विशिष्ट कवि : शहंशाह आलम

विशिष्ट कवि : शहंशाह आलम

घाटी के नीचे घाटी

घाटी के नीचे की घाटी के बारे में
सबको पता नहीं है सदियों से

दुर्बल के भीतर रहता है
एक और दुर्बल छिपा हुआ
साधारण के भीतर एक और साधारण

झील के भीतर रहती है एक और झील
चीख़ के भीतर एक और चीख़
बतियाने के भीतर एक और बतियाना
अचरज के भीतर एक और अचरज
सत्य के भीतर एक और सत्य
झूठ के भीतर एक और झूठ
घर के भीतर होता है एक और घर

धारणाओं के भीतर
कई-कई धारणाएँ रहती हैं
रचनारत निरंतर

शोध के अंदर शोध
इतिहास के अंदर इतिहास
विज्ञान के अंदर विज्ञान
गणित के अंदर गणित
भाषा के अंदर भाषा
बीज के अंदर बीज
जल के अंदर जल
नारियल के अंदर नारियल

स्त्री के अंदर होती है
एक और स्त्री अप्रत्याशित
अवसान के निकट एक और अवसान
तस्वीर के अंदर होती है
एक और तस्वीर चौंकाती हुई

आवाज़ के अंदर आवाज़
चुप्पी के अंदर चुप्पी
बिल्ली के अंदर बिल्ली
साँप के अंदर साँप
बाँबी के अंदर बाँबी

द्वार के अंदर द्वार
खिड़की के अंदर खिड़की
तहख़ाने के अंदर तहख़ाना
पक्ष के अंदर पक्ष
विपक्ष के अंदर विपक्ष

फलों को कुतर रहे तोते के अंदर
रहते हैं कई-कई तोते जीवित और समृद्ध
घोड़े के अंदर कई-कई घोड़े रास्तों को लाँघते

अब जाकर लगता है
अधिक झूठा साबित नहीं हुआ
मेरा इस तरह इतना कुछ सोचना
और इतना कुछ पसारे रहना, अब जाकर

यह एक जलाया जा चुका शहर है

यह एक जलाया जा चुका शहर है
जहाँ मुझे क़ैद रखा गया है सबसे छुपाकर
इस ख़ौफ़ से कि मैं उन सबके नाम ज़ाहिर कर दूँगा
जिन लोगों ने एक ज़िंदा शहर को जलाया है
जिस तरह तुम मुर्दों को जलाते हो पवित्रता से

यह वही शहर है अलबेला
जिसमें मेरा भी घर था मिट्टी से बना
मछली पकड़ने वाला जाल था
खूँटी से लटका जिस घर में
और मैं ख़्वाब देखा करता था
कि नदियाँ मछलियों से भरी रहें

यह वही शहर है जहाँ मैंने मुहब्बत की उससे टूटकर

यह वही शहर है जहाँ मैंने दुनिया भर की हुकूमतों के ख़िलाफ़
नज़्में लिखीं शायरी की फिर तुम सबको सुनाया पूरी अदा के साथ

जो शहर-दर-शहर जलाते रहे हैं
फिर बच निकलते रहे हैं
अदालतों में दिए अपने आकाओं के
झूठे बयान की वजह से
पता नहीं तुम्हारे भीतर उन आकाओं का ऐसा करना
ग़ुस्से से नफ़रत से भरता है या नहीं
मगर मेरे भाई, मेरा तो दिल भी जलता है दिमाग़ भी
उनके विरुद्घ जो शहर-दर-शहर जलाते रहे हैं
साथ में मेरी मुहब्बत को मेरी नज़्मों और नग़्मों को भी
फिर बच निकलते रहे हैं हुकूमतों की मदद से हर बार

मैं जो कुछ भी बेचता होऊँ

मैं जो कुछ भी बेचता होऊँ
उनकी तरह भूख नहीं बेचता
न कोई मारक हथियार
न दिलों के बीच के फ़ासले

वे अपनी शान बघारते बेच रहे हैं
मेरा पूरा मुल्क घातक बाज़ार में
बाज़ार में पसारे अपने सामान के साथ

वे मेरा मछली पकड़ने का काँटा
बेच देते हैं चोरों के बीच
जिस तरह उन्होंने मेरे घोड़े बेचे चुराकर
जिस तरह उन्होंने मेरी कश्तियाँ बेचीं

मैंने रेशम बेचे बेहद सस्ते में
ताकि जंगल में तन्हा छोड़ दी गई
लड़की की ज़ख़्मों से भरी देह के लिए
लिबास तैयार किया जा सके आरामदायक

मैंने रोटियाँ बेचीं तरकारी भी स्वाद से भरी
उन औरतों में जिनके हाथ काट लिए गए
जिनके जिस्मों को अय्याशी का घर माना गया

मैं उन्हीं मकामात में रहा जिन मकामात में
घर बनानेवाले लोग रहते आए थे सदियों से

दुश्मन उत्सुक थे जबकि रेशम के कीड़े को मार डालने के लिए
उन लोगों को भी जो घर बनाकर उनके हाथों बेचते नहीं
उन दर्ज़ियों को भी जो औरतों के वास्ते कपड़े सीते थे

सच यही है, मैं जो कुछ भी बेचता होऊँ तुम्हारे शहर में
किसी ज़ालिम हाकिम की तरह डर नहीं बेचता तुम्हारे बीच
जिनसे तुम डरते आए हो अपना सिर झुकाते बाअदब
तुम अपनी मर्ज़ी का नहीं उनकी मर्ज़ी का चुनते आए हो
अपनी ज़िंदगी का हँसना और ज़िंदगी को रोना तक

मैं परिंदे की परवाज़ में हूँ

मैं परिंदे की परवाज़ में हूँ
परिंदे मेरी परवाज़ में हैं शामिल

घर परिंदों का ख़ाली है मेरा भी
दरिया उनका भी ख़ाली है मेरा भी
दरख़्त उनका भी ख़ाली है मेरा भी

अभी परिंदों के दुश्मन
उन पर भारी हैं मेरे दोस्तो
मेरे दुश्मन मुझ पर पूरी तरह

मेरे दुश्मन मेरा घर बेचकर
मुझे मौत देने के लिए
तेज़ हथियार ख़रीदते हैं
दरख़्त बेचकर जाल ख़रीदते हैं
परिंदों को फँसाने के लिए

मैं मारा जाऊँगा उनके हथियार से
परिंदे मारे जाएँगे जाल में फँसकर

यह मेरा नहीं दुश्मनों का बयान है

जबकि वज़ीरे आज़म ने एलान करा रखा है
अब उसके मुल्क में हत्याएँ नहीं हुआ करेंगीं

तुम मुहब्बत काहे से गाती हो

तुम मुहब्बत काहे से गाती हो जानेमन, जबकि
हमारी सुबहें हमारी साँझें अच्छी गुज़र नहीं रहीं
मैं तुम्हारे दिए दरिया से तब भी गीत गा लेती हूँ
तुम मुहब्बत काहे से गाती हो जानेमन, जबकि
तुम्हारा घर अनाज से ख़ाली है और बरतन भी
मैं तुम्हारे दिए नमक से तब भी गीत गा लेती हूँ
तुम मुहब्बत काहे से गाती हो जानेमन, जबकि
तुम्हारा बाप सफ़र से अभी तक लौटकर नहीं आया
मैं तुम्हारे दिए भरोसे से तब भी गीत गा लेती हूँ
तुम मुहब्बत काहे से गाती हो जानेमन, जबकि
तुम्हारा चाँद कोई चुराकर ले भागा है तारे भी
मैं तुम्हारे दिए आसमान से तब भी गीत गा लेती हूँ
तुम मुहब्बत काहे से गाती हो जानेमन, जबकि
तुम्हारी नींद में हाकिम का भेजा दैत्य तुम्हें डराता है
मैं तुम्हारे दिए चाक़ू से तब भी गीत गा लेती हूँ

जिन्हें मैंने देखा था चेन्नई की यात्रा में

जिन्हें मैंने देखा था चेन्नई की यात्रा में
अब मैं उन्हें खोज रहा था कलकत्ते की यात्रा में

जिनसे मैं मिला
जिनसे मैंने बातें कीं
जिनके साथ यात्रा की थकान मिटाई
जिनके चेहरे में
ढूँढ़ लिया किसी अपने का चेहरा
तलाश लिया जिनमें
अपने दिन अपनी रातों की ख़ुशियाँ
उसे मैं कैसे भूल सकता हूँ
जय काली कलकत्ते वाली

कलकत्ते की यात्रा पर निकलने से पहले
पूछ लिया था अपने सेवानिवृत्त चालक पिता से
कि आपने तो ढेरों यात्राएँ की हैं
कइयों बार वहाँ-यहाँ गए-आए हैं
किसी अन्य नगर-महानगर में दिखे चेहरे
किसी अन्य नगर-महानगर में मिले चेहरे
किसी अन्य नगर-महानगर में
अकस्मात् पुन: मिल जाते
तो आप कैसा अनुभव करते
उन पर क्या बीतता

पिता ने कुछ कहने से पूर्व एक ज़ोरदार मुस्कान ली थी
उनकी मृत आँखें जीवित-सी हो उठी थीं फिर से
उत्तर में उन्होंने कहा था :
अल्लाहताला की बड़ी मेहरबानी रही मुझ पर
जो दिल्ली या मुंबई में मिले थे कभी
अगर लखनऊ या पटना में मिल जाते
तो बेहद ख़ुश होते थे
कहते थे :
‘ड्राइवर सा’ब, आपसे यहाँ भी मिलकर
आश्चर्य नहीं हो रहा प्रसन्नता हो रही है’
जबकि मैं तो बस हैरतज़दा उन्हें देखता
और मुँह हिलाता…

मेरी भी बड़ी इच्छा है
किसी ऐसे व्यक्ति से मिलने की
जो कभी चेन्नई की यात्रा में मिला था
और अब वह मुझे कलकत्ते की यात्रा में मिल जाता
और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता
जैसे मेरे पिता से मिलने वाले किया करते
ताकि मैं भी अनुभव करता
कि मेरे ऊपर क्या बीतता है
किसी से पुन: मिल जाने पर

काठमांडू मैं गया कलकत्ता मैं घूमा

सबसे अनूठा प्रेम मैंने किया
सबसे अनोखी इच्छा मैंने की

भय को मैंने भगाया
शत्रुओं को चेतावनी मैंने दी
गहरे मौन को स्वर मैंने दिया
तोतों को मैंने पुकारा
अदृश्य घर को दृश्य मैंने किया

सबसे सुंदर कविता
सबसे सुंदर भाषा
सबसे सुंदर कोलाज
सबसे सुंदर जलकुंड
सबसे सुंदर शरीर
सबसे सुंदर चाक़ू
सबसे सुंदर जादू
मैंने ही तुम्हे दिया

इतिहास की सबसे बड़ी क्रांति मैंने की
दर्शकों के बीच सबसे बढ़िया अभिनय मैंने किया
चुंबन के निशाँ मैंने छोड़े
मृत्यु को जीवन में मैंने बदला
काठमांडू मैं गया
कलकत्ता मैं घूमा

तुम्हारे हठ में मैं रहा
तुम्हारी लय में मैं रहा
भोर के आकाश में मैं रहा
नीले उस शंख में मैं रहा
तुम्हारे जागने-सोने मैं रहा

तुम्हारे प्रेमरंभ में
तुम्हारे जल में
तुम्हारी स्मृतियों में
तुम्हारे शब्दों वाक्यों छंदों में
तुम्हारे देवताओं में मैं रहा

नदियों झीलों में
फुटपाथों चायख़ानों में
स्त्रियों के गीतों में
मैं ही मैं दिखा

पिता का झोला

पिता के झोले में झाँका जब कभी
पवित्रता से तड़प से
सादगी और मासूमियत से
देखा उसमें हरी घास-सी पृथ्वी
पूरी भलमनसाहत से प्रेम में डूबी हुई
एक नए मुहावरे को जन्म दे रही है

कोई जादू कोई कौतुक रहा है
पिता का झोला
अनंतकाल से
पिता और झोले का संबंध यथावत् है
अखंडकाल से

तमाम ऋतुएँ
तमाम आदिम इच्छाएँ
तमाम अद्वितीय भाषाएँ
वसंत की साँझें
कुलाँच मारती चीज़ें
समा जाना चाहती हैं
पिता के झोले में
ग्रहों के फेरे
निर्वासन के झमेले से मुक्त

हम जब चाहें पिता से
अदृश्य और अनाम वस्तुओं की
प्रार्थना कर सकते हैं
दुनिया की किसी भी चीज़ की ख़ातिर
हठ कर सकते हैं

जहाँ-जहाँ पड़े हैं
पाँव पिता के
वहाँ-वहाँ धरती पर
उग आए हैं वृक्ष
पिता-कृपा से

सारे सूफ़ी
सारे संत
ईश्वर हैं तो ईश्वर तक
चखना चाहते हैं
पिता जे जुठाए फल

जबकि समय की दुष्टात्माओं से
लड़ते हुए पिता
तरसते-ललचाते रहे हैं
सुख और सुकून भरे कुछ पल के लिए

पिता ख़ौफ़ज़दा होते रहे हैं
पिता डरते रहे हैं
चैत्र-वैशाख मास में
आश्विन-कार्तिक मास में
हत्यारे को टहलते हुए देखकर

पिता फिर भी
समय को समय की तरह
नदी को नदी की तरह
बचे रहने की दुआएँ करते रहे हैं

नेपथ्य को नेपथ्य की तरह
घर को घर की तरह
बचे रहने के लिए मंगलकामनाएँ करते रहे हैं

अशब्द में शब्द की तरह
बंजर में बीज की तरह
रसोई में अन्न की तरह
मृत्यु में जीवन की तरह
पिता रहते आए हैं घर में

पिता सूर्योदय की प्रतीक्षा में
जीते हैं रात को
रात के बाद कई-कई रात जीते हैं पिता

एक बेहद नई सुबह की उम्मीद में
संभालते हैं खूँटी पर टँगे अपने झोले को
फिर जनकवि की तरह निकलते हैं घर से
हत्यारों बलात्कारियों गंदी आत्माओं
बुरे समयों को भगाने के लिए
काँधे से अपने झोले को लटकाए

सोनाली बेंद्रे

एक
कहाँ से शुरू करूँ कविता
सोनाली बेंद्रे
तुम्हारी मुस्कान से शुरू करूँ
तो मोनालिसा भय खाएगी
तुम्हारी देहयष्टि से शुरू करूँ
तो बेवजह-बेसबब
तमाम की तमाम अभिनेत्रियाँ
और अपने को अभिनेत्री ही
समझने वाली लड़कियाँ
चीख़ने लगेंगी लड़ाकिनों की तरह
गालियों से तर कर देंगी
मुझे

दो
जब से तुम्हें देखा है
नीलम टॉकिज के पोस्टरों में
और शो-कार्डों में
जब से नक़्श तेरा उभरा है
मेरे अंदर
चाहता हूँ तुम्हारे लिए लिखूँ
नहीं-नहीं सोनाली बेंद्रे
गाऊँ, कोई बहुत पुराना फ़िल्मी गीत
अथवा गुनगुनाऊँ
अपनी मनपसंद शायरा का
कोई बेहद मक़बूल शे’र
और ढूँढूँ तुझ में
प्रेमिका का अक्स

सोनाली बेंद्रे
चाहता हूँ
निवेदन बन कर उतरूँ
तुम्हारे भीतर
और माँगने को विवश होऊँ
तुम्हारा कुशलक्षेम

तीन
तुम मिस यूनिवर्स क्यों नहीं हुईं
सोनाली बेंद्रे
कि मैं भी चुरा कर रखता
अपने बुक शेल्फ़ के अंदर
उन्नत नितंब और
अर्द्ध अनावृत्त उरोजयुक्त
तुम्हारी रेयर कोई तस्वीर
या फिर कैनवस पर उकेरता
नज़ाकत भरा तुम्हारा संपूर्ण
और मुंदी-खुली आँखों से
देखता तुम्हारा ही तुम्हारा चेहरा

चार
तुम पर कविता
क्यों लिखना चाहता हूँ
सोनाली बेंद्रे
मेरे लिए यह बिलकुल असंभव जैसा है
लेकिन यह भी संभव नहीं
कि मैं तुम पर कविता न लिखूँ

तुम मेरे सृजन का कारण
क्यों बनती जा रही हो
सोनाली बेंद्रे

पाँच
मेरे घर के आसपास एक लड़की है
सोनाली बेंद्रे
मैं जब कभी अपनी छत पर चढ़ कर
अथवा राह चलते उसे देखता हूँ
लगता है तुम्हें ही देख रहा हूँ

वह जब-जब आती है मेरी आँखों में
तुम्हीं बैठी मिलती हो वहाँ
यह भरम है या सत्य
बोलो, चुप क्यों हो
सोनाली बेंद्रे

छह
सोनाली बेंद्रे
आओ, मेरे ज़ेहन से निकल कर
मेरे सामने आओ
देखो… अकेला पक्षी
उदास उड़ा जाता है

आओ सोनाली बेंद्रे
जिन राहों पर
साथ नहीं चले हम
चल चलें
लेकिन नहीं, रुको
और मुझे बताओ
कि तुम्हारी आँखों में जो झील है
वह इस तरह
ठहरी-ठहरी-सी क्यों है
या फिर
वह झील है या द्वीप
बोलो ना सोनाली बेंद्रे
चुप क्यों हो

तुम्हारे ख़्वाबों का शहर कैसा है

तुम्हारे ख़्वाबों का शहर कैसा है
मेरे ख़्वाबों के शहर में तुम आते हो
काले घोड़े पर बेहद सफ़ेद लिबास में
मेरी मुहब्बत का गीत गाते दिल से

जानेमन, मेरे शहर में कोई गीत नहीं लिखता
न मुहब्बत का सबक़ कोई याद करता है
न कभी कोई इसकी ज़रूरत महसूस करता है

मेरे ख़्वाबों के शहर में तो तुम्हारे लफ़्ज़
किसी परिंदे के मनमाफ़िक उड़ा किए हैं
प्यार यहाँ हर किसी की आदत में शामिल है

जानेमन, तुम ख़्वाब काहे से बुनती हो
तुम्हारी सिखाई सुईकारी से मेरी जान

तुम परिंदों को काहे से बुलाती हो छत पर
तुम्हारे लिखे गीत सुना-सुनाकर मेरी जान

तुम प्यार का सबक़ कैसे याद कर लेती हो
तुम्हारी तस्वीर को देख-देखकर मेरी जान

जानेमन, मेरे शहर में तो मेरे घोड़े के पाँव से
नाल चुराकर भाग जाता शहर का हाकिम
मेरी नाव का लंगर लेकर भाग जाता है

मेरे ख़्वाबों के शहर का हाकिम
तुम्हारे लिखे गीत से बहुत डरता है
इंक़लाब आ जाने से ख़ाएफ़ रहता है

जानेमन, मेरे शहर के लोग हाकिम से जा मिलते हैं
और मेरे गीत की शिकायत कर देते हैं ख़त लिखकर
फिर शहर का हाकिम मुझ पर कई बंदिशें लगा देता है

मगर मुझको मालूम है तुम्हारी फ़ितरत के बारे में
तुम किसी हाकिम की कोई बंदिश कहाँ मानोगे
तुम घोड़े की नाल नाव का लंगर सब छीन लाओगे
शहर के हाकिम के घर घुसकर मेरी जान

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परिचय : ‘गर दादी की कोई ख़बर आए’, ‘अभी शेष है पृथ्वी-राग’, ‘अच्छे दिनों में ऊँटनियों का कोरस’, ‘वितान’, ‘इस समय की पटकथा’ कविता-संग्रह प्रकाशित। पत्रिकाओं के अलावा आकाशवाणी और दूरदर्शन पर भी कविताएँ, बातचीत, विमर्श का प्रसारण
संपर्क : शहंशाह आलम, हुसैन कॉलोनी,  नोहसा बाग़ीचा
नोहसा रोड, पेट्रोल पाइप लेन के नज़दीक, फुलवारीशरीफ़, पटना-801505
मो : 09835417537

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