नारी चेतना के दोहे : हरेराम समीप
हर औरत की ज़िंदगी, एक बड़ा कोलाज
इसमें सब मिल जाएँगे, मैं, तुम, देश, समाज
नारी तेरे त्याग को, कब जानेगा विश्व
थोड़ा पाने के लिए, तू खो दे सर्वस्व
न्यौछावर करती रही, जिस पर तन-मन प्राण
वो समझा तुझको सदा, घर का इक सामान
औरत कब से क़ैद तू, तकलीफ़ों के बीच
भरे लबालब दुक्ख को, बाहर ज़रा उलीच
करती दुख, अपमान से, जीवन का आग़ाज़
औरत के सपने यहाँ, टूटें बे-आवाज़
जुल्म सहें फिर भी रहें, हम जालिम के संग
यही हमारा सत्य है, यही हमारा ढंग
औरत, पेड़, गरीब क्यों, हैं बेचारे दीन
दुनिया में अब भी इन्हें, जो चाहे ले छीन
अपनी सारी क्रूरता, अभिनय बीच लपेट
वो बरसों से कर रहा, औरत का आखेट
बना रही अपनी जगह, संघर्षों के पार
उसके चारों ओर है, पत्थर की दीवार
बेटी अपने गांव में अब भी यही रिवाज
पहले कतरें पंख फिर कहें भरो परवाज
कहते हो अर्धांगनी, लेकिन हो अनजान
एक अंग के दुक्ख का, रखे न दूजा ध्यान
तुम तो कह कर सो गये, धुत्त नशे में बात
लगी अदालत आँख में, मेरे पूरी रात
मैं उससे कब तक मिलूं, अपनेपन के साथ
अपनेपन की खाल में, जो करता हो घात
गर्भाशय से आ रही, उसकी करुण पुकार
‘‘माँ मुझसे मत छीन तू, जीने का अधिकार ’’
लौट रही कालेज से, भरे सुनहरे ख्वाब
वक्त खड़ा था राह में, लिए हुए तेजाब
वो थी बातूनी कभी, जैसे टॉकिंग डॉल
ओढ़ाया किसने उसे, खामोशी का शाल
होगी ‘तीन तलाक’ की, अब पूरी तस्दीक
तुम क्या समझे ! थूक दी, ‘तम्बाखू की पीक’
औरत पर पाबंदियाँ, लगा न यूँ प्रतिबंध
कब तक बाँधोगे मियां, शुद्ध इत्र की गंध
और न प्रतिबंधित करो, इक लड़की के ख्वाब
हो जाती है बाँध से, एक नदी तालाब
जिनमें बन्दी औरतें, सहतीं अत्याचार
पिंजरे रीति-रिवाज के, कर दो सब मिस्मार
नई नस्ल पैदा करो, हो नवयुग निर्माण
नारी तेरा जो करे, ईश्वर-सा सम्मान
देहरी भीतर से सदा, तू देखे संसार
एक बार तो कर ज़रा, इस देहरी को पार
यदि अब भी बलहीन पर, रुका न अत्याचार
इक दिन उसकी आह से, बिखरेंगे अंगार
एक नए संघर्ष की, कर तैयार ज़मीन
जो तेरा है तू उसे, पूरे हक़ से छीन
बर्बरता करती रही, पूरी रात प्रयोग
चीख-चीख चिड़िया थकी, उठे न सोये लोग
बेहद अनुनय, विनय से, लड़की माँगे काम
मालिक उसमें खोजता, अपनी सुंदर शाम
अब भी अपने गाँव में, बेटी यही रिवाज़
पहले कतरें पंख फिर, कहें, भरो परवाज़
जुल्म सहे पीड़ा सहे, औरत बेआवाज़
फिर घर के घर में रखे,जालिम के सब राज़
प्रश्नों से बचती रही, ले सुविधा की आड़
अब प्रश्नों की टेकरी, लो बन गई पहाड़
नारी जीवन-संगिनी, इस जग का विश्वास
जाने कब हो पायेगा,हमको ये अहसास
दो बेटों ने बाँट ली,माँ ममता की खान
दो मुल्कों में ज्यों बँटी,नदिया एक समान
यूं तो वह सब कुछ दिया जो था उसे पसंद
लेकिन पिंजरे में रखा उसको करके बन्द
जिसे सुनाती फिर रही, अपने दर्द, कराह
नहीं रही उसको कभी, तेरी कुछ परवाह
‘मुझे क्या हुआ ठीक हूं’, वो कहती भी जाय
रुकी हुई हिलकी मगर, दिल में नहीं समाय
क्यों है बेटी बोझसी, बेटा पाए लाड़
अब तो मन के खोलिए, ताले जड़े किबाड़
वह सचमुच थी निर्भया, मानी कभी न हार
उजियारा संचित किया, उसने काजल पार
लड़ी निरन्तर त्रास से, और हो गयी ढेर
आखिर मछली रेत पर, जीती कितनी देर
मिली न पूरे गाँव में, जिसे लाज की भीख़
गूंज रही बृम्हाण्ड में,उस लड़की की चीख
इस भारी बरसात में, हैं तूफान अनेक
उस पर यारो हाथ में, माचिस तीली एक
कई अहिल्यायें यहाँ, सहें जुल्म की धूप
मिल जाते हैं इन्द्र के, गली-गली प्रतिरूप
अश्क गिरे, होते रहे, माटी में तहलील
धीरे धीरे यूँ मरी, आशाओं की झील
बिना रफू के ठीक थी, शायद फटी कमीज
बाद रफू के हो गई, वो दो-रंगी चीज
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परिचय : हरेराम समीप वरीय लेखक हैं.
पता : 395 सेक्टर 8 फरीदाबाद 121006
मोबाइल 9871691313
Sabhi sahityakaron ko tahe deel se kavita k madhyam se manviye samvednao ko shabdon me pidone k liye dhanyavaad.
धन्यवाद मित्रो
हरेराम समीप