खुद कलामी
मेरे रूखसार पे
जो हल्की हल्की झुर्रियां आ गई हैं
यकिनन उस को भी आ गई होंगी
जिंंदगी के सफ़र मे
उमर के जिस ढलान पर मैं खडा हूँ
यकीनन वो भी वहीं खडा होगा
शब-वो-रोज के मद-व-जजर
रंज-व-गम, आंसू व खुशी
सरदी गरमी, सुबह शाम से उलझते हुए
चढती उमर का वो चुलबुलापन जो अब
संजीदगी में ढल चुका है
एेन मुमकिन है उस के भी मेजाज का हिस्सा होगा ।
हां ये मुमकिन है गैर मतवकाै तौर पे
सरे राह तुम कहीं
कभी मिल भी जाओ तो
तुम्हें पहचानना मुश्किल भी होगा ।।
मगर मेरा दिल मुझ से कह रहा है
मुझे बहला रहा है
तुम एक रोज मुझ से मिलोगॆ
और जरूर मिलोगॆ ।।।
(अफरोज आलम)
Very Nice work. Editorial is nice. Keep it up.