पुस्तक समीक्षा

  • हिंदी ग़ज़ल का प्रभुत्व यानी हिंदी ग़ज़ल का नया पक्ष
    – लेखक – अनिरुद्ध सिन्हा/ समीक्षक  – शहंशाह आलम

    हिंदी ग़ज़ल की आलोचना मेरे ख़्याल से हिंदी साहित्य में उतनी व्यापक अथवा विकसित नहीं भी दिखाई देती है, तब भी हिंदी ग़ज़ल ने हिंदी साहित्य में अपना उचित स्थान पा लिया है, ऐसा कहने में ग़ज़ल के आलोचकों को परहेज़ नहीं करना चाहिए। यह सच है कि हिंदी ग़ज़ल में अपने समय की ग़ज़ल लिखी जानी बाक़ी है। तब भी उस लिखे जाने के इंतज़ार में हिंदी ग़ज़ल का सारा इतिहास छोड़ देना हिंदी ग़ज़ल के साथ बेईमानी होगी। बदनीयती कभी सच्चा इंसाफ़ करने नहीं देती। हिंदी ग़ज़ल के साथ हिंदी की आलोचना यही सबकुछ कर रही है। हिंदी के आलोचक के इरादे का खोट हिंदी ग़ज़ल के प्रति इसलिए भी झलक जाता है क्योंकि हिंदी आलोचना के गंभीर आलोचक हिंदी ग़ज़ल पर कुछ भी लिखने से अकसर कतरा जाते रहे हैं। आलोचकों के कतराने की वजह से हिंदी का शायर ख़ुद ग़ज़ल की आलोचना लिखने में लगा है। ज्ञान प्रकाश विवेक, सुल्तान अहमद और अनिरुद्ध सिन्हा, ये तीन हिंदी के शायर ऐसे हैं, जो ग़ज़ल-लेखन के साथ-साथ ग़ज़ल की आलोचना भी गंभीरतापूर्वक करते रहे हैं। मैं इसे बुरा नहीं मानता। हिंदी ग़ज़ल का सही पहनाव-ओढ़ाव कैसा है, इन शायर आलोचकों के कारण सच्चे रूप में प्रकट होकर सामने आ रहा है। ग़ज़ल का यूनिफ़ार्म अपना है। रंग-ढंग अपना है। इसलिए इसकी आलोचना भी अपनी होनी चाहिए। हिंदी ग़ज़ल की आलोचना के इस उत्तरदायित्व को मशहूर शायर अनिरुद्ध सिन्हा सर्जनात्मक ऊर्जा के साथ संभाले दिखाई देते हैं। अनिरुद्ध सिन्हा की आलोचना की नई किताब ‘हिंदी ग़ज़ल का नया पक्ष’ इसी ओर इशारा करती है। अनिरुद्ध सिन्हा का हिंदी ग़ज़ल को अपना नाक-नक्श देने का यह तरीक़ा मुझे बेहद पसंद है।

    यह वक़्त सही ग़ज़ल के साथ-साथ सही ग़ज़ल-आलोचना की शिनाख़्त का है। हिंदी में इतने दिनों से ग़ज़ल-लेखन का काम चल रहा है। ग़ज़ल के इस सागर में ग़ज़ल के कितने सच्चे मोती हैं, इसकी पहचान के लिए ज़रूरी है कि हिंदी ग़ज़ल के आलोचक अधिक-से-अधिक सामने आएँ। अच्छी ग़ज़ल-समीक्षाओं के आने से यह तय करना आसान होगा कि हिंदी ग़ज़ल के सागर के वे कौन मोती हैं, जिनकी चमक ज़्यादा दिनों तक बरक़रार रहने वाली है। अनिरुद्ध सिन्हा की आलोचना-पुस्तक ‘हिंदी ग़ज़ल का नया पक्ष’ इस काम को आसान करती दिखाई देती है। इसलिए कि अनिरुद्ध सिन्हा हिंदी ग़ज़ल के एक ऐसे आलोचक हैं, जिनका ग़ज़ल-मूल्याँकन हमें ग़ज़ल-सागर की गहराई तक देखने की आँख देता है। आलोचना की इस किताब में अनिरुद्ध सिन्हा की भूमिका के आलावा सत्रह आलेख हैं। और ‘मेरे प्रिय ग़ज़लकार’ शीर्षक से सूर्यभानु गुप्त, महेश अग्रवाल, माधव कौशिक, अशोक मिज़ाज, ज़हीर कुरेशी, ज्ञान प्रकाश विवेक, ध्रुव गुप्त, प्रेमकिरण, विजय किशोर मानव, डा. कृष्ण कुमार प्रजापति, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, विज्ञान व्रत, दरवेश भारती, हरेराम समीप, सुल्तान अहमद, आलोक श्रीवास्तव, नूर मुहम्मद नूर, डा. भावना, गौतम राजरिशि जैसे शायरों पर गंभीर टिप्पणियाँ हैं। किताब में छपा लेख ‘हिंदी ग़ज़ल के पचास वर्ष’ हिंदी ग़ज़ल के समय, विचारधारा और स्वीकृति के बारे में है। यह लेख हिंदी ग़ज़ल का सुनहरा, चमकीला, बाइज़्ज़त भूत, भविष्य और वर्तमान को रेखाँकित करता है। ‘हिंदी कविता की संवादहीनता और ग़ज़ल की ज़िम्मेदारियाँ’ शीर्षक लेख में अनिरुद्ध सिन्हा यह चिंता व्यक्त करते हैं कि कविता हो या ग़ज़ल, दोनों की भूमिका, मूलत: नैतिक पक्षधरता और विवेक पैदा करने की है। अनिरुद्ध सिन्हा का दोनों विधा को लेकर यह चिंता ज़रूरी लगी कि दोनों विधा का स्वर ऐसा हो, जो अपनी-अपनी जड़ता से वाजिब मुठभेड़ करे। वहीं लेखक की यह चिंता कि क्या आज की कविता अस्तित्व की अभिव्यक्ति का सर्वोच्च क्षेत्र रह गई है? लेखक का यह सवाल मुझे थोड़ा अटपटा इसलिए लगा कि ग़ज़ल भी तो कविता-विधा ही है, फिर ऐसी आशंका क्यों? मेरे विचार से कविता आज भी अस्तित्व की अभिव्यक्ति का सर्वोच्च क्षेत्र है। आत्मनिर्भर भी। दृढ़ भी। आदमी के शत्रुओं से लोहा लेने को वचनबद्ध भी। ग़ज़ल भी तो अब ऐसे ही विचारों से आबद्ध है। इस वचनबद्धता से जिस दिन कोई कवि, कोई शायर फिरा, उसी दिन से उसका पतनकाल आरंभ हो गया समझिए। कवि और शायर, दोनों की ज़िम्मेदारियाँ देश के आख़िरी आदमी तक को बचाए रखने की बराबर से तय है। संभवत: पहले से और ज़्यादा। ऐसा इसलिए कि कवि अथवा शायर, दोनों अगर साथ किसी अँधे कुएँ में गिरे तो दिक़्क़तें दोनों को बराबर आएँगी। किताब में एक और रेखाँकित किए जाने वाला लेख है ‘समकालीन हिंदी ग़ज़ल में स्त्री’। यह समय स्त्री-जीवन की स्वीकृति के संकट से भरा समय है। घर हो या बाहर, हर जगह एक स्त्री को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी होती है। एक स्त्री को यह सिद्ध करना होता है कि वह भी इसी घर, इसी बाहर का हिस्सा है। एक पुरुष अपना जीवनोत्सव घर-बाहर चाहे जैसे मना सकता है। एक स्त्री जबकि अपने जीवन में जीवन भर बेचारी ही बनी घूमती रहती है। लेकिन जिस तरह एक स्त्री उम्मीद का दामन नहीं छोड़ती, उसी तरह पूरा कविता-समय एक स्त्री के पक्ष में खड़ा रहता है। इस लेख में स्त्री-पक्ष के प्रति लेखक ने अपना गहरा आशय व्यक्त किया है। ‘आधुनिक परिवेश’, ‘चित्रण की प्रवृति’, ‘विश्वकोषीय स्वभाव’, ‘समकालीन समस्याओं की अभिव्यक्ति’, ‘जीवन के प्रत्यक्ष अनुभवों के बीच हिंदी ग़ज़ल’ आदि लेख में व्यक्त लेखक के विचार हिंदी ग़ज़ल के समय को समकालीनता से जोड़ते हैं और हिंदी ग़ज़ल की जिजीविषा को नई ताक़त देते हैं।

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