से दरिया नहीं देखा

पकड़कर हाथ हम महसूसते थे धड़कनें दिल की
तुम्हारे बाद फिर उस ताज को वैसा नहीं देखा

समय ने हमको दिखलाये हैं क्या-क्या रंग क्या कहिए
तुम्हें जब भूल पाये हों वही लम्हा नहीं देखा

वही मज़बूरियाँ, बंधन, वही दुनिया की सौ बातें
वगरना ये नहीं हमने कोई रस्ता नहीं देखा

3
तार रेशम के जैसी नज़र रेशमी
तुम मिले, हो गई है उमर रेशमी

इश्क का यूँ हुआ है असर रेशमी
वक्त पहले न था इस कदर रेशमी

सामने बर्थ पर एक हँसी आ गई
हो चला लो हमारा सफ़र रेशमी

जात -जाते पलटकर जो मुस्काईं वो
दिल में टुक से उठी इक लहर रेशमी

तेरे कूचे का आलम अजब है सनम
बात करता यहाँ हर बशर रेशमी

है मज़ा तो तभी जब कि होने लगें
मैं इधर रेशमी, वो उधर रेशमी

उनसे मिलकर कोई रंज रहता नहीं
उनको आते हैं ‘अंजुम’ हुनर रेशमी

4
वक़्त जीवन में ऐसा न आये कभी
ख़त किसी के भी कोई जलाये कभी

धुल है, धुंध है, शोर ही शोर है
कोई मधुवन में बंसी बजाये कभी

मेरी मासूमियत खो गई है कहीं
काश बचपन मेरा लौट आये कभी

जिसकी खातिर में लिखता रहा उम्र भर
वो भी मेरी ग़ज़ल गुनगुनाये कभी

 

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