ख़ास कलम :: सीमा शर्मा मेरठी

ग़ज़ल

  • सीमा शर्मा मेरठी

1

ये जुगनू ,चाँद ,सूरज, रौशनी क्या,

तुम्हारे बिन हमें देंगे ख़ुशी क्या

 

लड़कपन पर हँसी आने लगी अब,

जवाँ होने लगी संजीदगी क्या

 

मिरे सूरज प था बादल का साया,

भला फिर भीगती क्या सूखती क्या

 

सभी को वस्ल की शब ही लुभाए,

किसी को भाती है शब हिज्र की क्या

 

गुल ए अशआर लब से झड़ रहे हैं,

तिरे अहसास की डाली हिली क्या

 

सभी मंज़र बहकने  लग गए हैं,

नज़र उसकी झलक को पी गई क्या

 

थमा मंज़र था वो तस्वीर मानिंद,

मैं अपनी आँख को झकझोरती क्या

 

कभी मेरा कभी मेरी सखी का,

हवा ने थामा दामन इक कभी क्या

 

उड़ा है रंग क्यों चेहरे का  ‘सीमा’

मुसलसल धूप से मुरझा गई क्या

 

2

किरदार में जज़्बात के मक़्तल की तरह तुम,

हो दिल में मिरे दर्द ए मुसलसल की तरह तुम

 

महफ़ूज़ बुरी नज़रों से रखती हैं हमेशा,

आँखों में मेरी रहते हो काजल की तरह तुम

 

तन्हाई में आ जाते हो देने को मेरा साथ,

अहसास में हो बीते हुए पल की तरह तुम

 

पथरीली ज़मीं इश्क़ की हो जाती है आसाँ,

जब फूल बिछा देते हो मख़मल की तरह तुम

 

आँखों में  सफ़ीने की तरह उतरे हो जब से,

ख़ामोश समुंदर में हो हलचल की तरह तुम

 

बेचैन से रहते हो मेरी दीद की ख़ातिर,

क्यों प्यार मुझे करते हो पागल की तरह तुम

 

होती हूँ परेशान सवालों से अगर मैं,

हल करते हो इक लम्हे में गूगल की तरह तुम

 

क्यों ख़ौफ़ मुझे हो किसी रुसवाई का” सीमा”

हमराह मेरे सर पे हो आँचल की तरह तुम

 

 

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