सृजन भ्रम
बुझी-बुझी आँखों
और ऐंठती अँतड़ियों को
जब गटक जाता है
भूख का प्रचंड दानव
तो हमारी बर्फ हो चुकी संवेदना
पिघल-पिघल कर
बिखेरने लगती है
कागज की सुफेद सतह पर
इनकलाबी जुमलों
या कारुणिक हरुफों में
पकी-अधपकी रोटियाँ
भूख की बेकली को
अपने शब्दों में उड़ेलकर
देती है भूख का विकल्प
ऐंठी अँतड़ियों को
इन्द्रधनुष की तरह
सात रंगों में छापकर
आकुल जिह्वा में
भरने के लिए सात व्यंजनों का स्वाद
हम बाँट देते हैं
रोटी का बिम्ब
भूखों के बीच
आखिर कब तक बहलाते रहेंगे
हम दोनों
अपने आपको
लिखना होगा कोई गीत
जितनी बची होती है खुशबू
सूखे फूलों में
और जितनी बची होती है शर्म
उनकी आँखों में
उतने ही पैसे कमाता है
मंगला
सूरज के जगने
और रात की आँख लगने से पहले
मंगला पहुँच जाता है
मालिक की खेत पर
उसे यह आभास भी नहीं होता
कि कब सूरज उसके माथे चढ़ गया
और कितना लहू पसीना बनकर
घुल गया मिट्टी में
और धरती का कितना हिस्सा
पा गया जीवन
उसे तो फिक्र है इस बात की
जल्दी निबटाना है अपना काम
क्योकि कुछ ही देर बाद
जब सूरज जा छिपेगा
दीवान जी की कोठी के पीछे
और उसका आँगन
चुप हो जाएगा अंधेरों की खामोशी में
अँधेरे की अँगड़ाई के साथ ही
मंगला निवृत्त हो गया है काम से
और आसमान में काला रंग फैलने से पहले
लौट आया है घर
गमछे में बाँधे रात का राशन
पत्नी ने जलाया है चूल्हा
और बैठ गई है पकाने चावल
चुल्हें में आँच तेज करते वक्त
फूट पड़ा है उसके गले से कोई गीत
भात बनने की महक हवा में घुलते ही
बढ़ गई है बच्चों की भूख
ब्स, भात पकने का इंतजार है
परन्तु हर रोज नहीं मिलती भात
मालिक देता है कभी-कभी
मजदूरी के बदले
माँ-बहन की गाली
उस दिन नहीं बजता
हांडी और कलछुल का संगीत
और चुल्हा भी
विधवा की सूनी मांग की तरह
उदास दिखता है
तब मंगला की आँखों में
झलकने लगता है
रात का भयावह चेहरा
पर इससे पहले
कि अंधेरा उसकी आँखों से उतरकर
उसकी छातियों में पसर जाए
और आँसू बन जाए बर्फ
हमें लिखना होगा मुक्ति का कोई गीत
मंगला के लिए
आप चुप क्यों हैं ?
रात अपने उम्र के
अंतिम पड़ाव पर है
मैं जुटा हूँ सहेजने में
डायरी के पन्नों को
वैसे ही जैसे कोई बच्चा
सहेजता है खिलौने को
खेलने के बाद
सहसा वर्षों पहले की कविता
मेरे सामने आ जाती है
जिसे लिखा था मैंने
एक गुलाब की कली को
धूप में झुलसते देखकर
वह कविता नहीं थी
सपनीली आँखों वाली
मेरी बेटी थी
जिसकी किलकारियाँ
जब मन्दिर में गूँज जाती
तो आरती हो जाती
और मस्जिद में तो अजान
उसकेे हर्षित स्वर पर
आकाश हँस देता
और पृथ्वी मुसकरा कर
आकाश के सिरहाने बैठ जाती
नाम उसका आप जो चाहे रख लें
मीना सकीना कुछ भी
लेकिन थी मेरी बेटी
एक दिन मेरी बेटी
चली गई
कविता से निकलकर
दिन घोड़ों की तरह सरपट भागता रहा
पर बेटी वापस नहीं आई
वह होती तो
आज मंदिर का गुम्बज नहीं चाहता
मस्जिद की ऊँचाई पार करना
और मस्जिद की मीनारें
नहीं लगाती तिकड़म
गुम्बज तोड़ने का
शायद दोनों चाहते हैं आकाश को छूना
पर आकाश तो घबड़ाकर
दुबक चुका है एक कोने मे
उसे कोई छू सकता है तो मेरी बेटी
मेरी अंगुलियाँ पन्ने पर फिसलती
महसूस करती है अक्षरों को
एक-एक कर सारे अक्षर
अपनी जमीन छोड़ते जाते हैं
और आपस में गड्मड् हो
तब्दील होने लगते है
मानवीय आकृति में
मैं आश्चर्यचकित
निहारता हूँ
साफ-साफ झलकने लगता है
चेहरा मेरी बेटी का
शायद जाग पड़ी है वह
मेरे प्यार भरे स्पर्श से
मैं काँप उठता हूँ
बेटी की आँखें सूजी हुई है
सफेद हो चुके हैं उसके होंठ
शरीर पर पसरे हैं
पुराने जख्मों के निशान
तो ताजा है अभी
नये जख्म भी हरापन लिये
जो सबूत है उसके कैद का
जिसे भोगा है उसने
अबतक आजादी के बाद से
उसके बदन पर छपे
भिन्न-भिन्न चिह्नों के निशान
हस्ताक्षर हैं
अपहरणकत्र्ताओं के
जिसे देखा जाता है चुनाव के वक्त
इवीएम बाॅक्स पर उगे
आकृतियों के रूप में
मैं हैरान हूँ
अपनी बेटी की बेबसी पर
परन्तु आप चुप क्यों हैं ?
मैं स्तब्ध हूँ
आपकी खामोशी पर।
यादें
चीजें तभी तक सुरक्षित रहती है
जब तक हम चाहते हैं
उसे सुरक्षित रखना
पुरानी चिट्ठियाँ
और फोटो के अलबम भी
तभी तक सुरक्षित रहते हैं
जब तक कायम रहती है
उनसे जुड़ी यादें
यादों को हमेशा
संवेदना के मुख्य पृष्ठ पर रखना
नहीं होता है संभव
हमारी सोच की जमीन
जब चाँदनी की फुहारों से नहा
शीतल हो जाती है
तो हम चाहते हैं
पकड़ लेना अपनी मुट्ठियो में
चाँद को
उस वक्त वाकई जरूरी हो जाता है
याद रखना
अपने बैंकों के एकाउंट
और बचत की राशि
हम अपने इच्छाओं को पंख बना
जोड़ देते हैं समय के साथ
बनाए रखने के लिए
अपना अस्तित्व समाज में
हमारी यादें
झरनों के सोते की तरह होती है
जिससे निकली जलधारा
चट्टानों से टकराते हुए
क्रमशः नीचे आती है
टूट कर छोटी-छोटी बूँदों में
हलाँकि हमारे घर में
अभी भी टँगी है
दादाजी की तस्वीर
जिसके पास जला करती है
कभी-कभी धूपबाती
सिद्धान्त
सिद्धान्त अमूमन
बक्से में रखा जाने वाला
कोई किताब होता है
जिसे निकाला जाता है कभी-कभी
दीमकों से बचाने के लिए
यकीनन यह कहा नहीं जा सकता
कि किताबें वहीं रखी जाती है
जहाँ से निकाली गई थी
समय का स्पेस बड़ा घनीभूत होता है
निकालने और रखने के बीच का
हमारी इच्छाओं के पाँव पसारते ही
बक्सा बढ़ा लेता है अपनी चैकसी
रखनें की लिए चीजों को सुरक्षित
हमारी सुविधानुसार
सिद्धान्तो का सही उपयोग करना
वे लोग जानते हैं
जिनके पास बक्से होते हैं
पण्डित जी के जन्तर की तरह
इसे भी बचाना पड़ता है
जीवन-काल के कुछ विशेष क्षणों से
बाजारवाद की चूसनी चूसने
या साम्राज्यवाद की गोद में बैठते वक्त
वह बक्सा ही होता है
जो संभालता है
हमारे सिद्धान्त के मुखौटों को
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परिचय : पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन. काव्य-संग्रह प्रकाशनाधीन
संप्रत्ति : डिप्टी चीफ रिपोर्टर, प्रभात खबर, मुजफ्फरपुर