पृथ्वी-पत्र
तुमने लिखी है पृथ्वी मेरे नाम !
हरियाली उड़ेल दी तुमने
नदी-नद के छोर वशवर्ती मेरे
पत्ते, वृक्ष सहोदर से बढ़े मेरे साथ !
मेरे स्पर्श की उष्णता से
तुम्हारे सुनहले कुन्तल
धूप-गंध से उड़ रहे हैं
मेरी उंगलियों से मिली है
तुम्हारे शरीर को गढ़न
ख्याल की लय-सी
चढ़ती हुई सांस
यह गमगमाती पृथ्वी
मेरी लग रही है
लचक रहे हैं शालवन
तमाल हिन्दोल-सी झूल रही है
तुम्हारी बाहु लता
तुम्हें किसी बांसुरी की तरह
उठाया है मैंने
प्राण को वह जाने दिया है
हवा की तरह
बांट दी है समस्त इंद्रियां
फूल, पर्वत, झरने, धूल को
मुखरित हो जाएगा
मेरा जंगल/मेरा एकांत
इसीलिए खेल लें
चर-अचर साथ-साथ जीभर
तुमने लिखा है पृथ्वी-पत्र
मेरे नाम
वृक्ष अक्षरों की तरह चमक रहे हैं
संबोधनों की तरह छू रही है लताएं
पूर्ण विराम से खड़े हैं
क्षितिज के वन-वैभव
घने अंधकार में भी
जन्म ले रहे हैं फूल
अभी-अभी आंखें खोलते
गदबदे पत्ते
अनुनासिक-सा गूंजता सन्नाटा
तुम्हारे भय-सा फैला जंगल
प्रीति-सी निकल आईं पगडंडियां
हंसी-सी दौड़ती हवा
आह ! कठिन है, पत्र-लेखन बांचना
दु:सह है, शब्दों के आर-पार झांकना
अनुभव
बड़ी सुबह देखा
आकाश में झूलता हुआ
चिड़ियों का पुल
एक उतावला सुख
यहां से वहां बंटता हुआ
पेड़ों के शिखर कंपते हुए
पत्ता-पत्ता अघाया हुआ
सबने मानो/एक दूसरे से कुछ कहा
तभी सहसा
एक छोटे से ओस-कण में
बिम्बित हुआ सूर्य समूचा
यह शीतातप अनुभव
अपूर्व रहा !
वैष्णव सखा
समुद्र को दे दूंगा अपना जल
वायु को सौंप दूंगा प्राण
अग्नि को बांट दूंगा तेज
आकाश को समेट लूंगा भुजा भर
पर मिट्टी में पूरी तरह शेष होकर भी
नष्ट नहीं होऊंगा मैं !
मिट्टी के गर्भ में सुरक्षित हूं मैं
मिट्टी मां है
मुझे बार-बार जन्म देती है
मेरी त्वचा, मेरा रक्त मांजती है
वृक्ष मेरे सहोदर हैं
लताओं से मेरा निकट का नाता है
एक-एक वल्लरी सखी
तमाल-डाल-सी मेरी भुजाएं
हिलती है
तो पूरा वन चंचल हो उठता है
दृष्टि निक्षेप की तरह पत्तियां
झुक जाती हैं
रोमांच की तरह मर्मरित है टहनियां
यह श्यामल अंधकार
मेरा वैष्णव सखा है
मेरे साथ चल रहा है अनवरत
जो मेरा नहीं हुआ कभी
पर पूरी तरह मेरा है सदा !
जब कभी
जब कभी कोई कारीगर
छेनी और हथौड़ा उठाता है
तो मैं चट्टान का एक टुकड़ा बन जाता हूं
जब भी कोई किसान गोड़ता है जमीन
मैं बीज बनकर मिट्टी में समाता हूं
जब कभी कारखानों में
धधकती है आग
मैँ गरम लावा बन उबलता हूं
दरअसल मैं ढूंढ़ता हूं एक सांचा
जो मुझे एक आकार दे
मैं बनूं जरूरतमंदों का सामान
लोगों के घरों में जगह लूं
बच्चों की तुतली आवाजों से
जब भी सन्नाटा टूटे
उनके ढनमन में मैं भी लुढ़क जाऊं
वे मुझे तोड़े, मैं टूट जाऊं
गोद में उठाऊं
तो मुझे लगे मैँ सांस ले रहा हूं
मुझे लगे मेरा भी है कुछ अर्थ
और बिना कुछ बोले भी मैं
उनका साथ दे सकता हूं
वसंत : एक युद्ध ऋतु
सब ओर से कस गई है प्रत्यंचाएं
और आम्रमंजरियों के आघात को झेलने के लिए
फिर से तैयार हो गया है मन !
गतिमान हो गए हैं
दिशाओं में पवन-रथ
उड़ती हुई पराग-धूलि में
सुनाई दे रही है
कलियों के खिलने की चटकताल
चमचमा रहे हैँ तने हुए कुन्द पुष्प
और आरक्त कपोलों से
टकरा गया है कर्णिकार
शिविरों की तरह जमीन में गड़े हैँ वृक्ष
उनकी फुनगियों ने ढूंढ़ लिया है
अपना आसमान
डालियों में सब कहीं
फूट गया है
कोपलों कारक्त निर्झर
पत्थर की दरारों में
हिलने लगे हैं छिपे हुए बीज
फैल गयी है विष कन्या-सी लतर
और मेरे रोम-रोम में
उतर गया है चुम्बन-दंश
धीरे-धीरे
तमाम सूखे हुए डंठलों का राज
खुल रहा है
धीरे-धीरे
मौसम का टूट रहा है तिलिस्म
आह ! ऋतुओं के पीछे-पीछे भागते
ऐयार हो गया है मन !
नटराज
झरो मुझ पर
स्वर्गंगा की धार बनकर
मैं खोल रहा हूं
अपनी चिचिड़ तम जटाएं
तमस के बीच कौंधती
विद्युल्लता की तरह
भला लगता है
सृष्टि-बीज का पहला कंपान
मृत्यु के रौरव संगीत में
पदचाप के तरंगित चक्र पर
चल रहा है ताण्डव का पदक्षेप
मेरे डमरू निनाद पर
आंदोलित हो रहे हैं पर्वत पुंज
समस्त ब्रह्मांड में अटूट चैतन्य का विस्तार
हिल रहे हैँ दिशाओं के व्याघ्रचर्म
मेरी उज्ज्वलवर्णी रंग कलाओं में
खलखला रहा है नीला विष
इस महाहलालहल की उत्त्प्त ज्वाला को
पीते हुए भी मुझे होता रहेगा
सदैव अमृत का स्मरण
यही अमृत पृथ्वी को देगा
एक हरित आवरण
नदियों में बेलौस उत्साह बन बहेगा
फसलों में प्राण बन जाएगा
तृप्ति देगा सकल विश्व को
देगा एक आश्वस्ति-भाव
कि मैं चल रहा हूं तुम्हारे साथ
तुम्हारी ही परछज्ञई बनकर
शैलतनया महाशक्ति का पकड़े
हुए हाथ !
प्रार्थना
मेरे साथ प्रार्थना करो
अंजलि में मेघ-जल उठाकर
धीरे-धीरे सूर्य-पुष्प खिलने दो
पृथ्वी ही नहीं है हमारा घर
अतल पाताल से उठे आकाश तक
हमारे पैरों की धूल उड़ती है
खेतों में बैलों की घंटियां बज रही हैं
टूट रहा है मिट्टी का अहंकार
एक-एक दाना अवतार पुरुष है
यही अन्न है बीज मंत्र
बार-बार इसे गाओ/दुहराओ
मेरे साथ प्रार्थना करो
वृक्षों में फल लगें
लताएं खिलें भरपूर
बेरोकटोक उड़े तितली
मधुमक्खियां फूल-फूल पर ठहरें
चलता रहे सनातन चक्र
हवा इसी तरह नाव को ले चलें
जहां उसे जाना है
सहायक बनें शिखर
इसी तरह बुलावा दें
ऊपर ठौर दें
मेरे साथ प्रार्थना करो
जैसे बच्चे मुस्कराते हैं
किसी बूढ़े के
पोंपले मुंह की तरह
अब खुले हैं
महलों के सब बंद दरवाजे
हर आम आदमी के लिए
आदमियों की उंगलियों को चूमो
ये बड़े करामाती हैं
ये हथौड़ा उठाकर
किले ढाह देते हैं
इन्हीं से गढ़े जाते हैं बर्बर मनुष्य
और इन्हीं में जन्म लेता है लीला-भाव
इन्हीं से बनता है रस-रास
ये उंगलियां जुड़ती हैं
तो सारी सीमाएं टूटती हैं
मेरे साथ प्रार्थना करो
जो सबके भीतर है शब्द
वही बने हमारा छन्द
जो सबके भीतर है भाव
वही बने हमारा भी
समर्पण
प्रभो ! तुम्हें अर्पित करता हूं,
पाद्य, अर्घ आचमन में
छोटे झरने, कुलांचते हरिणों के आलिंगित जोड़े
स्नान-जल में तृप्त नदी प्रसन्न्तोया
मेष शावकों के रोमिल
उष्म स्पर्श-वस्त्र
शस्य फल के प्राणमय
चमकदार अक्षत-कवच
पृथ्वी की बाहुलता के
खिलते माल्य रंग
गंध बोझिल हवा को
पांखुरी पर उठाए पुष्प-दल
फलभार से झुके वृक्ष
मधुस्नाता टहनियों का रोमांचित पत्राच्छादन
मेघों की धूप-गंध
मैँने हाथों उठा लिया है
सूरज का चमत्कार दिया
नैवेद्य में ले लो अखिल माधुर्य लोक
फिर मेरे हाथों ग्रहण करो
अपना ही सुन्दर विश्व दोबारा
इस तरह ले लो मुझे संपूर्ण
कि मेरा हर दुख महान हो जाए
महिमा पा ले मेरा क्षीण कातर स्वर
ताकि आंखों से टपका हुआ एक अश्रु-विन्दु
तुम्हारा क्षीर-सागर बन जाए
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परिचय : डॉ महेंद्र मधुकर वरीय साहित्यकार हैँ. इन्हें देश स्तर पर कई सम्मान मिल चुके हैं. साहित्य की विभिन्न विधाओं में इनकी दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं.