गीत की आवाज, गीत का मन – ईश्वर करुण :: राहुल शिवाय

गीत की आवाज, गीत का मन- ईश्वर करुण
                                                 – राहुल शिवाय
भारतीय समाज ने अपने हजारों वर्ष गीतों के सहारे ही काटे हैं। गीत, मानव के हास, रुदन, अभिव्यक्ति का प्रथम माध्यम रहा है। लोकगीत, छायावादी गीत, प्रगीत से लेकर नवगीत और जनगीत तक गीत ने कई प्रयोगों को आत्मसात किया है। नई कविता के समान्तर गीत ने भी आज के तकाजों और सरोकारों से खुद को जोड़ा है।
ईश्वर करुण समय की नाइंसाफ़ियों के दामन पर प्रेम और संवेदना के मोती टाँकने वाले ऐसे ही गीतकार हैं। बिम्बों, प्रतीकों और अपनी विशिष्ट शैली से  यथार्थ को लहूलुहान किए बिना ही ईश्वर जी सबकुछ स्पष्ट रूप से कह देते हैं। इनके गीतों में जहाँ समस्या पहचान पाती है वहाँ उसके हल को भी खोजती नजर आती है। यथा-
रो रहा है  क्रौञ्च  किन्तु वाल्मीकि मौन है
किसके आँसुओं की आज चिंता करता कौन है
सर्जना के सँग करें स्वत्व की गवेषणा
वर्जना से मुक्त नयी सूक्तियाँ गढ़ें
आओ मीत गीत की कुछ पंक्तियाँ पढ़ें
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डार हरसिंगार की दे मात झंझावात को
रात की चुनौतियाँ छले न सुप्रभात को
बंजरों में भी वसंत ला सकें गुलमोहर
व्यर्थ नहीं जाये अमलतास की उपासना
शब्द-शब्द की साँस-साँस का इतिहास रचने वाले ईश्वर जी के गीत विविध आयामी हैं। इसकी महीन बुनावट इसे अनंत गहराई प्रदान करती है। विशिष्ट सलीके से अपनी बातों को रखना इनकी ताक़त है। अपने इसी हुनर से ईश्वर जी मुखड़े को प्रभावी बनाते हैं तथा विस्तृत केनवास प्रदान करते हैं। यथा-
पतझड़ का षड़यंत्र फल गया
हिया जुड़ाया काँटों का
मन के ऊपर राज हो गया
निर्वासित सन्नाटों का
ईश्वर जी की रचनाओं में धनात्मकता भरी पड़ी है। जहाँ आज का लेखन विरोध और राजनीतिक हथियार बनता जा रहा है, वहाँ ये आस, विश्वास और कथन की कोमलता को बनाये रखने में विश्वास रखते हैं। सामाजिक सरोकार के गीतकार ईश्वर जी अपनी समर्थ ऊर्जा से मानव मूल्यों, समरस संस्कृति का उन्नयन खोजते हैं। इनकी पक्तियों की बौद्धिक व्यंजनाएँ अनुभूति की आँच में तपी प्रतीत होती हैं। ये अर्थहीन क्रंदन, निरुद्देश्य क्रांति, छद्म वैचारिकता और जड़ प्रगतिशीलता को अस्वीकार करते हैं। ये मानते हैं यदि अन्तस में संस्कृति और सद्-विचार की गंगा प्रवाहित हो तो हर हल संभव है। यथा-
मान भी जाओ, छोड़ भी दो तुम ओढ़े हुए परायापन
अच्छा नहीं कि जेठ के हाथों बेचें हम अपना सावन
मिले प्रीत तो खिल जाता है, तन-मन मूर्ख-चपाटों का।
ईश्वर करुण रूपी गीतकार चिंतन और चिंता के गीतकार हैं। इनके गीतों में वसुंधरा एवं नभ दोनों को बचाने की चिंता है। शाश्वत मूल्यों की प्रतिष्ठा, नैतिकता की पुनर्स्थापना की चेष्टा इनके गीतों को अन्य से भिन्न करती है। इनके गीत लोक सामान्य भावभूमि पर मन-मन का रागात्मक संबंध स्थापित करते हैं जो वास्तविकता में गीत की अन्तश्चेतना भी है। ये जैसे भावों और विचारों को फटककर गीत प्रस्तुत करते हैं, वैसी ही इच्छा समाज से भी रखते हैं। यथा-
शक्ति, आणविक, भक्ति, मानविक,
व्यक्ति-व्यक्ति पावन हो
बच्चा-बच्चा  ध्रुव-नचिकेता,
हर नारी चंदन हो
विदुर- नीति अपनायें,
छोड़ें महाभारती घातें।
थियोडोर आडोर्नो ने कहा है- ‘गीत की पुकार का मर्म वही समझ सकता है जो उसकी आत्मपरकता में अन्तर्निहित मानवीयता की आवाज सुन पाता है।’ ईश्वर करुण के गीतों की पुकार में जो चित्रण है वह उनके आंतरिक चिंतन का प्रतिबिंब ही तो है। ये अपने दायित्वों को भलीभाँति समझते हैं और शायद इसलिए ही विसंगतियों में दबे-फँसे इस समाज को करुण जी मुक्ति की राह दिखाते नजर आते हैं। ये जानते हैं जब घी सीधी उँगली से नहीं निकले तो उँगली टेढ़ी कर लेनी चाहिए। ईश्वर जी कृष्ण की भाँति पार्थ रूपी इस समाज को पहले समझाते हैं और जब समझ नहीं आता है तो सुदर्शन लेकर स्वयं भीष्म की तरफ दौड़ पड़ते हैं। नदियों की बदहाली को खुशहाली में बदलने के प्रयास में समाज को दर्पण दिखाते हुए स्वयं को नदियों का हत्यारा तक कहते हैं और भगीरथ से पूछते हैं-
हम नदियों के हत्यारे हैं
बोल भगीरथ क्या कर लेगा।
संस्कृति और समाज से जुड़े इस व्यक्ति की एक खूबी है कि यह सिर्फ मित्र के मित्र नहीं अपितु मित्र के संपूर्ण परिवार के मित्र हो जाते हैं। इसका कारण कहीं न कहीं इनके मन में बसने वाला कोमल बालक ही है। और यह बालक जब माँ पर लिखे अपने गीत को पढ़ता है तो श्रोताओं की आँखें अपनी-अपनी माँ को ढूँढने लगती हैं।
माँ तुम्हारी रोटियों का
स्वाद अबतक याद है,
तुमसे जो-जो भी हुआ
संवाद अबतक याद है।
जैसा कि हम सब जानते हैं मानव इतिहास के प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद में मानव इतिहास के सर्वप्रथम गीत पाए गए हैं। जहाँ प्रकृति-वर्णन विभिन्न भावों की सूक्ष्म व्यंजनायें, नारी ह्रदय की कोमलता, दुर्बलता, काम-पिपासा, आशा, निराशा, विरह वेदना सभी गीत के रूप में ही अभिव्यक्त हुए हैं। रीतिकाल और छायावादी काल में भी लौकिक प्रेम के पर्याप्त और उच्चस्तरीय गीत प्राप्त होते हैं। और क्यों न हो? आखिर प्रेम जीवन का अविभाज्य / विकल्पहीन अंग है। इस बात को समझने, जानने वाले ईश्वर जी को प्रेम गीतों का राजकुमार कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। शादी की वर्षगाँठ पर एक साथ 25 प्रेमगीत लिखने वाले इस गीतकार के गीत जितने रोमांटिक हैं उतने ही विरह में डूबे और गूढ़अर्थी भी। यथा-
कल मेरा मुख पोंछती थी, ले दुपट्टे का किनारा
आज बेचा आईने के हाथ कल का सच हमारा
क्या भला तुमसे शिकायत, हाँ ये छोटा-सा निवेदन
उस दुपट्टे की सिरा से आईने को पोंछ लेना
फिर कभी सिंगार करना!
अब किसे क्या प्यार करना!
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अटक गयी साँस, आस लटक गयी बाँस पर
मधुवन के आँगन से खुशी गयी खाँस कर
नागफणि छेड़ गयी बूढ़े अमलतास को !
पीले अमलतास को!
अधरों ने अधरों पर, खत लिखा है प्यास को
तन के देवदास को! मन के देवदास को!
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तुमको मेरी जीत की कसम हार जाना तुम मेरे लिए
मैं गुलाब लेके आऊँगा, प्यार लाना तुम मेरे लिए
चाहे पाने की बात हो या, खोने की ये गीतों से अभिव्यक्ति को जोड़ ही देते हैं। तब तो कहते भी हैं-
थोड़ा खोने के लिए, थोड़ा पाने के लिए
गीत लिखता हूँ तुमको सुनाने के लिए।
दक्षिण भारत में भी रहकर इन्होंने  हिन्दी, बज्जिका और मैथिली भाषा को जो गीत दिये हैं उनकी गहराई और विस्तार को कोई समीक्षा नाप नहीं सकती। अंत में यही कहूँगा ईश्वर जी को ईश्वर ने गीत सौंपा है। गीत की आवाज, गीत का मन सौंपा है।
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परिचय : राहुल शिवाय साहित्य की विभिन्न विधाओं में लिखते हैं. ये कविता कोश का संपादन भी कर रहे हैं.
पता : सरस्वती निवास, चट्टी रोड, रतनपुर, बेगूसराय, बिहार-851101
मो. 8295409649/8240297052

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