अपनी राह स्वयं बनाता : रथ के धूल भरे पाँव :: नीरज नीर

अपनी राह स्वयं बनाता : रथ के धूल भरे पाँव

  • नीरज नीर

प्रांजल भाषा और शब्दज्ञान के धनी अजित राय की कविताओं से गुजरते हुए यह निःसंदेह ज्ञात होता है कि वे विद्रोह के कवि हैं, लेकिन वे लकीर के फ़क़ीर नहीं हैं . वे पिटी पिटाई लकीरों पर लाठी नहीं मारते बल्कि  अपनी राह स्वयं ही बनाते हैं.

अपनी कविताओं में अजित राय अपनी जमीन स्वयं ही तैयार करते हुए स्पष्ट दृष्टिगत होते हैं.  इसलिए इनकी कविताएं  वर्तमान समय में लिखी जा रही असंख्य कविताओं की भारी  भीड़ में अलग से पहचानी जा सकती है. काल्पनिक एवं वायवीय क्रांति के हवाई किलों की  मुंडेरों पर चढ़कर युद्ध घोष करने की अपेक्षा वे यथार्थ के कठोर एवं वास्तविक धरातल पर अपनी कविताओं के बीज बोते हैं. उनकी परिवर्तनकामी कविताओं में वैसे वर्ग की पीड़ा साफ़ परिलक्षित होती है, जो किसी भी वैचारिक विमर्श की विषय वस्तु नहीं बन पाते लेकिन जिनका दर्द, जिनकी पीड़ा  एक मिल मजदूर से या किसी किसान से कहीं से कम नहीं है. अजित राय के सद्य प्रकाशित कविता संकलन “रथ के धूल भरे पांव” की पहली ही कविता “नरमेध” इस सन्दर्भ में  अपने लक्ष्य का संधान करती हुई दिखती है , जिसमें शिक्षा की दुनिया के वैसे श्रमिकों का दुःख दर्ज हुआ है, जो कहने को तो शिक्षक हैं लेकिन जो एक मामूली मजदूर से भी कम पारिश्रमिक पर काम करने के लिए विवश हैं,  लेकिन वहां से भी सिस्टम के द्वारा अपसारित अभिकेन्द्रीय बल के द्वारा तब अलगाये  जाते हैं, जब वे अपने जीवन के स्वर्णिम वर्ष वहां गँवा चुके होते हैं. इस कविता की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :

‘यूज एण्ड थ्रो’ संस्कृति के पुरस्कर्ता

आक्रमण करते हैं उन ठठरियों पर –

जो जली खिचड़ी खाकर ,

फटा जूता पहने

दौड़ते हैं विद्यालय की ओर रविवार को भी ,

अपनी जुबान सिले

शीत लहर में भी ,

ग्रीष्म के तप्त अंधड़ में भी,

“एक्स्ट्रा पीरियड” पढ़ाने के लिए

४६ किलोमीटर बूढ़ी साइकिल चलाकर

खुद को ‘जलाकर’ ,

जो रोशनी पैदा करते हैं,

वे खुद “अँधेरे” में हैं;

८ वर्ष ९० प्रतिशत रिजल्ट देकर भी …..

किसी भी कविता का केंद्रबिंदु कवि का अनुभव होता है. अपने अंतर्मन की उर्वर भूमि पर कवि जब अपने अनुभव के बीज बोता है तभी मानवता को शीतल छाँव प्रदायी कविता-वृक्ष लहलहा पाते हैं। बिना अनुभव के कविता, सायास वैचारिक वितंडा खड़ा करके रची जाती है. अजित राय अनुभव सिद्ध कवि हैं. वे हिप्पोक्रेसी में विश्वास करने वाले नहीं बल्कि प्रकृति के साथ चलने वाले कवि हैं. उनकी जनपक्षधरता किताबी नहीं बल्कि यथार्थपरक है. अजित राय की कविताओं में जहाँ क्षोभ, क्रोध, विषाद की भावनाएँ प्रबल हैं वहीँ   प्रेम, सौन्दर्य, करुणा, श्रम,  आनंद , ममता की भावनायें भी अत्यंत सूक्ष्म रूप से अभिव्यंजित होती हैं.

अजीत राय अपनी कविताओं में कई जगह आत्मालाप करते दीखते हैं लेकिन यह आत्मालाप सिर्फ उनका नहीं बल्कि समान पीड़ा से गुजर रहे हजारों लाखों लोगों का हैऔर यही तो रचना का सुख है , उसकी सफलता है कि स्वांत सुखाय  रचना बहुजन सुखाय में परिवर्तित हो जाए।

अजित राय की कविताओं में वर्तमान का यथार्थ बड़े स्वाभाविक रूप से मुखर होता है और इसे कवि अपनी विलक्षण पैनी दृष्टि से देखने का प्रयत्न करता हुआ अपने ऑब्जरवेशन को एवं मानव मात्र पर उसके पड़ने वालों प्रभावों का बहुत निष्ठापूर्वक अति सूक्ष्म तरीके से अपनी कविताओं में उपस्थित करता है . अपनी “कालांकित” कविता   में कवि कहता है :

वैश्वीकरण की चमकती टर्मिनोलॉजी में

घुस गया है एक वायरस

बीमार बनाता हुआ विश्व मानवता को .

जीवन और जगत को

देखने की दृष्टि बदल गयी है.

….

अपने काल को पढता हूँ कोरोना लिपि में

…..

सारी चीजों की परछाइयाँ

अपने आयतन में समाहित हो गयी हैं

 

कहते हैं कि वही  कविता सबसे ज्यादा प्रमाणिक मानी जाती है, जिस कविता में कवि की स्वानुभूतियाँ दर्ज होती हैं. अजित राय की कवितायेँ भोगे हुए यथार्थ की कवितायेँ हैं. इस लिहाज से देखें तो अजित राय की कवितायेँ अपने समय का प्रमाणिक दस्तावेज बनकर उभरती हैं. आज से कुछ वर्षों के उपरांत जब अजित राय की कवितायें पढ़ी जाएंगी तो ये कविताएं वर्तमान का यथार्थ बोध प्रामाणिक रूप से दर्ज करने में सक्षम होंगी।

विकास कभी भी एकरेखीय नहीं हो सकता बल्कि विकास एक सम्पूर्णता में देखी  और समझी जानी वाली चीज होनी चाहिए। आज जब विकास का बड़ा हल्ला है. सरकारें विकास के नाम पर बनायी व गिरायी जा रही है. विकास को एक अंधी दौड़ के  आखिरी गोल के रूप में दिखाया जा रहा है, जहाँ पहुंचना ही मानव जीवन का मानो अंतिम लक्ष्य हो. ऐसे में एक कवि के रूप में अजित राय इस  मशीनी विकास की प्रक्रिया में अपना मानवीय दृष्टिकोण लेकर उपस्थित होते हैं.  वे इस अविवेकी विकास के हिमायती नहीं हैं. वे पर्यावरण और सृष्टि के विनाश  की कीमत पर किये जाने वाले विकास के पक्षधर नहीं हैं.

गोरैया गिर गयी अपने घोसले से

सरस गड गए जमीन में,

नारी- अस्मिता को राक्षसी पंजों से

छुड़ाने में कट गए गिद्धों के पंख

……

जैव विनाश की कीमत पर

अंत हीन विकास,

तेज घूमती पृथ्वी से कहीं

गिर न जाएँ हम ..

 

अजित राय किसी स्थापित वाद या किसी विमर्श के प्रति अपना आँखमून्दा समर्पण नहीं दिखाते बल्कि अपने सत्य की स्वयं ही तलाश करते हैं. जहाँ एक ओर वे सरकार की  जनविरोधी नीतियों की मुखालफत करते दिखते हैं,  वहीँ वे व्यर्थ का वितंडा खड़ा करके देश को अस्थिर करने या देश तोड़ने की साजिश रचने वाले के प्रति भी अपने गुस्से का इजहार करते हैं.

हिंदी साहित्य में आजकल ऐसा आम तौर पर देखने को मिलता है कि कवि /लेखक राजनैतिक दलों के द्वारा सेट किये गए एजेंडे के अनुसार काम करते हैं. उनके द्वारा किये गए कॉल पर आन्दोलन करते हैं, प्रदर्शन करते हैं. लेकिन सोचने वाली बात यह है कि कोई लेखक/ कवि,  सत्ता के लिए अनेक तरह के समझौते करने वाले  किसी राजनैतिक दल के एजेंट के रूप में काम कैसे कर सकता है?  जिन राजनैतिक दलों की कोई मर्यादा नहीं हो. जिनका एकमेव घोषित लक्ष्य सत्ता हासिल करना हो. उनके बताये मार्ग पर चलने वाले साहित्य  का भला करने वाले तो नहीं हो सकते.

सत्य कभी भी व्यक्ति के सापेक्ष नहीं हो सकता।  सत्य सीधी लकीर में चलता है , उसमे कभी भी वक्र होने की कोई सम्भावना नहीं होती है. अजित राय अपनी कविताओं में सत्य के साथ खड़े होने का यह जोखिम उठाते हुए नजर आते हैं. किसी व्यक्ति या वाद के साथ खड़े होने के बनिस्पत स्वयं के द्वारा तलाशे गए सत्य के साथ डटकर खड़े होना आज जोखिम का काम भले ही हो सकता है लेकिन काल यह तय करेगा कि ऐसा करने वाले ही सच्चे नायक थे।

अगर अजित राय अपनी कविताओं में   तत्सम शब्दों के भारी प्रयोग के लोभ से बच पाते एवं कुछ कविताओं को छोड़ पाते तो यह संग्रह और भी रोचक व हृदयग्राही बन जाता । अजित राय का यह दूसरा काव्य संकलन है वे कवि के साथ एक प्रबुद्ध आलोचक भी हैं, उन्हें  मेरी हार्दिक शुभकामनाएं

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समीक्षक : नीरज नीर

पुस्तक का नाम : रथ के धूल भरे पाँव

प्रकाशक : बोधि प्रकाशन

मूल्य : 200 रुपये

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