पानी
वह प्यासा बच्चा
दौड़ता हुआ आता है खेल छोड़कर
अँजुरी भर पानी पीता है
इस सार्वजनिक नल से
उसे ओस की तरह पीता है
बारिश की तरह पीता है
जीवन रक्षक की तरह पीता है
आंखें मूंदकर विश्वास करता है
इसे भेजने वाले पर
सोचता भी नहीं इसका उद्गम
सोचता भी नहीं
क्या सचमुच यह पीने लायक है
थोड़ा-सा रुककर
देखता भी नहीं इसके रंग को
करे भी तो क्या करे
इतनी तेज प्यास
और नल की धार भी उतनी ही तेज
कि कुछ सोचने का अवसर ही नहीं
कठपुतली
इस कठपुतली की दुनिया में
एक लड़की ईंट ढोती है
दूसरा लड़का चाय पहुंचाता है
तीसरा पटाखे बनाता है
चौथा रंग पोतता है
अनेक हैं इसमें
आदेश मिलते ही काम करने वाले
कितना सुंदर सामंजस्य इनका
कोई थकता नहीं
न ही दुख प्रकट करता
पसीना तक नहीं बहाता
सिर इनका हमेशा
लटकता रहता है धागों से
जिसे फांसी तो नहीं कह सकते
लेकिन उससे कम भी नहीं
अकेलापन
मेरी खिड़की थोड़ी दूर है
बालकनी सड़क से नजदीक
मैं लोगों को गुजरते देखता हूं
वे मुझे नहीं
मैं सभी की जल्दबाजी देखता हूं
उनकी घबराहट
और आपस की मित्रता भी
पांव ही पांव चेहरे-ही-चेहरे
गाड़ियां और स्कूटर
सभी आगे बढ़ते
अपनी एक-एक झलक दिखाते हुए
यह झलक जैसे नदी का प्रवाह
या असंख्य छाया का एक साथ बढ़ना
मेरी छाया रुकी हुई
नहीं शामिल इनमें
मेरा अकेलापन
ढूंढ़ रहा जैसे अपना कोई साथी
इस भीड़ में
उतना ही मुश्किल
कितना आसान है
सारी दुनिया को
टीवी और मोबाइल पर देख लेना
आसान है थोड़ी देर साथ रहकर
भीड़ को संक्रमित कर देना
आसमान से उड़कर लाखों की हत्या कर देना
आसान है मीलों दूर बैठकर
किसी की भी मृत्यु तय कर देना
कितनी सारी चीजें आसान होती जा रही
एक स्विच ऑन करना काफी
पूरे शहर में जगमगाहट लाने के लिए
एक वाल्व को बंद करना काफी
असंख्य नलों में सप्लाई रोकने के लिए
बहुत आसान है
अदृश्य कीटाणुओं तक को मार देना
उतना ही मुश्किल
एक आत्महत्या करते को बचा लेना
अगर हम लौट आएं
बारिश रोकने के लिए
आसमान जितना ऊॅंचा छाता
कभी नहीं चाहिए
सिर्फ सिर की ऊॅंचाई तक काफी
फिर भी हम समझते कहां
हमेशा आकाश छूना चाहते
यही हमारा शिखर
बार-बार इसी की ओर देखते
मन तक को भी वहां ले जाते हैं
पाने के लिए
चांद-तारे, सब कुछ
भूल जाते हैं कि
हमारे पांवों का आधार है जमीन
जहां संभव है
मिलजुल कर रहना
हर कोई अपना हो सकता है
अगर हम लौट आंए
वापस यहां तक
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परिचय : नरेश अग्रवाल की साहित्य की विभिन्न विधाओं में अब तक आठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.