लघुकथा :: एस.मनोज

विरासत घनानंद बाबू जीवन की नैतिकता और मर्यादाओं का पालन करते हुए आदर्श जीवन जीते रहे और उन्होंने अपने दोनों बेटों रूपक और दीपक को उच्च कोटि की शिक्षा दिलवाया।…

किसानों के लिए संघर्षरत रहे स्वतंत्रता सेनानी दामोदर प्रसाद सिंह :: डॉ.भावना

किसानों के लिए संघर्षरत रहे स्वतंत्रता सेनानी दामोदर प्रसाद सिंह    – डॉ.भावना आज जबकि पूरे देश में जातिवाद, क्षेत्रवाद और अलगाववाद हावी है।हालात ये हो गये हैं कि सारे रिश्ते का जन्म  स्वार्थ के ताने-बाने के रूप में होता है ।लोग सामाजिक प्राणी होते हुए भी अपने समाज से कटकर अलग समाज के निर्माण में संलग्न हैं ।मॉल कल्चर  और अपार्टमेंट कल्चर के जमाने में गांव की मिट्टी पर जान छिड़कने वाले लोग किस्से कहानियों के पात्र प्रतीत होते हैं। इस मेल के जमाने में चिट्ठी अपनी प्रासंगिकता खो रही है वहीं  बस, रेल और हवाई जहाज के जमाने में बैलगाड़ी की परिकल्पना आजकल के बच्चों के लिए कौतूहल का विषय है ।ऐसे खौफनाक समय में  महान समाजसेवी एवं किसान नेता दामोदर प्रसाद जी का जीवन आज की पीढ़ी अनुकरणीय है।दामोदर प्रसाद जी  का जन्म 15 फरवरी 1914 को मुजफ्फरपुर जिला के सरैया प्रखंड के मनिकपुर गांव में हुआ था। उनका ननिहाल भगवानपुर रत्ती है,जहाँ से उनका अत्यधिक लगाव था। इनके मन में  बचपन से ही भारत मां के प्रति असीम स्नेह हिलोरे लेने लगा था।भारत मां को बेड़ियों जकड़ा देख इनका मन रो उठता था।  उन्होंने सन 1942 ईस्वी में भारत छोड़ो आंदोलन में  बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया तथा भूमिगत रहते हुए आजादी की जंग में तन- मन धन से डटे रहे। दामोदर बाबू गरीबों के मसीहा थे। इनकी नजर में ऊंच-नीच, जात पात का कोई महत्व नहीं था। किसी गरीब को रोते-बिलखते वे देख नहीं सकते थे।वे आम जनता की  थोड़ी सी भी परेशानी पर  अपना सर्वस्व निछावर करने के लिए हमेशा ही तत्पर रहते थे ।इनके साथ साथ अन्य स्वतंत्रता सेनानीराम संजीवन ठाकुर, डॉक्टर शंभू नारायण शर्मा, मुनेश्वर चौधरी, गोपाल जी मिश्र, रामेश्वर प्रसाद शाही  इत्यादि  भी स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय थे। पारु थाना कांग्रेस कमेटी के ये सभापति भी थे तथा इन्हें  पंचायत के प्रथम मुखिया भी मनोनीत होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। ये अपने गांव में लगातार25 वर्षों तक मुखिया के पद पर आसीन रहे एवं इन्होंने बहुत ही ईमानदारी से गाँव व समाज का सेवा किया, जिसकी वजह से इनकी छवि किसान नेता एवं समाजसेवी के रूप में बनती चली गई । कहा गया है – बड़ा आदमी जो जिंदगी भर काम करता है बड़ी वो रूह जो रोए  बिना तन से निकलती है स्वतंत्रा सेनानी दामोदर प्रसाद सिंह  ऐसे ही एक शख्स थे जिनके रग-रग में देश प्रेम भरा हुआ था। एक ऐसे वक्त में जब भारत माता जंजीरों में बंधी हुई हो, एक चेतना संपन्न व्यक्ति अपने घर में सुख की नींद कैसे सो सकता था? पर,  ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने परिवारिक जिम्मेदारियों को देश प्रेम की वजह से बिल्कुल अलग करके रखा हो,क्योंकि इनका मानना था कि परिवार जब अच्छा होता है तभी हम समाज और देश के लिए सोच सकते हैं और यही सोच इनको आगे बढ़ने के  लिए प्रेरित  करता था। इन्होंने अपने परिवार को कभी भी अकेला नहीं छोड़ा हर एक समस्याओं में उनके साथ खड़े रहे। दामोदर प्रसाद जी जुल्म की आंच में तप कर इस्पात बन गए थे। उनकी सारी कमजोरियां जल चुकी थीं ।उनके भीतर सोए हुए  शक्ति का स्रोत था ।वह शक्ति कहीं बाहर से नहीं आयी थी  बल्कि उनके  भीतर ही रहती थी। ठीक जैसे दूध में घी रहता और दिख नहीं पड़ता है, मगर जिस प्रकार मथने से मक्खन के रूप में वह जमा होकर नजर आता है ।ठीक उसी प्रकार जुल्म अत्याचार की बार-बार की आवृत्ति सुप्त  शक्ति के लिए मथानी का काम करती है।  जिस तरह आज के समय में सबल के ही साथ सब लोग होते हैं ,उन्हीं की हुकूमत होती है ,उनकी ही सत्ता होती है। वैसे ही परतंत्र  भारत में भी गरीबों की कोई सुनने वाला नहीं था। कचहरी  उन्हीं की हाकिम उन्हीं के । समर्थवान को ही बड़े-बड़े वकील बैरिस्टर  मिलते थे और पुलिस फौज भी उन्हीं की सहायता में पहुंच पाती थीं। इसलिए कहते हैं कि रुपया कानून की छाती पर  हमेशा सवार रहता है। जहां देखो रुपए की पूछ है और यही चीज गरीबों के पास नहीं  होती है । दामोदर प्रसाद जी जब किसानों की विशेषकर छोटे किसानों की ऐसी दशा देखते ,तो उनके मन में     सामाजिक विषमता के प्रति असंतोष व्याप्त हो जाता। उनको यह हमेशा परेशान करता है कि जब हम सभी मनुष्य  हैं और वह ईश्वर अगर किसी के लिए अलग नहीं है, वह अमीरों और गरीबों को बराबर देखता है तो हम इंसान इतनी गैर बराबरी को क्यों प्रश्रय देते हैं ?जब सूरज अपनी रोशनी अमीर- गरीब, पेड़- पौधे ,पशु -पक्षी, नदी- नाले सभी पर एक समान देती है ,तो हम मनुष्यों की दृष्टि आखिर अलग- अलग क्यों?  किसान क्रांति दरअसल जनतंत्र की क्रांति थी ।…

विशिष्ट ग़ज़लकार :: ऋषिपाल धीमान ‘ऋषि’

ग़ज़ल 1 यों कभी लगता है जैसे मुश्किलों से दूर हूँ, और कभी लगता ख़ुशी की महफ़िलों से दूर हूँ।   मान से होना वो ख़ुश अपमान से होना दुखी,…

विशिष्ट कहानीकार :: गीता पंडित

एक और दीपा   – गीता पंडित सुनीता कहाँ हो ? कब से फोन की घंटी बज रही है, उठाती क्यों नहीं ? लेकिन सुनीता शायद बाहर बगीचे में कपड़े…