विशिष्ट ग़ज़लकार : अशोक मिजाज

1
मोहब्बत की वो शिद्दत आज भी महसूस होती है,
पुरानी चोट है लेकिन नई महसूस होती है।

मेरी आँखों में तू ,ख़्वाबों में तू,साँसों में तू ही तू,
न जाने फिर भी क्यूँ तेरी कमी महसूस होती है।

मुझे आराम मिलता है तेरी ज़ुल्फ़ों के साये में,
कि सब छावों से ये छावों घनी महसूस होती है।

अगर छूना भी चाहूं तो तुझे में छू नहीं सकता,
कोई दीवार राहों में खड़ी महसूस होती है।

मैं जब बिस्तर पे जाता हूँ कभी तन्हा नहीं रहता,
कोई शय मुझको सीने से लगी महसूस होती है।

मैं शायर हूँ, मुझे शुहरत कभी बहला नहीं सकती,
ग़ज़ल कहने में ही मुझको ख़ुशी महसूस होती है।

2
उस से बेहतर भी कोई शेर भला होता है,
जो निगाहों ने निगाहों से कहा होता है।

दिल उड़ा करता है आज़ाद परिंदों जैसा,
और इंसान रवायत से बंधा होता है।

प्यार की चोट ज़माने को कहाँ दिखती है,
जिसको लगती है ये बस उसको पता होता है।

काश माथे पे लिखा होता मुक़द्दर अपना,
जिस तरह बंद लिफ़ाफ़े पे पता होता है,

अपनी आवाज़ भी खो जाती है तन्हाई में,
दिल के सन्नाटों में वो शोर बपा होता है।

3
ग़ज़ल के शेर सुना दूं तो चौंक जाओगे,
मैं तुम को तुम से मिला दूं तो चौंक जाओगे।

मेरे हिसाब में क्या क्या लिया दिया तुमने,
अगर हिसाब दिखा दूं तो चौंक जाओगे।

मैं चाहता हूँ जिसे जानते हो तुम उसको,
तुम्हें वो नाम बता दूं तो चौंक जाओगे।

बिना तुम्हारे मैं ज़िन्दा रहा भला कैसे,
कभी वो राज़ बात दूं तो चौंक जाओगे।

मैं अपने दिल पे सदा हाथ रक्खे फिरता हूँ,
ख़िज़ाँ में फूल दिख दूं तो चौंक जाओगे।

4
मेरी दीवानगी,मेरी ये वहशत कम न हो जाये,
तुझे छूने,तुझे पाने की चाहत कम न हो जाये।

झपक जाएं न पलकें आपका दीदार करने में,
मिली है जो नसीबों से वो मोहलत कम न हो जाये।

मैं तुझसे प्यार का इज़हार करने में झिझकता हूँ,
बानी है जो तेरे दिल में वो इज़्ज़त कम न हो जाये।

मिज़ाज अपने हबीबों से भी मिलना दूरियाँ रखकर,
ज़ियादा मिलने जुलने से मोहब्बत कम न हो जाये।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *