हिन्दी ग़ज़ल के युवा चेहरे (एक) : संजू शब्दिता
जैसा कि कहा गया है युवा मन की ग़ज़लें प्रेम के गलियारे से होकर यथार्थ के धरातल पर उतरती हैं।नवलेखन के क्षेत्र में सौन्दर्यवादी रूझान कुछ दिनों तक चलता है।लेकिन विचारधारा की कसौटी पर संजू शब्दिता की ग़ज़लों का रूख बिल्कुल साफ है।ज़िन्दगी के मायने तलाशती इनकी ग़ज़लें जीवन के मुहावरों को निरंतर खोज करती रहती हैं।इस खोज में इन्हें कभी-कभी सन्नाटों से भी मुठभेड़ करना पड़ता है——
हम सितारों की उजालों में कोई कद्र कहाँ
खूब चमकेंगे ज़रा रात घनी होने दो
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बचा रखे थे हमने ग़म के आँसू
हमें खुशियों में रोना खूब आया
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संजू शब्दिता की ग़ज़लों में आत्माभिमान और आत्मगौरव के स्वाद का अनुभव होता है।इनका विश्वास सपनों की बैसाखी के सहारे आगे बढ़ने की कोशिश नहीं करता।आज की कठोर धरती पर मजबूत इरादे के साथ उतरना चाहता है।इनकी ग़ज़लों में समकालीन यथार्थ के विद्रोह आकांक्षा और आकांक्षा के विद्रोह की ऐसी अभिव्यक्ति है जो यथार्थ और जीवन के बारे में नए ढंग से सोचने की प्रेरणा देती है।कथ्य और शिल्प में अद्भुत रचाव-बसाव है।शब्द-चयन वैचारिक ऊर्जा के साथ कथ्य के अनुरूप भाषा का सधाव अद्भुत सर्जनात्मक स्थैर्य और धैर्य को प्रभावित करता है।जीवन की एक तकलीफ़ देह तनहाई के साथ भी इनका उत्साह एक नई दुनिया की खोज में लगा हुआ है।यही तो हिन्दी ग़ज़ल की विशेषता है और हिन्दी ग़ज़ल को जानने और पहचानने का रास्ता भी ।मानवीय मूल्यों को सबसे ऊपर माननेवाली संजू शब्दिता अपने वक़्त के तमाम सन्नाटों से वाकिफ़ हैं।हिन्दी ग़ज़ल को एक नए सांस्कृतिक अक्स के साथ पाठको के समक्ष लाएंगी ऐसा विश्वास है—
ज़िन्दगी भर ज़मीन का खाया
मरने तक आसमान को सोचा
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आज दरिया बहुत उदास लगा
एक क़तरे ने फिर बग़ावत की
यह कहने में मुझे संकोच नहीं —
ग़ज़ल का सबसे बुलंद पड़ाव है इसका लहजा। कथ्य की बेचैनी में इसके कहन के सौंदर्य के साथ समझौता नहीं किया जा सकता इससे इसका स्वरूप प्रभावित होता है। बड़ी मुश्किल से कोई एक मुकम्मल ग़ज़ल तैयार होती है। छंद मुक्त कविता की तरह नहीं युग संदर्भ का हवाला देकर कुछ से कुछ लिख दिया जाए। संजू शाब्दिता अपनी ग़ज़लों में सारी शर्तों का निर्वाह करती हैं। विषयों की विविधता,यथार्थ का तीक्ष्ण और सुरूचिपूर्ण प्रयोग के प्रति इनका दृष्टिकोण बिल्कुल साफ है। ग़ज़ल और सम्प्रेषण का मर्म उसके अंतर्निहित तथ्यों के विकेन्द्रीकरण में सार्थक प्रतीत होता है। कहन में कहीं कोई झोल और तिलिस्म दिखाई नहीं पड़ता, जैसा कि उर्दू प्रभावित ग़ज़लों में यह आरोप लगाया जाता रहा है। समाज,राजनीति और साहित्य की विविध प्रवृतियों को उपरोक्त शेर एक नए अर्थ-बोध के साथ जीवन-परिदृश्य को उद्घाटित करता हुआ व्यष्टि और समष्टि के भेद को हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है।
एक गहरी छटपटाहट के साथ संजू शाब्दिता की ग़ज़लें करवटें बदलना चाह रही हैं । इनके शेरों में एक खास तरह की बेचैनी है।
ग़ज़ल
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अब्र ने चाँद की हिफाज़त की
चाँद ने ख़ुद भी खूब हिम्मत की
आज दरिया बहुत उदास लगा
एक कतरे ने फिर बगावत की
वो परिंदा हवा को छोड़ गया
उसने क्या खूब ये हिमाकत की
वक़्त मुंसिफ है फैसला देगा
अब ज़रूरत भी क्या अदालत की
धूप का दम निकल गया आखिर
छांव होने लगी है शिद्दत की