लोक,समाज और विचारधारा की त्रिवेणी थे बेनीपुरी :: शैलेश सृष्टि

लोक,समाज और विचारधारा की त्रिवेणी थे बेनीपुरी
                                              – शैलेश सृष्टि
“बागमती जब विकराल होती है तो बाघ की तरह डराती है!बागमती नदी नहीं,आदमखोर बाघिन है जो किसी को नहीं छोड़ती!इसके पानी के भंवर में जो फंसा उसे ‘पंडुबा’ जिंदा नहीं छोड़ता!बागमती किसी निर्दयी बाघिन से कम नहीं!”
बचपन में,मेरे बाबा जो बेनीपुरी जी के समवयस्क और मित्र थे,जब बागमती की बाढ़ की तबाही के किस्से सुनाते थे तो बागमती मुझे ‘डायन’ की तरह लगती थी!जब बेनीपुर गया तो बागमती सचमुच ‘डायन’ ही लगी,पता नहीं कितनों को लील गई,कितने छप्पर बहा ले गई,कितनी जमीनों को अपनी धार में खपा गई…!
यह सच है कि नदियों का द्वार बागमती समस्तीपुर,मुजफ्फरपुर,सीतामढ़ी,शिवहर और पूर्वी चंपारण के इलाके में अनंत तबाही की भयंकर दास्तान है जैसे रेणु की कोसी!
मुझे ऐसा लगता है कि अगर कोसी ‘कहर’ है तो बागमती ‘उत्पातिन डायन!’
लेकिन इसी बागमती (स्कन्द पुराण में  ‘वाग्मती’ अर्थात् विद्यादायिनी सरस्वती भी कहा गया है) के किनारे जन्म लेने वाले भारतीय स्वाधीनता संग्राम के बड़े सेनानियों में उल्लेखनीय नाम हैं ‘क्रांति-पुत्र’-रामबृक्ष बेनीपुरी!जिन्हें हिंदी साहित्य में ‘कलम के जादूगर’ नाम से जाना जाता है.
बेनीपुरी ने अपनी मातृभूमि बेनीपुर को एक कविता के माध्यम से सहेजा है.लेकिन,उस बेनीपुर को आज बागमती ने अपने में समा लिया है.अब नया बेनीपुर है,जो बांध के इस पार है.मगर उनकी कविता ‘बेनीपुर’ दिलचस्प है,जिसमें बागमती को याद करते हुए भावुक हो जाते हैं और बागमती की धारा से क्रांति का पाठ पढ़ते हैं जो उनके जीवन का आगे पाथेय बनता है-
“प्यारी मेरी मातृभूमि/मैं तुम्हारा गीत गाऊँगा/तुम्हारे पीपल के पेड़ों ने मुझे ऊंचाई का अनुभव दिया/तुम्हारे खेतों में मैंने सीखा चौड़ाई किसे कहते हैं?
तुम्हारे आकाश के तारों ने मुझे गिनती सिखाई/तुम्हारे फूलों की क्यारियों ने मुझे रंगों की महिमा बताई/तुम्हारे नालों ने बताया गति क्या है?
तुम्हारी बाढ़ ने सिखाया/किस तरह किनारों को उछाला जा सकता है/कगारों को तोड़ा जा सकता है/खड्डों को भरा जा सकता है/और कर दिया जा सकता है/क्षण-भर में ही सारी धरा को/किस तरह जलमय,रसमय,जीवनमय,यौवनमय/
मेरी प्यारी मातृभूमि..!”
साहित्य में वे प्रेमचंद और रेणु की त्रयी में शामिल हैं तो राजनीति में जेपी और लोहिया के साथ खड़े हैं,कोई माने या इंकार करे,बेनीपुरी,एक ओर अपनी प्रगतिशीलता को आंचलिकता की ठसक के साथ साहित्य में स्थापित करते हैं तो दूसरी ओर राजनीति में समाजवाद और गैर-कांग्रेसवाद के प्रणेता और सूत्रधार की भूमिका निभाते हैं!
बेनीपुरी के यहाँ हिंदी गद्य अपने लालित्य और भावप्रवणता में बागमती की कलकल धारा की तरह है.वे हिंदी साहित्य में अपनी लेखनी से भाषा को एक नया अर्थ गौरव देते हैं.इस अर्थ में उनका साहित्य लोक,समाज और विचारधारा की त्रिवेणी है,जिसमें डुबकी मारने के बाद आज भी पाठक को डूब जाना अच्छा लगता है..!
उनके लेखन की यह कलजयिता,बेनीपुरी के सृजन को न कि सिर्फ भारतीय साहित्य में,बल्कि विश्व साहित्य के चोटी के साहित्यकारों में उन्हें विशिष्ट बनाता है.
बेनीपुरी राजनेता बड़े थे या साहित्यकार,पत्रकार,संपादक?
यह सवाल आज भी उनके अवदान को देखते हुए प्रासंगिक लगता है.
वे एक ही साथ किसान,रचनाकार और राजनेता के अद्भुत कुंभ हैं तो दूसरी और पराधीन भारत के बड़े आंदोलनों के कहीं संयोजक तो कहीं गुप्त सूत्रधार!
बेनीपुरी के विपुल व्यक्तित्व की यह विराटता उन्हें असाधारण साबित करता है..!
आज जब मोदी नए भारत की ओर बढ़ रहे हैं तो ‘अगस्त-क्रांति’ के बड़े नायकों में एक ‘बेनीपुरी’ मुझे प्रासंगिक लगते हैं.संसद में कुछ साल पहले ‘अगस्त-क्रांति’ की चर्चा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद मोदी ने बेनीपुरी को याद किया था.बेनीपुरी जैसे महानायक और क्रांतिकारी के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है.वैसे,बेनीपुरी के राष्ट्र-प्रेम और क्रांतिकारी चेतना को जानने समझने की दिशा में यह नई पीढ़ी के लिए प्रेरक और प्रासंगिक जरूर रहा.
बिहार और देश की पत्रकारिता में बेनीपुरी और शिवपूजन सहाय बड़े नाम रहे.आज के पत्रकार,बेनीपुरी को इस रूप में कम ही याद करते हैं!असल में,बेनीपुरी हिंदी में ‘आंचलिक साहित्य’ के जनक भी रहे.’माटी की मूरतें’ जो उन्होंने अपने ननिहाल बंशीपचरा के ग्रामीण परिवेश पर लिखा.जिसको उनके साहित्यिक और राजनीतिक सहचर फणीश्वरनाथ रेणु ने आगे बढ़ाते हुए उनकी आंचलिकता को एक नया आयाम दिया.
एक साधनहीन किसान के घर जन्मे बेनीपुरी,बिना चप्पल-जूते के नंगे पांव गांव-गांव घूमते हुए लोगों को देश की आजादी के लिए प्रेरित करते रहे!
अपने युवा जीवन के आठ साल उन्होंने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए जेल में बीता दिए!
उनकी यह क्रांति साहित्य में भी घटित हुई,जब उन्होंने ‘उदास गंडकी’ पुत्र विद्यापति को बांग्ला से छीनकर हिंदी में स्थापित किया.
एक प्रकार से गंगा और गंडक को बेनीपुरी ने साहित्यिक वागधारा बागमती से जोड़ दिया!उस समय के लिए एक युवा संपादक का यह बड़ा योगदान रहा.
इस क्रम में उनके मित्र दिनकर का नाम लिए बिना,बेनीपुरी की चर्चा असंभव है.दिनकर ने लिखा है,”बेनीपुरी न होते तो दिनकर,दिनकर न होता!
मित्रों के मित्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद की बेनीपुरी से मित्रता भी उस समय लोगों की स्पृहा का विषय रहा.राष्ट्रपति होते हुए अपने बीमार मित्र बेनीपुरी से मिलना राजेन्द्र बाबू नहीं भूले.
बिहार और इस राष्ट्र की अस्मिता के रूप में बेनीपुरी सदैव स्मरणीय बने रहेंगे.अगर वे स्वस्थ रहे होते तो बिहार की गैर-कांग्रेसी सरकार के संभवतः पहले मुख्यमंत्री भी होते.
अंत में राष्ट्रकवि दिनकर को उद्धरित किए बिना यह पुण्य स्मरण अधूरा रह जायेगा जो उन्होंने उनके निधन के समय कहा था-
“रामवृक्ष बेनीपुरी केवल साहित्यकार नहीं थे,उनके भीतर केवल वही आग नहीं थी,जो कलम से निकलकर साहित्य बन जाती है.वे उस आग के भी धनी थे,जो राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों को जन्म देती है,जो परंपराओं को तोड़ती है और मूल्यों पर प्रहार करती है.जो चिंतन को निर्भीक एवं कर्म को तेज बनाती है.बेनीपुरी जी के भीतर बेचैन कवि,बेचैन चिंतक,बेचैन क्रान्तिकारी और निर्भीक योद्धा सभी एक साथ निवास करते थे.”

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