गाँव ढूँढते हो
पहले काटा पेड़ और अब छांँव ढूँढते हो
पागल हो, इस महानगर में गांँव ढूँढते हो
मिलने और मिलाने वाली
रीतों को छोड़ा
चिट्ठी – पत्री वाले सारे
नातों को तोड़ा
अब मगरी पर तुम कौवे की कांँव ढूँढते हो
पागल हो, इस महानगर में गांँव ढूँढते हो
जिसने प्यार दिया उसका
अहसान नहीं माना
चला धूप में साथ, उसी को
खूब दिया ताना
जहाँ पराये लोग, वहाँ अब ठांँव ढूँढते हो
पागल हो, इस महानगर में गाँव ढूँढते हो
पहले दूर किया आँखों से
हीरे- मोती को
वॉट्सएप पर देख रहे अब
पोते- पोती को
सपने में हर दिन नन्हें-से..पांँव ढूँढते हो
पागल हो, इस महानगर में गाँव ढूँढते हो
जितनी थीं अच्छी निशानियाँ
सभी मिटा डालीं
वर्तमान की सावधानियांँ
सब कल पर टालीं
जलते हुए मरुस्थल में जलगांँव ढूँढते हो
पागल हो, इस महानगर में गाँव ढूँढते हो
धरती अपनी, अम्बर अपना
गीत बहुत गाए
सपने में भी क्या इनके तुम
पास कभी आए
इन्हें हराने के अक्सर बस दांँव ढूँढते हो
पागल हो इस महानगर में गांँव ढूँढते हो
बस चुस्कियां हों
बारिशें हों, गर्मियां हों, सर्दियाँ हों
चाय की हर हाल में बस चुस्कियां हों
हाथ में अख़बार हो, तुम सामने हो
तो समझिए हर सुबह अपनी गुलाबी
घूंँट जैसे ही… उतरते हैं गले में
यूँ कहो, बस ठाठ हो जाते नवाबी
काश!पीते वक्त तिरछी कनखियां हों
चाय की हर हाल में बस चुस्कियां हों
मुस्कुराकर हाथ में जब मग पकड़ते
रंग कुछ दिखता अलग ही ताजगी का
आँख में डोरे छिटकते हैं खुशी के
पूछना पड़ता पता….नाराजगी का
हाय! ऐसे में पुरानी चिट्ठियां हों
चाय की हर हाल में बस चुस्कियां हों
भाप में लो, उड़ गईं सब वेदनाएं
और मचलीं जिस्म में अंगड़ाइयां फिर
मन हुआ काग़ज़ उठाएँ, पेन पकड़ें
और, लिख दें आप पर रूबाइयां फिर
साथ में, फिर गीत की कुछ पंक्तियाँ हों
चाय की हर हाल में बस चुस्कियां हों
हाथ में “ट्रे” चाय की जब से दिखी है
चिपचिपा मौसम बिचारा मुश्किलों में
गर्म लपटों की भला परवाह किसको
चाय भीतर तक बसी सबके दिलों में
यार! लम्बी उम्र की ये “पत्तियाँ” हों
चाय की हर हाल में बस चुस्कियांँ हों
प्रेम न छूटा
घरवाले की दारू छूटी, मन भी टूटा
पर पत्नी का मोबाइल से प्रेम न छूटा
चैट-नेट के चक्कर ने सब
खेल बिगाड़ा
सीधा और सरल जीवन अब
तिरछा-आड़ा
समझाने पर गुस्से का बम सिर पर फूटा
पर पत्नी का मोबाइल से प्रेम न छूटा
कपड़ों के संँग वो भी जाता
रोज नहाने
आधी रात हाथ में रहता
फिर सिरहाने
अपना बनकर अपनों को ही इसने लूटा
पर पत्नी का मोबाइल से प्रेम न छूटा
झाड़ू भूली, चौका भूली
बासन भूली
वॉट्सएप में ऐसी उलझी
साजन भूली
गूंगे घर ने छाती पीटी, माथा कूटा
पर पत्नी का मोबाइल से प्रेम न छूटा
दूर- दूर के लोग टिप्पणी
करते मीठी
हर मौसम में तारीफों की
जली अँगीठी
जो करीब थे उनका उखड़ गया है खूंँटा
पर पत्नी का मोबाइल से प्रेम न छूटा
डरा हुआ है तेज हवा से
मन का बरगद
आशंका से काँप रही है
घर की सरहद
हिला हुआ है पत्ता- पत्ता, बूटा- बूटा
पर पत्नी का मोबाइल से प्रेम न छूटा
रूमाल बनने पर उतारू
आप रोने की यहाँ ज़िद पर अड़े हैं
और हम रूमाल बनने पर उतारू
चाँदनी बस रात में खिलती रही है
और सूरज भी निकलता सिर्फ़ दिन में
ज़िंदगी हर पल नहीं है सोन-मछली
वह बदलती रोज रोहू, डाल्फिन में
आप पल-पल बस पलायन पर तुले हैं
हम बनाना चाहते तुमको जुझारू
सिर्फ़ सूखा, सिर्फ़ गीला.. ही नहीं है
रेत है तो दूर तक हरियालियां भी
ओंठ पर केवल नहीं पपड़ी जमी है
प्यास है तो रसभरी कुछ प्यालियां भी
सींग भी तो वो किसी दिन मारती है
ज़िन्दगी केवल नहीं गैया दुधारू
हर चुनौती हार कर हमसे गई है
मुश्किलें साहस हमारा जानती हैं
हौसला हम…. टूटने देते नहीं हैं
आंधियां लोहा हमारा. मानती हैं
मोल कोई भी हमारा आँक लेगा
चीज हरगिज़ तो नहीं हैं हम बजारू
सिर्फ़ गोलाकार ही जीवन नहीं है
पूर्ण खिलकर चाँद भी टेड़ा हुआ है
कौन पैठा हर समय है आगरे का
कौन मथुरा का सदा पेड़ा हुआ है
जानते हैं… दूध के धोये नहीं सब
और हम भी तो नहीं बिल्कुल गँवारू
हम चलेंगे दूर काँधे पर रखो सर
ग़र थके तो पाँव से मेरे चलोगे
हर कदम पर एक छाया साथ होगी
धूप में यदि तितलियों-से तुम जलोगे
फिर दुबारा देश में जीवन्त होंगे
प्रेम के पर्याय ढोला और मारू
देखिये, इतराना आजकल चलन में है. इतराने की कोई अहर्ता नहीं होती. इतराना हर एक का मौलिक अधिकार है. इतराने पर कोई प्रतिबंध भी नहीं लगा सकता. इतराने पर संसद में भी रोक का कानून नहीं बन सकता. हमारा भी ऐसा कोई इरादा नहीं है, बल्कि सोच भी ऐसी नहीं है. मगर मन में उठती शंका-आशंकाओं और जिज्ञासाओं को तो नहीं रोक सकते न? चलिये पढ़िए आज इन्हीं नाज-नखरों पर एक गीत.
…तो क्या करते?
रंग सांँवला,
नखरे इतने,
गोरे होते तो क्या करते?
भीतर की सच्चाई कुछ है
ऊपर लेकिन अलग आवरण
हम जैसा अनपढ़ क्या समझे
उलझी भाषा कठिन व्याकरण
लिखे लिखे-से
तुम पन्ने हो
कोरे होते तो क्या करते?
मजबूती के हर दावे में
तुम ही तो सबसे आगे थे
सच तो ये है हम रस्सी थे
तुम ही बस कच्चे धागे थे
सोच रहा हूँ
तुम रेशम के
डोरे होते तो क्या करते?
दोयम दर्जे की सामग्री
फिर भी भाव तुम्हारा ऊँचा
देख-देख कर औ’ छू-छूकर
लौट गया बाजार समूचा
काश शर्बती
गेहूँ के तुम
बोरे होते तो क्या करते?
चेहरा झुर्रीदार तुम्हारा…….
मगर चाँद को ख़त लिखते हो
क्या दिखने की उम्र तुम्हारी
और आजकल क्या दिखते हो
छोरी होकर
छुरी बने हो
छोरे होते तो क्या करते?
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दिनेश प्रभात , (गीतकार)
सम्पादक – गीत गागर ,भोपाल, मध्य प्रदेश