(1)
पतझर पर कोंपल
संदेश लिख रहे
माघ-अधर जीवन
उपदेश लिख रहे
डाल-डाल तरुवों पर
सरगम के मधुर बोल
आशा के पंथ नये
मौसम ने दिये खोल
समय फिर पटल पर
‘हैं शेष’ लिख रहे
पीत हुए पत्रों से
गबीत चुके कई माह
समय संग जाग रहा
खुशियों का फिर उछाह
नये स्वप्न अभिनव
परिवेश लिख रहे
युग-युग परिवर्तन है
पंथ अलग,अलग गैल
नवविचार, नवदर्शन
नयी क्रान्ति रही फैल
डाल-डाल सुखद फिर
प्रवेश लिख रहे
(2)
सूरज का मुखड़ा उदास है
निशा काँपती दिन निराश है
अरुणाई पीहर जा बैठी
धूप समंदर बीच समाई
मीनारों पर चढ़ा अंधेरा
धँसी धरा भीतर परछाई
हुआ दिवस संध्या के जैसा
सहमा-सहमा सा प्रकाश है
सर्द हवाएँ निज गुमान में
गुरबत को आँखें दिखलातीं
पात-पात, खिड़की, वातायण
से वह सरसर आतीं-जातीं
कुहरे ने चादर तानी है
बिन कम्बल राही हताश है
बचपन रार करे मौसम से
भागा-दौड़ी करे जवानी
बूढ़ी साँसे काँप-काँप कर
चलती लँगड़ी चाल पुरानी
गीली लकड़ी फूँके पसली
पैर और छाती पास-पास है
(3)
रामदीन का
जीवन जैसे
कर्जे का पर्याय हो गया
गुजरे होते नहीं
पिता जो
रोटी दाल सहज ही चलती
मैट्रिक तक
स्कूल तो जाता
शिक्षा उच्च भले न मिलती
चटनी रोटी
वाला जीवन
बिना दूध की चाय हो गया
बहनों का
इकलौता भाई
हो पाती न बहुत कमाई
रोज बढ़े
बीमारी मांँ की
पर मिल पाती नहीं दवाई
खोज रहा
नित नई नौकरी
बिन खूँटे की गाय हो गया
जब से होश
संँभाला घर में
कर्जा पांँव पसारे बैठा
कितने कितने
जतन किये पर
रहा सदा ऐंठा का ऐंठा
रोज तकादे
सुन -सुन कर मन
भीतर से मृतप्राय हो गया
रामदीन का
जीवन जैसे कर्जे
का पर्याय हो गया
(4)
बंधु ! गांव की ओर न जाना
वर्षों से जो
बसा स्वप्न था
वह अब लगता है बेगाना
देहरी का
आमंत्रण झूठा
रिश्तो से अपनापन रूठा
आँगन का
बोझिल सूनापन
मुँह लटकाए गुमसुम बैठा
चहल-पहल से भरे बरोठों
का यादों में बसा ठिकाना
बंधु! गांँव की ओर न जाना
जहां नहीं अब
नैन बिछाकर
कोई स्वागत करने वाला
माथा चूम
पीठ सहला कर
नहीं बाँह में भरने वाला
पलकों पर
उमड़े बादल का
व्यर्थ वहाँ मतलब समझाना
बंधु!गाँव की ओर न जाना
लहराती पीपल
छाया को
निर-अपराध
नीम तरुवर को
जिसने मृत्युदंड दे डाला
ऐसे निर्मोही
अपनों के
बीच पहुंँच मन नहीं दुखाना
बंधु! गाँव की ओर न जाना
(5)
किये याद ने फिर पगफेरे
आओ प्रिये!बैठ बतियाएँ
खुशियों के वे नन्हे अंकुर
आज बन गये गझिन लताएँ
पुष्प-पुष्प सिरमौर बन गये
तन को घेरें मन हरियाएँ
नेह छुवन की छुईमुई वह
मन-उपवन सौंदर्य बढाएंं
किये याद ने फिर पगफेरे
आओ प्रिये!बैठ बतियाएंँ
गंध चंपई थी सांँसों में
शब्द भीगते मधु-पाँखों में
कोमल भाव बहे जाते थे
लिये हाथ थे ,जब हाथों में
वो चंदन से शान्त भाव को ,
चलो आज, फिर से दोहराएँ
किये याद ने फिर पगफेरे
आओ प्रिये!बैठ बतियाएँ
पोर-पोर में सुघड़ समर्पण
सजल घटाएँ ,मुस्कानों में
बरस-बरस कुछ कह जाती थीं
रस बरसाती थीं ,कानों में
आज उन्हीं यादों की छाया
में बैठें,हम गीत बनाएँ
किये याद ने फिर पगफेरे
आओ प्रिये!बैठ बतियाएँ
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परिचय : डॉ मंजू लता श्रीवास्तव का एक नवगीत-संग्रह व कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुका है
ये सेवानिवृत एसोसिएट प्रोफेसर हैँ. उत्तर प्रदेश हिन्दी साहित्य संस्थान से सम्मानित हो चुकी हैं.
कानपुर, उत्तर प्रदेश
मो. 8840046513