कहां गुम हो गई…
- बबीता गुप्ता
आत्मविश्वास से ओत-प्रोत होकर भी उन्होने अपना जीवन एक पिंजरे में कैद पंछी की तरह व्यतीत किया.वो समाज की ही नहीं,परिवार की परंपरावादी व दक़ियानूसी सोच के कारण नारी श्रृंखला की बेड़ियों में जकड़ी हुई थी।घर की चारदीवारी ही उनका संसार था।पाँच हाथ की साड़ी में लिपटी नहीं बल्कि संस्कारों से लिपटी ससुराल की देहरी पर प्रथम पर्दापरण करते ही अपने आपको ढेरों रिश्तों में घिरी शून्य विचरित-सी मानती थी।हर पल अपनों की जिम्मेदारियाँ निर्वहन करते-करते खुशामदी,सेवाभाव के बीच अपनी ख्वाईशों को तिलांजलि दे,शून्यलोक की यात्रा में विचरित कर दिया।बच्चों में अपना बचपन ढूंढती।कुचले हुये सपनों के बिखरे पन्नों को करीने-से जमाते हुये टूटी बिखरी जिंदगी की गुत्थी सुलझाना चाहती थी, पर वो सुलझाने के बदले और उलझ जाते।अनायास कभी सिरे जुड़ते भी तो क्षण भर के लिए, अतीत के खुशगवार दिन की झलक स्पष्ट हो उठती।वर्तमान में लौटते ही सब खाली पन्नों की तरह स्पष्ट हो जाता।स्वाभिमानी जीवन जीने की लालसा,भीड़ का हिस्सा न बनकर अपनी पहचान बनाने की इच्छा , अपनों के बीच अपना वजूद स्थापित करने की चाह थी।अपने सुनहरे स्वप्नों को आलोकित करने का सपना टूटकर कण-कण होकर छितर-बितर गया।जब उसके ससुराल वालों ने घर की इज्जत,रौनक,आभूषण और ना जाने किन-किन उपाधियों से विभूषित कर,उसे अपने को दिल के किसी कोने में दफन करने पर मजबूर कर दिया।अपने अरमानों का गला घुटते देख जड़वत-सी हो गई।अपनों के बीच होते हुये भी अपने करीबी व्यक्तियों का अहसास अंजाना कर रह गया।भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते रहे।जीवन संगिनी के रूप में दुःख-दर्द बांटा लेकिन किसी ओर की क्या कहे,पति परमेश्वर ने उसकी तरफ कभी ध्यान ही नही दिया।दिन को रात और रात को दिन कहलाने वाले ने उसके समर्पण-भाव को,योगदान को कभी शब्दों के सेतु से उसके व्यथित मन को नही बांधा।कभी मन विचलित होता या बिखरे रिश्तों को संभालने में,सहेजने में …पतिदेव की ओर निरीह आँखों से देखती,तो आकुलमन दो शब्दों को सुनने को लालायित रहता।सही ही तो हैं,वो पतिपरमेश्वर ही तो हैं……उम्मीद-सी झिलमिलाती कि कभी तो जीवन खुशहाल होगा, रिक्त जीवन की किताब के पन्ने कभी तो रंगीन स्याही से भरे जाएँगे।आपसी मन-मुटाव,नफरत की चढ़ी पर्त को समय की बेदी पर चढ़ाने की कोशिश करती पर उद्धेलित मन के नासूर फिर हरिया जाते।परिवार को भगवान का दिया उपहार मानने से सब कुछ त्याग की हवा के झोंके से साफ हो जाता।गुमनामी होकर जीवन के अनेकानेक किरदार निभाए,असफल होने पर चौंकती।हर पल अन्तर्मन झकझोरता,कभी उसका स्वयं का सपनों का महल था,जिसकी एक-एक ईंट ढह गई।नीलवर्ण आसमान के केनवास पर कई चित्र बने-मिटे।हौंसलों के पंख लगा स्वतंत्र पंछी बन जीवन जीना चाहा पर …..पिंजरे की चिड़ियाँ की तरह मर्यादाएं सीमांकित कर दी गई।समाज में क्या,घर पर आने वाले मेहमानों से मिलने के लिए घर में ही सीमित दायरे के दरवाजे में बंद थी।
परिवार वालों के लिए महज एक काम करने वाली और वंश को आगे बढ़ाने वाली के सिवा और कुछ नही थी।जब कभी बन्दिशों,वर्जनाओं,रिवाजों के विरुद्ध उस हवा के विरुद्ध बाज की तरह उड़ान भरना चाही तो पंख काटकर बन्दिशों की सीमाओं में वृद्धि कर दी गई।यद्यपि अन्याय,अनादर,भर्त्सना का स्थान नही था लेकिन इन मूल्यों को जीवन में स्थान देने से उनका आदर करने से और दुखी कर देते।घुप अंधेरे जीवन में समाया सुखद कभी मरहम बन जाता,तो कभी सुखद स्मृतियों को लील जाता।अपनी सिमटती जिंदगी के पलों को मुट्ठी में कैद करना चाहा पर बंद मुट्ठी में रेत की तरह फिसलते चले जाते।इन सब में जो जीवन था,वो था आत्मविश्वास,जो निर्जीव-सी देह में स्फूर्ति भाव जगा जाता तो अपने आपसे कहती,कभी-न-कभी पतझड़ के बाद सावन मेरी जिंदगी में आयेगा।पतझड़ में गिरे पत्तों की जगह नए पत्तों की तरह ही ढकोसले,रीतिरिवाज को गिरना होगा,नया बदलाव आयेगा।ऐसी परिकल्पना करते ही वो सलाखों को तोड़कर,दीवारों को ढहाकर,लक्ष्मण-रेखा को लांघकर आतुर हो उठती एक नई दुनियाँ में जीने के लिए……अवचेतन मन से चेतनावस्था में लौटती तो पाती…. वैयक्तिक स्वतन्त्रता उससे कोसो दूर थी…उसकी जीवन-शैली में कोई वैशिष्टता का रंग-रूप गोचर नही होता था।जीवनपर्यंत वो किसी-न-किसी के बंधन में बंधी एकाकी जीवन व्यतीत करने को मजबूर रही,दूसरों की शर्तों पर जिंदगी काटने लगी…….
बचपन अत्यंत ही समृद्ध व सभ्रांत परिवार में बीता।शहरी परिवेश में पली-बढ़ी वैभवशाली आवास में रहने वाली अपने भाई-बहनों के बीच पांचवेे नंबर पर थी।जन्मोत्सव पर घर-आँगन खुशियाँ छनकने लगी जबकि एक बड़ी बहन और तीन भाई थे।उसके पिताजी ने अपनी दोनों लाङलियों के नामकरण ,बड़ी बहन का लीला बादशाह और उसका मीरा बादशाह रखा।सर्वसुखसुविधाओं में व्यतीत होते जीवन में वक्त की आँधी ने परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा।पिताजी की अकस्मात मृत्यु ने उजास जीवन में घटाटोप अंधकार पसर गया।मीरा की माँ की आँखें पथरा-सी गई।इतना बड़ा दुःख,छोटे-छोटे बच्चे लेकिन मीरा के चाचा ने कभी पिता की कमी महसूस नही होने दी।इतना प्यार दिया पिताजी का प्रतिबिंब उनमें ही झलकता।समझ आने पर रिश्ते समझ आए,गर्वान्वित होती,रिश्तों की ऊष्मता महसूस करी,आखिर इसे ही परिवार कहते हैं जो विपत्ति में स्तम्भ की तरह खड़े रहे…..लेकिन जीवन में एक और त्रासदी हुई।अत्यंत स्नेहिल वातावरण मिलने पर भी लीला बादशाह पिताजी की मृत्यु से उबर नही पाई और साल भर के दरमियान ही हम सब को छोडकर चली गई…..उसकी कमी महसूस होती,सब अपना प्यार मीरा पर उड़ेल कर मन समझा लेते।वो अपने पांच भाईयों की लड़ेती बन गई,बिंदास होकर अपनी मरमर्जी चलाने लगी।कुछ भी इच्छा होती,तुरंत पूरी कर दी जाती।माँ की नाराजगी को एक कान से सुनती और दूसरे से निकाल देती…. अध्यापन कार्य चार-चार स्कूलों में किए जाने पर भी खास प्रगति नही कर पायी पर हस्तकला,पाककला में दक्ष थी।तभी तो जब कभी ससुराल की घर-गृहस्थी की बात बताती कि चूल्हे पर रोटी बनाने से लेकर झाड़ना-पोंछना-धोना करती हैं तो उसकी माँ की आंखे आश्चर्यमिश्रित से फटी रह जाती…..काम करती थी,पर इतना…..पढ़ाई को लेकर कोई छींटा-कसी करता तो स्पष्ट शब्दों में कहती कि कोई जरूरी नही किताबी कीड़ा ही बना जाये…मैं तो हस्तकला कि मास्टर बनूँगी,खुद आत्मनिर्भर बन,स्वाभिमानी जीवनयापन करेंगी।
लड़का-लड़की के नाम पर कभी पाबंदी नही लगाई गई,दिल खोलके जीवन जिया…. अपनी सहेलियों के भाईयों के साथ हो या स्कूल व मोहल्ले के लड़को के साथ खेल-कूद में किसी तरह की कोई पावन्दी।बल्कि मर्यादा में रहकर ,सीखकर सर्वगुणसंपन्न बनी।जब कभी बचपन की यादें अपने पतिदेव या भाई समान देवर के सामने ताजा करती तो वो खिल्ली-सी उड़ाते,पहले तो समझ नही आता,अपनी ही रोह में कहती जाती,वो बात-बात पर पूछते,हाँ,और क्या करती,कहाँ-कहाँ जाती।पर जब उसे समझ आता,एहसास होता तो बहुत दुःख होता।ऐसे ही एकबार अपने स्कूल के दिनों की बातें बच्चों के स्कूल जाते देख कर रही थी कि रोज वो अपनी सहेली के भाई की साइकल पर पीछे बैठकर जब कभी स्कूल से घर या स्कूल जाती थी,और लौटते वक्त बीच में मिलने वाले बगीचे में चुपचाप घुसकर अमरूद चुराते थे,माली की आवाज सुन सायकल से भागते थे।अपनी ही बेबकूफ़ियों पर हँसती जाती।इसपर पतिदेव खिसयानी हंसी हँसते…,फिर धीरे-से रहस्यमयी शब्दों में पूछते कि तुम अकेली बैठकर जाती थी या सहेली भी…..हम तीनों ही।अच्छा!और क्या मस्ती में घूमती थी अपनी सहेली के भाई के संग…….इतना सुनते ही वो समझ गई कि इस तरह की बाते कुछ नही,पर बताना अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारना।कहने को बाल्यावस्था की मौज-मस्ती,पर आदमी का अहं कभी भी स्वीकार नही करता,उसके अंदर की शंका ,तिल का ताड़ बनाने में विलंब नही करती.सरल स्वभाव अंतर्मुखी मीरा को इतना तो समझ आ गया था।खैर……सबके साथ घुलना-मिलना उसका खास व्यक्तित्व था।तदोपरांत उसकी तारीफे करने वालों,चाहने वालों की सूची में वृद्धोत्तरी हो जाती।सरलावस्था सादाजीवन,उच्च विचार से लोगों ने दुआएं बटोरी थी…..
स्वतंत्र जीवन जीने वाली आजाद ख्यालों में पली-बढ़ी मीरा को बाल्यावस्था से यौवनावस्था की दहलीज में कदम रखते हुये विवाह बंधन में बांध दिया गया।एक ही छलांग में एक परिधि से दूसरी परिधि में चली गई,जहां जमीन-आसमान का अंतर था।रूढ़िवादी मान्यताओं के घमासान से घिरे माहौल में जीवन की नाव तैरने लगी जिसका खिवैया कोई और था।यहाँ तक हवाओं का रूख उन्हीं की मनमर्जी से प्रवाहित होती।जब कभी अड़ियल हवा से कोई पत्ता खड़कता तो उसे वही थाम दिया जाता।फिर भी हँसते हुये समझ-बूझ से विभिन्न अटकलों को पार करती गई।ईश्वरीय आस्था लड़खड़ाने लगती,तो एकटक निरीह आँखेँ परेशान हो सोचने लगती,फिर अपने माथे की लकीरों को तहजीव से सहलाती,अपनी ही किस्मत पर उदासीन हो जाती।बचपन में दादी-नानी की बात याद आती,उछलते-कूदते देख नसीहत भरे शब्दों में समझती,बेटा लड़कियों का जीवन कटी पतंग की तरह होवे,जहां अटक गई,वहीं की होकर रह जावे और उनकी डोर मर्दजात के हिस्से में।उस वक्त विस्मित नेत्रों से देखती,पर अब समझ आती…जितना अच्छा करने की सोचती,उतना ही सख्त अनुशासनात्मक माहौल बन जाता।तर्क-वितर्क करना तो दूर की बात किसी से भी अधिकारपूर्ण बात नही कर सकती थी,यहाँ तक कि बड़े होते बच्चो तक से भी नहीं।बंधनमुक्त जीवन जीने वाले उस पर अपने विचारों से बांधने की कोशिश में निरंतर लगे रहते।असहनीय आघात सहते हुये इस हृदयविहीन माहौल में जीना सीख चुकी थी।मन-मस्तिष्क पर सैकड़ों सवाल उठते, ढेर-सारी समस्याएँ सामने खड़ी हो जाती, ऐसे में अपनों का संबल चाहती पर समाधान मिलना तो दूभर,उसे ही अनदेखा कर दिया जाता।अपने विचारों को बंद मुट्ठी में कैद कर कलेजे पर पत्थर रखकर जीती रही।कभी-कभार कोई किसी बात को लेकर तर्क-कुतर्क-वितर्क करती,तो सामने वाला अपनी अनवरत विशिष्ट जीवन-शैली पर भाषण देता तो वो ठगी-सी रह जाती।जब कभी उसमें उदारीकरण व प्रगतिशील विचारों से,आधुनिकीकरण से मन विचलित हो जाता,आखिर थी तो वो इंसान ही…स्वतन्त्रता के लिए इधर-उधर भटकने लगता तो कोई विकल्प नही मिलता,निराश हो अपने आप से पूछती, ‘मैं इतने सारे लोगों के बीच अकेली हूँ,अपनों के बीच रहकर भी कोई अस्तित्व नही,किस तरह जीवन कटेगा,क्या यही जीवन हैं?’सबल-अवलंब की तलाश में भटकती,मानसिक रूप से अपने ही हाथों कमजोर,रूग्ण पड़ती चली गई।विवाहोत्तर जीवन ऐसा ही हो गया था।अंत में आदर्श की प्रति मूर्ति खंड-खंड होकर बिखर गई थी।वैसे भी जब इंसान अपनी ही नजरों में गिर जाये,उसमें आत्महीनता समा जाये,तो जीने की लालसा खत्म हो जाती हैं।जद्दोजहद में मृतप्राय-सा जीवन किसी नर्क लोक से कम नही था।सुना था,जीवन शतरंज का खेल हैं,एक तरह का जुआं होता हैं.कहते हाथ में आए पत्ते चलने के अंदाज से तकदीर की लकीरे बना-बिगाड़ देते हैं लेकिन उसने तो अपने जीवन के पत्तों को हर तरह से डालकर आजमाना चाहा पर वो हार गई अपने जीवन का जुआं।अन्तर्मन कचोटता,बिन पानी की मछली के माफी तड़पड़ाने लगती।स्वतंत्र जीवन के लिए,खुली हवा में श्वास लेने के लिए वो अपने जीवन के वही खाते के खाली पन्नों को कुदृष्टियों से छिपाकर,चंद सुख स्मृतियों को शब्दों के मोती से पिरोकर रंग-बिरंगा टंकित करना चाहती थी।पर अपनी आकांक्षाओं के घरोंदे को लोगों की वितृष्णा से खाली पड़े उपेक्षित कोने में दफन कर दिया।वो सिर्फ इतना ही तो चाहती थी उस कहावत को सिद्धार्थ करने कि खंड-खंड,बिखरे जीवन के पलों रूपी मनकों को पिरोकर लयमयी कविता में ढालकर सृजनकर्ता बनने की चाह भर थी।लेकिन उसकी ये भी हसरत साकार रूप मे परिणत न हो सकी।जीवन को कलाओं की जननी मानने वाली ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था….
अपनी आत्मशक्ति का स्मरण कर,कंटीली राह से निकल प्यार को बेड़ियाँ नही बल्कि आजाद परिंदों के उड़ाने वाले पंख मानकर जीवन-मरण के कठिनतम रहस्यों की थाह पा ली थी।जीवन को आस्था-विश्वास महत्व देकर जीवन को एक रंगमंच के कलाकार की तरह हर भूमिका का ईमानदारी से निर्वहन किया।समझ चुकी थी कि एकतरफा कही भी आगे नही बढ़ा जा सकता हैं।कोई शिकवा नही कोई शिकायत नही,थक चुकी है…..हृदयविहीन,संवेदनहीन बज्र प्रहारों के सहने की शक्ति थम चुकी थी जो ईश्वरीय उपहार था,उसके मानवीय गुणों में……पर….अब चैन की नींद सोना चाहती थी।
उतार-चढ़ाव,गड्डे जैसी रूकावटों वाली एक लंबी सड़क-सा उसका जीवन,जिसमें आस्था-विश्वास की सीढ़ी के सहारे समस्याओं से लड़ने की ताकत मिलती थी,वो मौत के आगोश में समा गई जो ममतामयी माँ ही नहीं पत्नी,बहू,भाभी और ना जाने कितने रूप में मिशाल थी…… !