प्रजापति की ग़ज़लें अत्यंत सहजता से वर्तमान के यथार्थ तक ले जाती हैं
– अनिरुद्ध सिन्हा
डॉ कृष्ण कुमार प्रजापति की ग़ज़लें साधारण बोलचाल की आवाज़ के उतार-चढ़ाव में हैं जिनमें काव्यात्मक वस्तु का श्रवण गुण भी शामिल होता है —शब्दों के साथ शब्दों को जोड़ने की छंदोबद्ध क्रिया। समस्वरों,अनुप्रासों आदि की बहुलता अतितृप्ति की अनुभूति देती है। कलात्मक प्रौढ़ता और ताजगी के अतिरिक्त उनमें एक खास तरह का अनुशासन भी है जो ग़ज़ल की बुनियादी शर्तों से निकला हुआ लगता है।
डॉ प्रजापति की ग़ज़लों की मासूमियत बड़े साफ ढंग से उजागर होती है लेकिन धीरे-धीरे यह मासूमियत नोस्टेल्जिक न रहकर,कल्पनाशील होने लगती है। चेतना का आकाश सौंदर्य की खुशबू में तल्लीन हो जाता है। और यह आकाश व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों स्तरों पर भाव और विचार के साथ बढ़ता रहता है। यही शक्तियाँ आदमी की मूल शक्तियाँ हैं जिससे समाज के जीवन की समृद्धि के उपकरणों का संग्रह होता है। सौंदर्यदृष्टि में भी मानव चेतना के ये दोनों तत्व होते हैं। ग़ज़ल के क्षेत्र में व्यक्ति की बुद्धि एवं हृदय का सामंजस्य है। प्रत्येक युग के सत्य ने तब तक पाठकों को ऊर्जस्वित नहीं किया जब तक साहित्य ने उसे सौंदर्यमय अभिव्यक्ति नहीं दी तथा बुद्धि और हृदय के समन्वति धरातल पर पहुंचाने की कोशिश नहीं की। यह काम डॉ कृष्ण कुमार प्रजापति अपनी ग़ज़लों में आसानी से कर जाते हैं। इनके पास लेखकीय सोच है जो लेखन की ज़मीन पर ग़ज़ल और मनोविज्ञान के अंतर्संबंधों को प्रकट करने में सक्षम है।
समकालीन हिन्दी ग़ज़ल आज अपने समूचे सरोकारों के साथ लोक से सम्बद्ध होकर सांस्कृतिक-सामाजिक परिदृश्य में अपनी मजबूती के साथ आगे बढ़ रही है। हिन्दी के चंद ग़ज़लकारों ने इस दिशा में काफी काम किया है। उन चंद ग़ज़लकारों में डॉ कृष्ण कुमार प्रजापति का भी नाम आता है। इनकी ग़ज़लों का भाषिक स्वरूप लोक मुहावरों से लेकर आम बोलचाल की भाषा का है। इसका मुख्य कारण है एक महाआख्यान रचने के बजाय कई छोटे-छोटे प्रसंगों,अक्सर अलक्षित कर दिए जाने वाले प्रसंगों को ये अपना विषय बनाते हैं। इन प्रसंगों में सहजता और सरलता स्वाभाविक रूप से देखी जा सकती है। इस संग्रह की ग़ज़लें इस बात की गवाही देती हैं——-
ज़िन्दगी का हिसाब बाकी है
मर के देना जवाब बाकी है
मैं हूँ बुढ़ा ”कुमार” बाहर से
मेरे अंदर शबाब बाकी है
उपरोक्त शेरों में विचारधारात्मक संघर्ष है। परंपरा और यथार्थ के महत्व को लेकर एक विशेष समझ विकसित होती है। एक ओर जहां साम्राज्यवादी ताक़तें –अपनी क्रूरतापूर्ण मानवविरोधी नीतियों को लागू कराने को मनमाने ढंग से दबाव डाल रही हैं। ऐसे में निराशा और अन्यमनस्कता के स्वर स्वाभाविक हैं। लेकिन वहीं दूसरी ओर उपरोक्त शेर इस विवशता को तोड़ते नज़र आते हैं। आज भी सारी विवशताओं और क्रूरताओं के —आदमी ने न तो हार मानी है और न वह अपने संघर्ष से उपरमित हुआ है। मसलन—-“मैं हूँ बुढ़ा “कुमार”बाहर से/मेरे अंदर शबाब बाकी है”यह “आत्मसंवाद है जिसे ग़ज़लकार ने सहज भाव से स्वीकार किया है। विचार और भाव दोनों सहज और समय -सापेक्ष हैं। यह जरूरी नहीं कि ग़ज़ल को बनावटी अनुप्रासों से सुसज्जित कर असाधारण तुकांतों से भर दिया जाए। डॉ कृष्ण कुमार प्रजापति अपनी ग़ज़लों को इस कलाबाजी से बचाते हुए इन्हें आम जन तक ले जाना चाहते हैं। सफल भी होते हैं। आम जन तक जाने के लिए सौंदर्यात्मक रंगों तथा अलंकारों को जानबूझकर कम चमकीला करते हैं ताकि ग़ज़लों में जीवन के अन्य पक्षों को उभारा जा सके। यह एक जोखिम तो है लेकिन जन भावना के सापेक्ष है। यह जोखिम संग्रह की ग़ज़लों में बार-बार दिखाई पड़ता है।
व्यक्ति-स्वातंत्र्य के इस युग में आज निम्न मध्यमवर्गीय लोगों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। पूंजीवाद मानव-मूल्य के विघटन में आज भी सक्रिय है। भय,घुटन,संत्रास और अभाव में जीता आज भी इसकी मर्ज़ी पर जी रहा है। अतएव,जब तक समानता नहीं आएगी तब तक स्वतन्त्रता का सही परिणाम हमें नहीं मिल पाएगा। प्रस्तुत संग्रह की ग़ज़ल का यह स्वर देखिए—–
तुमने मेरे चमन को बियाबाँ बना दिया
तुम ही बताओ आज कि तुमने क्या दिया
अपने महल की शोभा बढ़ाने के वास्ते
उसने हमारे कच्चे मकां को गिरा दिया
अनेकानेक पहलुओं को संवेद्य शब्द-रचना में पकड़ने और उनमें निहित समवेदनाओं का साक्षात करने का एक और प्रयास को देखा जा सकता है—
यहाँ जो भी किसानी कर रहे हैं
वो अपना खून पानी कर रहे हैं
जो सपने लिख रहे हैं पानियों पर
खराब अपनी जवानी कर रहे हैं
प्रजापति की ग़ज़ल में नैरेशन हैं और नैरेशन में मूर्तिमत्ता तथा इतिहास-बोध है जो उनकी ग़ज़ल को गति देता है। बिम्ब में उलझने के बजाय इनकी ग़ज़ल में जो मूवमेंट है और वह चौंकने के लिए नहीं है,उसमें सभ्यता विमर्श है। मैं मानता हूँ मार्क्सवादी विचारधारा इनकी वैचारिकी के केंद्र में जरूर है,पर वह इनके लिए रूढ़ि नहीं बन पाई इन्हें मार्क्सवाद की सच्ची समझ है संग्रह की ग़ज़लों में जहाँ तहाँ व्यक्त भी होती है लेकिन वर्गीय समाज के अंतर्विरोधों को भी समझने में चूक नहीं करते हैं। उपरोक्त शेरों में लोक संकट और लोक चेतना का उत्स है। लोक जीवन का मूलाधार कृषि है। किसी भी देश की सभ्यता एवंसंस्कृति,धर्म-रीति-रिवाज,कला-साहित्य एवं सामाजिक आकांक्षाओं का सूक्ष्म अवलोकन जीवन और लोकसाहित्य के द्वारा उपलब्ध होता है। दुर्भाग्य से आज जीवन खतरे में है। किसानों को अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा है। मौनसून बार-बार धोखा दे जाता रहा है। किसान स्वाभाविक परिस्थितियों की उम्मीद में अस्वाभाविक होता जा रहा है। यह सोच हमें भविष्य के बारे में सोचने और पहिचानने की क्षमता प्रदान करती है।
सारांश यह कि सामाजिक,राजनैतिकऔर दैनिक जीवन के यथार्थ चित्रों से संग्रह की ग़ज़लें परिपूर्ण हैं जिनमें जीवनाभास अथवा सत्यान्वेषण का आग्रह और जीवन-खंड को उभारने का प्रयास है।
संग्रह में कुछ ऐसे महत्वपूर्ण शेर भी हैं जो बार –बार गुनगुनाने के लिए विवश करते हैं —
अगर हो पेट खाली तो बगावत कौन करता है
गरीबी में यहाँ ऐसी हिमाकत कौन करता है
नुमाइश है खुले तन की,हवस का बोलबाला है
जमाने में यहाँ दिल से,मुहब्बत कौन करता है
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मन का वो तो बुरा नहीं
मैं ही उससे जुड़ा नहीं
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प्यार के राज़ खोलता क्यूँ है
सामने सब के बोलता क्यूँ है
संग्रह की सारी ग़ज़लें इतनी मानवीय और सामाजिक हैं जो मनुष्यता में हमारी आस्था को दृढ़ करती हैं। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है प्रजापति जी का ग़ज़ल-संसार वर्तमान दशा से चिंतित तो है, नाउम्मीद नहीं है। यह कहने में बहुत अच्छा लगता है कि डॉ कृष्ण कुमार प्रजापति बिखरे हुए ग़ज़लकार हैं। इनकी आस्था की धार पैनी है। यथार्थ के भीतर कल्पनाओं की एक स्वप्निल दुनिया है जिसमें प्रेम मुस्कुराता हुआ गीतात्मक संवेदनाओं के साथ है। कल्पना-शक्ति ही इनकी पूंजी है जिसके सहारे अपनी ग़ज़लों में वर्तमान की कथाओं और घटनाओं का काफी सर्जनात्मक प्रयोग करते हैं ।
जीवन की गहरी बौद्धिक समझ के साथ भाषाई तराश और टटकापन,खुलापन,गहरी संवेदना और पाखंडहीनसृजनात्मकता है। इनके ग़ज़ल-संसार को एक सार्थक दिशा देता इनका ही एक शेर —–
सब गुनाहों से बरी हो जाएंगे
लोग जिस दिन आदमी हो जाएंगे
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परिचय : गजलकार व लेखक
गुलज़ार पोखर, मुंगेर (बिहार) -811201
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