श्रवण कुमार की तीन कविताएँ
सपने
आज जबकि पॉश इलाके में
रात में ही दिखता है
दिन से बेहतर उजाला
डोमा पोखर मोहल्ले में
जैसे-तैसे रहती
काकी की आँखों में
दिन में ही दिखता है
घुप्प अँधेरा दूर-दूर तक
जॉब कार्ड, मनरेगा
इंदिरा आवास
या जवाहर रोजगार योजना
सरकार की किसी भी योजना से
नहीं सुधर पाई
उनके घर की हालत
बेहतरी का सपना
आखिरकार
टूट-टूट कर बिखर ही गया उस पल
जब मजदूरी करने गए
उनके बेटे की किडनी निकाल ली
कुख्यात गिरोह के डॉक्टर ने
जैसे टूटी हुई माला से गिरकर
फूल की पत्तियां
बिखर जाती हैं बेतरतीब
भीड़ से कुचल जाने के बाद
वैसे ही बिखर गया है
उनका घर
उनकी इच्छाएं
उनके सपने
उनका सबकुछ
बिधनी भाभी
एक अंधेरी- सी कोठरी में रहती
साठ की दिखती
चालीस साल की बिधनी भाभी पर
उस समय टूटा था
दुःख का बड़ा सा पहाड़
जब बीस के वय में ही
उनके पति की बिहारी मजदूर के नाम पर
कर दी गई थी नृशंस हत्या
तब हंगामे के भय से
उधर ही कर दिया गया था
सभी मृतकों का
सामूहिक दाह-संस्कार
इस तरह
असमय विधवा हुई
बिधनी भाभी
कभी नहीं देख पाई
मरणोपरांत अपने पति का मुंह
तब से आज तक
यूं ही नहीं पिचके हैं उनके गाल
यूं ही नही धंसी हैं उनकी आँखें
देखा है उन्होंने
लगभग सभी नेताओं का
कोरा आश्वासन
कागज़ पर संपन्न होती
सरकारी योजनायें
लाल-लाल डोरे तैरती आँखें
और भी बहुत कुछ
देखना पड़ा है उन्हें
इस दुनिया में
यूं ही नहीं सफेद हुए है उनके बाल
हरखी काकी
दम्मा की बीमारी से परेशान
लगातार डलिया बुनती
हरखी काकी को नहीं मालूम
महादलित का मतलब
और न हीं समझ में आती है सरकारी योजनाएं
बजबजाते और दुर्गंध देते
नाले पर बने हुए
मिट्टी के रिसते घर में
कभी नहीं सताता है उन्हें
सांप और बिच्छू का डर
अपनी पारंपरिक कला से
सभी वर्गों में खुशियां बांटती
काकी के जीवन में
आज तक दस्तक नहीं दी
कोई छोटी-सी खुशी भी