1
लगते हैं उनको अपने सितम भी सितम कहां
होती है ज़ालिमों की कभी आँख नम कहाँ..
हर ग़म समेट लेती थी आँचल मे अपने माँ..
अब सूझता नहीं कि रखूँ अपने ग़म कहां..
वो भी इक आदमी है जिसे ये तलाश है..
रख्खूँ मैं जा के औऱ ख़तरनाक बम कहाँ..
वो ख़ौफ़नाक दौर है,सहमी है लेखनी
बदले जो आदमी को मिले वो क़लम कहाँ..
ये ठाठ रहनुमा के ग़रीबोँ के मुल्क मे
कुछ मुल्क की सोचेँ वो,है इतनी शरम कहाँ..
चुनना है साँपनाथ मे औ नागनाथ मे
डसने मे एक दूसरे से कोई कम कहाँ
क़ायम रहे उसूलोँ पे,परवाह की नहीं
दुनिया कहाँ पे पहुँची औ पहुंचे हैं हम कहाँ..
आँसू किसी के पोँछ के मिलता है जो सुकूँ..
देते हैं वो सुकून ये दैरो हरम कहाँ
2
पूरा परिवार, एक कमरे में
कितने संसार एक कमरे में
हो न पाया बड़े से सपनों का
छोटा आकार एक कमरे में
शोरगुल नींद, पढ़ाई टी वी
रोज़ तकरार एक कमरे में
ज़िक्र दादा की उस हवेली का
सैकड़ों बार एक कमरे में
एक घर हर किसी की आँखों में
जिसका विस्तार एक कमरे में
3
जब भी वीरान सा ख़्वाबों का नगर लगता है
कितना दुश्वार ये जीवन का सफ़र लगता है
इक ज़माने में बुरा होगा फरेबी होना
आज के दौर में ये एक हुनर लगता है
कैसा चेहरा ये दिया शहर ने इंसानों को
कोई हमदर्दी भी जतलाये तो डर लगता है
जिसकी हर ईंट जुटाई थी लहू से अपने
कितना बेगाना उसे अपना वो घर लगता है
हम तो हर आंसू को लफ़्ज़ों में बदल देते हैं
बस यही लोगों को ग़ज़लों का हुनर लगता है
यूँ कड़ी धूप में लिपटाया मुझे साये से
माँ के आंचल सा ये अनजान शजर लगता है
4
ख़ूब हसरत से कोई प्यारा सा सपना देखे
फिर भला कैसे उसी सपने को मरता देखे
अपने कट जाने से बढ़कर ये फ़िक्र पेड़ को है
घर परिन्दों का भला कैसे उजड़ता देखे
मुश्किलें अपनी बढ़ा लेता है इंसां यूं भी
अपनी गर्दन पे किसी और का चेहरा देखे
ज़ुल्म ख़ुद आ के मिटाऊंगा,कहा था लेकिन
तू तो आकाश पे बैठा ही तमाशा देखे
बस ये ख़्वाहिश है सियासत की,कि इंसानों को
ज़ात या नस्ल या मज़हब में ही बँटता देखे
छू के देखे तो कोई मेरे वतन की सरहद
और फिर अपनी वो जुर्रत का नतीजा देखे
5
दर्द को आँसुओँ की धार मे डुबोने को
एक काँधा हो,किसी से लिपट के रोने को
जिए तो क्या वो ज़िंदगी को जान भी न सके
जो सारी उम्र मरे सिर्फ चाँदी सोने को
पता हैं हमको सचाई की राह के ख़तरे
बस एक जाँ से ज़ियादा तो क्या है खोने को
जो जग रहा है वही सल्तनत का दुश्मन है
किए हैं उसने सभी इंतज़ाम सोने को
कहो अवाम से व़ो अपनी हैसियत में रहें
मिली है ज़िंदगी उनको तो फ़क़त ढोने को
ज़मीर बेच के अपना मैं कुछ करूं हासिल
मुआफ़ कीजिए ये मुझसे नहीं होने को..
हम तो शायर हैं हमारा तो यही मज़हब है
लिए हैं बीज अमन के दिलों में बोने को
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परिचय : लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, ए 1/ 285 सफदरजंग एनक्लेव
नयी दिल्ली 110029, मो. 9899844933
सामयिक चिंताओं को समेटे बहुत अच्छी ग़ज़लें हैं। सभी ग़ज़लें एक से पढ़कर एक। बधाई लक्ष्मी शंकर वाजपेयी सर को।
अच्छी ग़ज़लें हुई हैं ! मुबारकबाद !!