अंधेरे का इन्द्रधनुष : मुक्तिबोध की कविता
– संजीव जैन
मुक्तिबोध को पढ़ना जैसे अंधेरे में लालटेन के सहारे अकेले बियावान जंगल से गुजरने की प्रक्रिया में पहाड़ों और बावडियों के बीच होकर गुजरने का अनुभव अर्जित करना है। हिन्दी कविता के पाठक और कविता की आलोचना रंगों को देखने की अभ्यस्त है। रंग भी ऐसे जो सहज और सरल एक रेखीय समझ विकसित करते हैं। ‘अनेकता में एकता’ की दृष्टि ने ‘अनेकता’ के सौन्दर्य को अनदेखा ही रहने दिया। ठीक ऐसे ही अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा करने के विजन ने हमें यह स्वीकृत करवा दिया कि ‘अंधकार’ अज्ञान है, अपराधी है, पाप है, और हमें उससे प्रकाश यानी ‘ज्ञान नहीं’ ‘विवेक नहीं’ ज्ञान का भ्रम, उजाले का भ्रम जो आभामंडलों के उजाले को ही प्रकाश या रोशनी मानता है, उसकी ओर यात्रा करनी है। तो इस तरह एक ‘आभामंडल’ को रोशनी मानने का भ्रम पैदा किया गया जिसके चलते हमारी दृष्टि अंधकार को देखने की अभ्यस्त नहीं हो सकी तो उसको जीने की बात बहुत दूर चली जाती है।
मुक्तिबोध ‘अंधेरे का इन्द्रधुनष रचते है’ ‘अंधेरे’ के इतने रंग उनके काव्य में बिखरे हैं कि आश्चर्य होता है कि कैसे और क्यों उनके ‘अंधेरे के इन्द्रधुनष’ को उपेक्षित किया गया? कभी इस बात पर नहीं सोचा गया कि क्यों मुक्तिबोध ने अंधेरे के इतने रंग बिखेरे? अंधकार के विविध बिम्ब रचना उनके काव्य का मूल लक्ष्य दिखाई देता है? हमारी रंगों को और उजाले को देखने की अभ्यस्त आलोचकीय पंरपरा ने इस बात को लगातार उपेक्षित किया। यह हमारी ब्राह्मणवादी आलोचकीय परंपरा की देन है जो ‘तमसो मा ज्योर्तिगमय’ को आदर्श मानती है। उनकी कविताओं को वास्तविक संदर्भों से काटकर आरोपित या पूर्वग्रह युक्त दृष्टिकोण से व्याख्यायित किया गया और धीरे-धीरे उनके वास्तविक संदर्भ गायब होते गए।
इस आलेख में मैंने कोशिश की है कि उनकी लगभग सभी कविताओं से अंधेरे को प्रकाशित करने के उद्धरण पाठकों तक पहुँचा सकूँ और उनके कुछ वास्तविक संदर्भों को स्पष्ट कर सकूं।
मुक्तिबोध को अम तक जिस तरह पढ़ा गया है उसमें आलोचकों ने अपने पूर्वाग्रहों को ही उन पर आरोपित किया है। उनकी कविता में ‘परिवेश की भयावहता’ को उपेक्षित किया गया है और उसके बरक्स ‘फेंन्टेसी’ को स्थापित किया। ‘‘फेंटेंसी एक ऐसी चीज जो उन स्थितियों को जो संभव नहीं है, काल्पनिक गतिविधियों के द्वारा रचती है।’’ इसका अर्थ यह हुआ कि मुक्तिबोध वस्तुगत यथार्थ और अनुभवों के कवि नहीं है, वे उन स्थितियों को चित्रित करते हैं जो संभव नहीं हैं। इस सच्चाई को ‘‘फेन्टेसी’’ शब्द की ‘खूबसूरती’ के मायाजाल में पिरो कर प्रस्तुत किया। इसे हाथों हाथ सराहा गया जबकि यह मुक्तिबोध जैसे यथार्थ के अनुभवों में डूबे व्यक्ति के साथ एक घोखा था। इससे मुक्तिबोध एक ‘फेंटेसी’ के कवि के रूप में चर्चित होकर सीमित हो गये।
‘मुक्तिबोध ज्ञान और संवेदना’ में डॉ. नवल ने मुक्तिबोध की जिस तरह व्याख्या की है वह मुक्तिबोध की कविता का ‘कथ्य’ तो कतई नहीं है, उनकी अपनी और अन्य आलोचकों की ‘मध्यवर्गीय’ सोच को यथावत आरोपित किया गया है। इस एक सोच ने भी मुक्तिबोध को अपने संपूर्ण यथार्थ में पढे़ जाने को बाधित किया। मुक्तिबोध की प्रायः सभी प्रमुख कवितायें ‘परिवेश की भयावहता’ के साथ रची गईं हैं। उनमें वातावरण को जीवंत करने पर जोर अधिक है न कि मध्यवर्ग का चित्रण करना। डॉ. नवल और डॉ. रामविलास जी या अन्य आलोचकों ने एक बार यह मानलिया कि मुतिक्तबोध मध्यवर्ग के प्रतिनिधि कवि हैं अतः उनकी सभी कविताओं में मध्यवर्गीय व्यक्ति की वर्ग चेतना को खोजा जाने लगा। किसी और कवि की इस तरह व्याख्या नहीं की गई जिस तरह मुक्तिबोध को एक वर्ग विशेष से बांध दिया गया। मध्यवर्ग के जीवन और मनुष्य को उनकी कविताओं पर आरोपित करने के लिए उनकी कहानियों, लेखों और उपन्यासों का सहारा लिया गया है। यह भी एक विचित्र किस्म की आलोचना पद्धति है जो मुक्तिबोध के लिए डॉ. नवल और अन्य आलोचकों ने अपनायी है। उनकी कविता को परिवेश से काटकर एक वर्गविशेष की सीमाओं में बांध देना उनको बहुत कमतर करके आंकना है।
इस मध्यवर्गीय पूर्वग्रह ने मुक्तिबोध की कविता में ‘जीवंत और भयावह वातावरण’ और उसके सामाजिक राजनैतिक अंतर्विरोधों को उपेक्षित कर दिया। मैं इस बात को नोट किये जाने के लिये आग्रह करूंगा कि ‘मुक्तिबोध मानवीय गरिमा और गौरव की उपेक्षा को और व्यवस्था और पूँजी की तानाशाही के आतंक को ‘अंधकार के वातावरण’ से रचते हैं।’ इस अंधकार के लिए वे अनेक स्तरी या अनेक पर्तों वाले ‘बिम्बों’ का प्रयोग करते हैं, इन बिम्बों को अंधकार को सूचित करने वाले शब्दों – श्यामल, काला, संवलाया, अंधेरा, नील इत्यादि का प्रयोग करते हैं। मुक्तिबोध की कविता में वातावरण की भयावहता, आतंक का डरावनापन, डरावने बिम्बों की शृंखलायें, उलझन और द्वंद्व को रचने वाले प्रतीक, अंधकार को प्रकाशित करने वाले रंगों का प्रयोग, मध्यवर्ग से उपेक्षित प्राकृतिक परिवेश, स्थल और समय को जिस तरह वे जीवंत करते हैं, वह उनकी मानवीय उपेक्षा के प्रति जाग्रत अन्तरात्मा का सबूत है। पूँजीवादी व्यवस्था ने जिस तरह कुंओं, बावड़ियों, झाड़ियों, जंगलों, गुफाओं, टीलों, घुग्घुओं, पहाड़ों, सर्प और उसके बिलों को उपेक्षित किया है, ठीक उसी तरह उसने मानवीय गरिमा और गौरव को भी उपेक्षित किया है। मुक्तिबोध की कविता इसी मानवीय गरिमा और गौरव की प्रतिष्ठा के लिए उस वातावरण को सृजित करते हैं। इस कवितांश को बहुत गौर से पढ़िये। एक एक शब्द और पंक्ति को, देखिये मुक्तिबोध मानवीय गरिमा के पतन को किस तरह, अंधकार के बिम्बों से चिह्नित करते हैं-
‘‘रात के जहाँपनाह,
इसीलिए आजकल
‘दिन के उजाले’ में भी ‘अँधेरे की साख’ है
इसीलिए संस्कृति के मुख पर
मनुष्यों की अस्थ्यिों की राख है
जमाने के चेहरे पर गरीबों की छातियों की खाक है!!
वाह-वाह!!
पी गया आसमान
अँधियाली सचाइयाँ घोंट के,
मनुष्यों को मारने के खूब हैं टोटके।’’
‘‘चमकता है अँधेरे में
प्रदीप्त द्वन्द्व चेतस् एक
सत् चित् वेदना का फूल।’’
ष्इन सोलह पंक्तियों में तीन बार ‘मनुष्य के मरने की बात’ -मनुष्य की अस्थ्यिाँ, गरीबों की छातियों की राख, और मनुष्यों को मारने – कही है। मानवीय गरिमा के इस घोर पतन से बचाने के लिये यह ‘सत चित् वेदना का फूल’ कहाँ चमक रहा है? अंधेरे में। ‘सत’ ? मनुष्य के अस्तित्व का सार, चित् मानवीय चेतना, उस सार को बनाये रखनेवाली अन्तरात्मा (चित), वेदना – पीड़ा मानवीय गरिमा के घोर पतन से उपजी पीड़ा को महसूस करने वाला फूल। कैसा है वह फूल ‘प्रदीप्त-ज्वलित, आग युक्त; द्वंद्व चेतस् – द्वंद्वात्मक चेतना अर्थात विवेक से युक्त है। इसकी तुलना निराला की ‘केवल जलती मशाल’ से नहीं करनी चाहिये। ‘केवल जलती मशाल में द्वंद्वात्मकता नहीं है, बस एक उम्मीद की सूचक है वह मशाल। इस कविता में अंधकार ही वह परिवेश है जहाँ सत्य चिदात्मक रूप से अनुभूत होता है। यह सत् चित वेदना क्या सिर्फ मध्यवर्ग की है? उनकी कविताओं में शोषित पीड़ित, उपेक्षित मानवता के कराहने की आवाज हैं, बुद्धिजीवी बुर्जआ वर्ग जो उनकी समीक्षा कर रहा है, वह इसे जानबूझकर नहीं उभारता।
उनके समय दुनिया की आम जनता जिस ‘भयावह आतंक’ के वातावरण में जी रही थी, उसे देखने और समझने का साहस इस बुद्धिजीवी बुर्जवा वर्ग में नहीं है। सुविधाजीवी बुर्जवा वर्ग मुक्तिबोध को अपने खेमे से अलग भी नहीं करना चाहता इसलिए उनकी व्याख्या अपने हितों के अनुरूप करके उनकी धार को कुंद कर रहा है। जिस तरह ब्राह्मणवादी आलोचकीय परंपरा ने कबीर की धार को उन्हें वैदिक परंपरा में पधरा कर कुंद करने का प्रयास किया था ( हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्यामसुंदर दास और उनकी संपूर्ण परंपरा) जिसकी समकालीन कड़ी डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक है। उसी तरह मुक्तिबोध की वैचारिक धार को उनके वातावरण की भयावहता के खतरों से परिचित बुद्धिजीवी बुर्जवा वर्ग निरंतर उन्हें मध्यवर्ग तक रिड्यूस करता रहा है। आवश्यकता है मुक्तिबोध को फिर से पढ़ने की तमाम आलोचना को ताक पर रखकर।
हम उनकी प्रसिद्ध कविता ‘ब्रह्मराक्षस’ को इस तरह भी पढ़ सकते हैं। ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता को पढ़ना जितना कठिन है उससे अधिक कठिन है उसकी अब तक की गई व्याख्याओं को पढ़कर उसे समझना। ब्रह्मराक्षस मुक्तिबोध की महत्वपूर्ण कविता इसीलिए है, क्योंकि इसमें ‘मोनालिसा’ की तरह की मुस्कान है जिसको पूरी तरह समझना अभी संभव नहीं हुआ। इस कविता में नायक के अनुरूप जिस वातावरण को रचा गया है वह इसको समझने में कठिनाई पैदा करता है। इस परिवेश के कारण ही ‘ब्रह्मराक्षस’ शब्द को अलग अलग अर्थों में समझा गया। डॉ. हरिचरण शर्मा ने इसे ‘मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी की चेतना माना है – ‘‘ब्रह्मराक्षस एक प्रतीक है-बौद्धिक चेतना का अथवा मध्यवर्गीय व्यक्ति की बौद्धिक चेतना का। इसी चेतना के कारण व्यक्ति मुक्ति के लिए छटपटाता रहता है।’’ नन्दकशोर नवल ने इसे ‘ब्रह्मपिशाच’ अर्थात् प्रेत योनि में गया हुआ बुद्धिजीवी माना है। उनका कथन है ‘‘जैसा कि कविता के शीर्षक से स्पष्ट है, इसका विषय एक ‘ब्रह्मराक्षस’ है। ‘ब्रह्मराक्षस’ का मतलब है ‘ब्रह्मपिशाच’। शास्त्र के अनुसार वह ‘ब्राह्मण, जो मनुष्ययोनि में पापकर्म करता है, मरने पर प्रेतयोनि पाता है और ‘ब्रह्मराक्षस’ या ‘ब्रह्मपिशाच बन जाता है। इस कविता में ‘ब्रह्मराक्षस’ का पाप यह था कि वह कर्म से विरत रहकर अपने विचार और कार्य में सामंजस्य स्थापित करना चाहता था। यह उसके मनुष्य योनि में होने के समय की बात है। स्वभावतः वह मरने के बाद मोक्षलाभ करने के बदले एक प्रेत हो गया।’’ डॉ. नवल ने इस कविता की पूरी व्याख्या इसी मान्यता के आधार पर की है जो मुक्तिबोध की कविता को अलग दिशा में ले जाती है।
श्रीकांत वर्मा की टिप्पणी है कि ‘‘मुक्तिबोध स्वयं ही ‘ब्रह्मराक्षस’ थे और स्वयं ही ‘ब्रह्मराक्षस’ के शिष्य भी थे। एक ज्ञान पिपासु की तरह मुक्तिबोध भी ज्ञान का अर्जन कर उसे समग्रता में दूसरे तक समर्पित करने के लिए लालयित रहे।’’
कुबेरनाथ राय ने इस कविता पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि ’‘ब्रह्मराक्षस’ अतीत की बौद्धिक चेतना है, ‘ब्रह्मराक्षस’ मुक्तिबोध का भोक्ता ’स्व’ है जो अचेतन के या अवचेतन के ’केऑस’ में कैद है और उसकी मुक्ति से उसी की बलि प्रक्रिया के मध्य उसके सजल उर सर्जक ’स्व’ का जन्म होता है। बावड़ी और कुछ नहीं निरन्तर वर्तमान समूह-मन’ या इतिहास-मन’ ही है।’’
मुक्तिबोध न तो प्रेत योनि के कवि हैं और न मध्ययुगीन चेतना के। वे वर्तमान जीवन और उसकी विसंगतियों की संवेदनात्मक चेतना के कवि हैं। ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता को इसी वर्तमान के संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए। यद्यपि हर पाठक और आलोचक अपना अर्थ करने के लिए स्वतंत्र है और यह स्वतंत्रता मुक्तिबोध की कविताओं में अन्तर्निहित है। मुक्तिबोध जिस भाषा और परिवेश में कविता रचते हैं, वह कई संदर्भों और अर्थों की ओर ले जाती है। इस कविता का परिवेश जिस डरावने और भयावह प्रतीकों और संकेतों से रचा गया है, वे प्रतीक कविता को प्रेतयोनि तक ले जा सकने की संभावना रखते हैं। लेकिन मुक्तिबोध ने उस वातावरण को ‘परित्यक्त’ शब्द से संकेतित किया है – शहर के उस ओर खँडहर की तरफ/परित्यक्त सूनी बावड़ी/लटकते घुग्घुओं के घोंसले/परित्यक्त, भूरे, गोल।’ यह परित्यक्त शब्द ‘ब्रह्मराक्षस’ को ठेठ वर्तमान का सिद्ध कर रहा है। वह वर्तमान मे है पर उपेक्षित है। मुक्तिबोध के जीवन में उपेक्षा का क्या अर्थ था यह मुक्तिबोध को जानने वाले बहुत अच्छे से जानते हैं। उन्हें साहित्यिक समाज और राजनीतिक समाज द्वारा कभी जीते जी सम्मान या गौरव नहीं मिला। यह परित्यक्त विशेषण बावड़ी और धोंसलों के लिए प्रयुक्त हुआ है। बावड़ी परित्यक्त इसलिए है कि उसके पानी का उपयोग लोगों ने बंद कर दिया है और धुग्घुओं ने अपने घोंसलों में रहना छोड़ दिया है इसलिए ये परित्यक्त हैं। मुक्तिबोध के जीवन में इस ‘परित्यक्त’ होने की टीस बहुत गहरी थी। परित्यक्त पद ने पूरे वातावरण को जिस निर्जनता, उपेक्षा, अपमान और संवेदन शून्यता से भर दिया है, वह तत्कालीन समाजिक परिवेश में मुक्तिबोध जैसे बुद्धिजीवी के जीवन का अनुभूत सत्य था। इसमें ‘ठंडे अंधेरे’ अंधकार का पहला रंग है। अंधकार के साथ ठंडा विशेषण भी गौर करने लायक है। यद्यपि अंधकार अक्सर ठंडा ही होता है तथापि ‘ठंडे अंधेरे’ में बहुवचनात्मक ध्वनि प्रतिध्वनित होती दिख रही है जो अंधेरे के प्रयोग की गहरी व्यंजना को सूचित कर रहा है। दूसरा ‘पुराने घिरे पानी’ पर भी ध्यान दीजिये। घिरा हुआ पानी सड़ने लगता है। ‘पुराने’ से पानी का अर्थ परंपरागत रूके हुये ज्ञान का बिम्ब बन रहा है। यद्यपि आगे मैंने इसे जीवन का प्रतीक मानकर व्याख्या की है।
‘‘शहर के उस ओर खंडहर की तरफ
परित्यक्त सूनी बावड़ी
के भीतर
‘ठण्डे अँधेरे’ में
बसी गहराइयाँ जल की…
सीढ़ियाँ डूबीं अनेकों
उस ‘पुराने घिरे पानी’ में….
समझ में आ न सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो।
बावड़ी को घेर
डालें खूब ‘उलझी’ हैं,
खडे़ हैं मौन औदुम्बर।
व शाखों पर
‘लटकते घुग्घुओं के घोंसले’
परित्यक्त, भूरे, गोल।’’
कविता के इस प्रारंभिक वातावरण को ध्यान से पढ़ा जाये तो कविता के संदर्भ की परतें खुलने लगती हैं। ‘परित्यक्त बावड़ी’ पहले कभी जीवन के होने का बोध देती है। उसका उपयोग होता था उसके जल से लोगों की प्यास बुझती थी और वहाँ के घोंसलों में घुग्घू भी रहते थे। सीधा सा अर्थ है कि वर्तमान व्यवस्था ने बहुत सी उपयोगी वस्तुओं को उपेक्षित कर दिया है और उनमें जीवन का संचार निस्तब्ध हो गया है। अंधेरे के भी कई सेड्स होते हैं और अंधेरे का इन्द्रधनुष देखना हो तो मुक्तिबोध की कविताओं में देखा जा सकता है, देखिए ‘‘ठण्डे’’ अँधेरे में/बसी गहराइयाँ जल की…’’ अंधेर का एक नया रंग ‘‘ठण्डापन’’। इस ठण्डे अंधेरे में जल की गहराइयाँ बसी हैं। जल जीवन का प्रतीक है। भले ही वर्तमान के द्वारा इस पुराने घिरे अर्थात् सीमित ‘पानी’ को उपेक्षित किया जा रहा हो पर उसमें जीवन की संवेदनायें और सच्चाइयाँ बसी हैं। जिन्हें उपेक्षित करना वर्तमान को महंगा पढ़ सकता है। ‘गहराइयाँ जल की’ पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। जल का गहरापन कथ्य नहीं हैं यहाँ – जल जिस जीवन की अनिर्वायता का प्रतीक है उसकी गहराइयाँ – विविधतायें और विसंगतियाँ, विडम्बनायें और अन्तर्विरोध सब कथ्य हैं। मुक्तिबोध प्रारंभ में ही कह गए कि बात तो गहरी है पर लोगों को समझ आयेगी इस पर संदेह है।
इस कविता के केन्द्र में ‘परित्यक्त’ बावड़ी और घोंसले हैं, जो जीवन के प्रतीक थे, अब उपेक्षित और छोड़ दिये गये हैं, न कि ‘ब्रह्मराक्षस’ है। बावड़ी कवि की गहरी संवेदना और जीवनचेतना की प्रतीक है इसलिए इसके केन्द्र में कवि का उपेक्षित होना और महत्व न पाना है। कविता के अन्त की पंक्तियाँ देखिए – जिसमें ‘कंटीले तम-विवर’ का संकेत है। यह वह जगह है जहाँ ‘ब्रह्मराक्षस’ मरे पक्षी सा मर ही गया है। इसमें ‘तम’ अंधकार कंटीला हो गया और एक विवर पतली गहरा गड्डा के रूप जो जीवन के स्थिगित होने की स्थिति है –
‘‘औ’ मर गया………
वह ‘सघन झाड़ी’ के ‘कँटीले
(आरंभ की उलझी ड़ालें अब सघन भी हो गई है।)
तम-विवर’ में
मरे पक्षी-सा
बिदा ही हो गया
वह ज्योति अनजानी सदा को सो गयी
यह क्यों हुआ!
क्यों यह हुआ!!’’
ब्रह्मराक्षस का इस तरह मरे पक्षी सा मर जाना और विदा हो जाना, अनजानी ज्योति का चुपचाप सो जाना क्यों हुआ? मुक्तिबोध के लिए आश्चर्यजनक था। यहाँ भी अंधेंरे के इन्द्रधुनष का एक अलग रंग है ‘तम-विवर’ अंधकार से युक्त वह जगह जहाँ कोई सामन्यतया जाता आता नहीं है। यह भी घोर उपेक्षा का ही एक रंग है। इस संदर्भ में आप निराला के जीवन की झांकी भी देख सकते हैं। एक कमरे में शून्य को ताकते हुए वे घंटों खड़े रहते थे। समाज और साहित्यकारों से उपेक्षित। यह उपेक्षा और गौरवहीनता का बोध मुक्तिबोध में अंधेरे के इन्द्रधनुष के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। ब्रह्मराक्षस को ‘ज्योति अनजानी’ कहा है। एक ऐसी ज्योति जिसे युग ने जानबूझ कर उपेक्षित किया या जिसे जानने का प्रयास ही नहीं किया। इस ‘अनजानी ज्योति’ विशेषण को उस समय याद कीजिए जब सूर्य और चांदनी की किरणों के पढ़ने पर ब्रह्मराक्षस समझता है कि सूर्य ने उसे नमस्कार किया, चांदनी ने उसे ज्ञान गुरु स्वीकार कर लिया और नभ ने भी उसकी महत्ता को स्वीकार कर लिया है। यहाँ ज्योति के बरक्स ‘प्रकाश’ को रखा गया है। ब्रह्मराक्षस में अंधेरे और उजाले के दो अलग पाट नहीं है जिसके बीच वह पिस गया। यहाँ आंतरिक ज्योति और बाहरी प्रकाश का द्वंद्व है। बावड़ी और अंधेरे जल के प्रतीकों से हमें यह नहीं समझना चाहिए कि मुक्तिबोध अंधकार और प्रकाश के द्वंद्व से कविता रचते हैं। उनमें अंधकार ही आंतरिक ज्योति के रूप में प्रतीकित हुआ है। इस कविता की निम्नलिखित पंक्तियों को ब्रह्मराक्षस के अहं के रूप में विवेचित किया जाता है –
किन्तु, गहरी बावड़ी
की भीतरी दीवार पर
तिरछी गिरी रवि-रश्मि
के उड़ते हुए परमाणु, जब
तल तक पहुँचते हैं कभी
तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने
झुककर ‘नमस्ते’ कर दिया।
पथ भूलकर जब चाँदनी
की किरन टकराये
कहीं दीवार पर,
तब ब्रह्मराक्षस समझता है
वन्दना की चाँदनी ने
ज्ञान गुरु माना उसे।
अति – प्रफुल्लित कण्टकित तन मन वही
करता रहा अनुभव कि नभ ने भी
विनत हो मान ली है श्रेष्ठता उसकी!!
सूर्य की किरणें आने पर ब्रह्मराक्षस को लगता है कि सूर्य ने झुककर नमस्ते किया है, चाँदनी ने उसकी वंदना की और उसे ज्ञान गुरु माना और नभ ने भी विनत होकर उसकी श्रेष्ठता स्वीकार कर ली। इन तीनों को प्रारंभिक ‘परित्यक्त’ पद के संदर्भ में पढ़ा जाये तो संदर्भ स्पष्ट हो जाता है। जब समाज और मानवीय परिवेश द्वारा एक ऐसा कवि जो उनके लिए ही संघर्षरत हो, उपेक्षित होता है तो वह सुनसान और उपेक्षित जगह में क्या महसूस करेगा? यह बोध उसकी उपेक्षा को और गहरा कर देता है। दरअसल ये एक व्यंग्य है समाज और परिवेश पर कि जब ये अपने बीच के बुद्धिजीवियों कवियों और मानवीय दायित्व को वहन करे वालों को उपेक्षित करेगें तो इस उपेक्षा की पीड़ा को वह कैसे सहन करेगा? सूर्य का नमस्कार, चांदनी द्वारा वंदना करना और नभ के द्वारा श्रेष्ठता मानने का बोध यही है कि तुम भले ही मेरी उपेक्षा करो प्रकृति के प्रकाश और विशालता के शाश्वत प्रतीक तो मेरा महत्व स्वीकार कर रहे हैं। यह ‘अहं’ नहीं है आत्म सम्मान और उपेक्षा के बीच के द्वंद्व को सहन करने की तकनीक है। अहं के लिये दूसरे का होना आवश्यक है, पर इस उपेक्षित और परित्यक्त वातावरण में दूसरा कोई नहीं जिसके सामने ब्रह्मराक्षस अपना अहं प्रदर्शित करता। इसे आगे वर्णित रवि और चन्द्र के संदर्भ में भी देखना चाहिए जहाँ ‘चन्द्र’ ब्रह्मराक्षस के घावों पर (व्रण पर) धौली श्वेत पट्टियाँ बांध देता है अर्थात ब्रह्मराक्षस के यही साथी हैं, जो उसके घायल होने पर राहत की मरहम पट्टी करते हैं। वह अपने इन परित्यक्त क्षणों के साथियों से अहं कैसे कर सकता है? कितना मार्मिक संदर्भ है यह। इसे प्रायः आलोचकों ने उपेक्षित किया है। ‘चांदनी’ को नये प्रतीक के रूप में उपयोग किया गया है। चांदनी शीतलता तो देती है पर वह घावों पर पट्टी बांध कर घायल तन को शांति देगी यह पहली बार प्रयुक्त हुआ है।
इस ब्रह्मराक्षस की वेदना और पीड़ा यही है कि वह उपेक्षित है, वही संघर्षरत है, बुद्धिजीवी है पर अपमानित और उपेक्षित है। यही उसकी ट्रेजड़ी है –
पिस गया वह भीतरी
औ’ बाहरी दो कठिन पाटों बीच,
ऐसी ट्रेजडी है नीच!!
यह आंतरिक चेतना की ज्योति और बाहर के कृत्रिम उजाले का द्वंद्व है जो दो पाटों से व्यंजित किया है। यह दो पाट कबीर की ‘दुई पाटन के बीच में साबूत बचा न कोय’ की याद दिलाता है। यह पद महत्ता और उपेक्षा के विवरण के बीच आया है। यह मूलतः कवि की ट्रेजड़ी है। उपेक्षा और महत्ता के कठिन दो पाटों के बीच पिसना है। ज्योति अन्दर से उदित होती है और बाह्य को प्रकाशित करती है। प्रकाश बाहर से आता है और बाहर को ही प्रकाशित करता है। ज्योति को यदि ‘‘लौ’’ की तरह माना जाये तो ध्यान रखिये इसकी परछाईं नहीं होती, परंतु बाहर का कृत्रिम प्रकाश अपने पीछे एक परछाईं लेकर चलता है। इसलिए इनके बीच द्वंद्व है। प्रायः इस पद की व्याख्या व्यक्ति और समाज के बीच के द्वंद्व के रूप मंे की गई है जो कि थोपा गया संदर्भ है। यह व्यक्ति का आत्मसंघर्ष है। मुक्तिबोध केे यहाँ ट्रेजडी का संदर्भ भी दो बार आया है। इसके पहले उन्होंने कहा कि -‘‘वह ट्रेजड़ी/ जो बावड़ी में अड़ गई।’’ इसी का विस्तार है – ‘‘ऐसी ट्रªेजडी है नीच’’ पहला संदर्भ जहाँ आया है वह ब्रह्मराक्षस के गहन उपेक्षा और अपमान का संदर्भ है। वह अपने ज्ञान की संवेदना का बखान कर रहा है पर उसे सुन कौन रहा है, टगर के फूल और वह परिवेश जिसके बीच वह रह रहा है या फिर कवि। समाज के द्वारा ब्रह्मराक्षस का यह अनसुना किया जाना ही ट्रेजड़ी है जो बावडी में अड़ गई है। अड़ना क्रिया का प्रयोग ट्रेजडी के साथ करना भी महत्वपूर्ण है।
ब्रह्मराक्षस के आन्तरिक और बाह्य व्यक्तित्व का वर्णन ऊपर की पंक्तियों को भी अर्थ देता है। इसमें ब्रह्मराक्षस तन पर पड़ी पाप छाया को धोने के लिए बावड़ी में स्नान कर रहा है, और स्नान करते वक्त मंत्रों का उच्चारण भी कर रहा है। यह वर्णन एक परपंरागत ‘ब्राह्मण’ के गंगा स्नान के वर्णन की याद दिलाता है।
बावड़ी का उन घनी गहराइयों में शून्य
ब्रह्मराक्षस एक पैठा है,
व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज,
हड़बड़ाहट-शब्द पागल से।
गहन अनुमानिता
तन की मलिनता
दूर करने के लिए, प्रतिपल
पाप-छाया दूर करने के लिए, दिन रात
स्वच्छ करने-
ब्रह्मराक्षस
घिस रहा है देह
हाथ के पंजे, बराबर,
बाँह-छाती-मूँह छपाछप
खूब करते साफ,
फिर भी मैल
फिर भी मैल!!
और…होठों से
अनोखा स्तोत्र, कोई क्रुद्ध मन्त्रोच्चार,
अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार,
मस्तक की लकीरें
बुन रहीं
आलोचनाओें के चमकते तार!!
इस अखण्ड स्नान का पागल प्रवाह…
प्राण में ‘संवेदना है स्याह’!!’’
ब्रह्मराक्षस घिस-घिस करके नहा रहा है पर मैल है कि निकलता ही जा रहा है। यही बाहर की त्रासदी है। मंत्रों के उच्चार से भी आन्तरिक मलिनता साफ नहीं होती है क्योंकि चेतना में संवेदना ‘स्याह’ यानी मृत हो चुकी है। यहाँ संवेदना का स्याह होना महत्वूर्ण है। कोरा शास्त्रज्ञान और तन का मैल साफ करना हमारी संवेदना को ज्योर्तिमान नहीं कर सकता। संवेदनात्मक अनुभव के अभाव में तमाम ज्ञान व्यर्थ है। इस संवेदना शून्य ब्रह्मराक्षस की तमाम ज्ञान और आलोचना की बातें व्यर्थ जा रहीं है। वह एक तरह से शून्य में प्रलाप कर रहा है। उसे टगर और औदुम्बर की झाडियाँ और कवि ने भर सुना है। उसका यह प्रलाप ही उसकी ट्रजेड़ी है। इसी ट्रेजडी को कवि पूरी करना चाहता है। उसका सजल उर शिष्य होकर।
ज्ञान और संवेदना के बीच जो खाई है। उसे यहाँ पढ़ा जा सकता है। ‘प्राण मंे संवेदना है स्याह’ ब्रह्मराक्षस की ट्रेजड़ी है। क्या इस कविता को ट्रेजिक कविता के रूप में पढ़ा गया है? शायद नहीं। क्या इसे ज्योति और प्रकाश के द्वंद्व के रूप में पढ़ा गया है? ‘व्यक्तित्व वह कोमल स्फटिक प्रासाद-सा’ ब्रह्मराक्षस का यह कोमल व्यक्तित्व क्यों समाप्त हुआ? ‘स्फटिक के प्रासाद – सा’ पद भी बहुत महत्वपूर्ण है। स्फटिक वह पत्थर है जिसके आरपार देखा जा सकता है। ब्रह्मराक्षस का व्यक्तित्व भी इस स्फटिक की तरह ही था। पर उपेक्षा और अपमान ने उसे पाप छाया के बोध से ग्रस्त कर दिया। उसे लगता है कि उसमें ही कोई कमी है जो उसे पत्यिक्त कर दिया गया। प्राक्तन, प्राचीन, गहरे, अंधेरे जल में कहीं कोई शून्यता आ गई है जिसके कारण घुग्धू भी उसके पास रहने से बचने लगे हैं। यहाँ भी ज्योति और अंधकार यानी ‘स्याह’ जो संवेदना के लिए आया विशेषण है, एक ही व्यक्तित्व में निहित तत्व हैं। यह ‘स्याह संवेदना’ के तुरंतवाद सूर्य ने झुककर नमस्ते किया है वाली पंक्तियाँ आती हैं। लगातार सामाजिक उपेक्षा और अपमान ने कवि की संवेदना को स्याह कर दिया इसीलिए वह सूर्य, चांद और नभ से अपनी श्रेष्ठता की स्वीकृति स्वयं अनुभूत कर लेता है। अपने ज्ञान और आन्तरिक ज्योति पर ब्रह्मराक्षस का यह विश्वास ही है जो इस तरह सोचता है।
वह अपने स्फटिक के समान साफ व्यक्तित्व को आखिर क्यों बावड़ी के जल में घिस-घिस कर साफ कर रहा है? यह पागलपन कहाँ से आया? क्या यह उस ‘कीर्ति व्यवसायी’ वाली सभ्यता की देन तो नहीं जिसने हर कला को धन्धा बना दिया। ऐसा नहीं है कि ब्रह्मराक्षस को सफलता नहीं मिली पर असफलतायें अधिक हैं। यही उसकी ट्रेजड़ी है।
मुक्तिबोध अन्त में यह कामना करते हैं कि वे स्वयं उस ब्रह्मराक्षस के सजल उर शिष्य होना चाहते हैं। क्योंकि वे उसके अधूरे कार्यों को पूर्ण निष्कर्ष तक पहुँचाना चाहते हैं। इसके पहले भी वे यह कह चुके हैं कि यदि वे उससे पहले ही मिल लिये होते तो वे उसे उसकी महत्ता बताते और समाज के लिए उसके ज्ञान का उपयोग बताते। और यदि ऐस होता तो उसके साथ जो टेªजड़ी हुई शायद वह नहीं होती। इस कविता में मुक्तिबोध ने दो बार ब्रह्मराक्षस के मरने का जिक्र किया है। पहली बार ‘‘मारा गया, वह काम आया/और पसरा पड़ा है/वक्ष वांहे खुली फैली/एक शोधक की।’’ दूसरी बार अंत में ‘‘मरा पक्षी सा विदा ही हो गया/वह ज्योति अनजानी सदा को सो गई।’’ मजे की बात है कि दोनों पंक्तियों के पहले ब्रह्मराक्षस गणित कर रहा था। पहले संदर्भ के पूर्व की पंक्तियाँ हैं – ‘‘अनगिन दशमलव से,/दशमलव-बिन्दुओं के सर्वतः पसरे हुए उलझे गणित मैदान में…..।’’ और दूसरे संदर्भ के पूर्व की पंक्तियाँ हैं – ‘‘वह कोठरी में किस तरह/अपना गणित करता रहा …..’’ जिन्दगी के गणित में ब्रह्मराक्षस जैसे संवेदनशील बुद्धिजीवी जब असफल हो जाते हैं तो वे इसी तरह गुमनामी के अंधेरों मे खो जाते हैं। देश में हजारों गणितज्ञ और वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी इसी तरह गुमनामी के अंधेरों में खो चुके हैं। यह उन सबकी ट्रेजडी भी है। इस तरह पूरी कविता का केन्द्रीय स्वर ब्रह्मराक्षस नहीं मुक्तिबोध की समय और समाज द्वारा की गई उपेक्षा है और इस तरह आम आदमी की उपेक्षा भी है और उसके अस्तित्व का अपमान भी।
मुक्तिबोध की कविताओं में अंधेरे के रंगों का पढ़ा जाना समय की आवश्यकता है। मुझे नहीं लगता किसी भी अलोचक ने उनकी इन पंक्तियों को कोई विशेष तवज्जो दी है – सूर्य और अंधकार का कोई संबंध देखना हो तो मुक्तिबोध की इन पंक्तियों में देखो और आप पायेंगे की अंधकार सूर्य की तरह चमक रहा है –
घने अँधेर में सुदूर गैसलाइट-सा
वह जल रहा सूर्य
अकेली नीली किरणें फेंक रहा है
नीली-पतली।
उड़े हुए काले रंग सा है अपरिसीम
वह दिगवकाश
रश्मि विकीरण नहीं स्याह शून्य में यहाँ।’’
‘‘अँधेरे स्याह धब्बे सूर्य के भीतर बहुत विकराल
धब्बों के अँधेरे विवर-तल में से।’’
अंधेंरे में सूर्य का जलना और उसमें से रश्मि विकीरण का न होना उनके अंधकार के सूर्य को खोजने जैसा है। मुक्तिबोध जब भी ऊँचाई या पहाड़ की बात करते हैं तो इनके विशेषण के रूप में अंधेरे का उपयोग करते हैं। जब भी उजाले की बात करते हैं तो उसे अंधकार के विशेषण से नवाजते हैं –
उनकी कविता ‘इसी बैलगाड़ी को’ से उद्धृत पंक्तियों को देखिये –
‘‘दूर उधर पहाड़ी चढ़ान की
अँधेरी ऊँचाई में।
‘‘काले पहाड़ के पीछे से
रात्रि के गोल गुम्बज का स्याह किनारा ही।
‘‘काले पहाड़ की चोटी को’’
क्या है उनके अंधेरे के इन संदर्भों का सामाजिक संदर्भ? क्यों वे बारबार अंधेरे को प्रकाश और ऊँचाई के खिलाफ प्रस्तुत करते हैं। इस तरह हजारों पंक्तियाँ उनके काव्य में अंधेरे के संदर्भों का लेकर अपना पूरा इन्द्रधनुष रचती हैं।
अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा करना हमारी वैदिक परंपरा है (तमसो मा ज्योर्तिगमय)। पर अंधकार को ही जीवन का प्रकाश बनाकर जीना और अधंकार से ही जीवन दृष्टि और विद्युत्कण चुनना आधुनिक चेतना का मानवीय दर्शन है। अंधकार को हमेशा ही ‘रंग’ विहीन रखा गया। ‘अंधकार’ जीवन के काले पक्ष का ही प्रतीक अधिक माना गया है और अंधकार को प्रकाश के विरोधी मूल्य के रूप में रख कर ही हमारी पंरपरा ने प्रस्तुत किया। अंधकार और कालापन लगभग पर्यायवाची बन कर परंपरा बनते गये। इस तरह अंधकार का दर्शन, त्रासदी का दर्शन पनप ही नहीं सका। जीवन के ‘इस हाशिये’ के न उभरने से कई तरह के अंतर्विरोध दबे रह गए और उनके सामने न आने से जीवन में प्रकाश और उजाले का इंद्रधनुषी भ्रम माया की छाया की तरह छाया रहा। जबकि यथार्थता यह है कि प्रकाश का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, अंधकार का न होना ही प्रकाश है, इसी तरह रंगों का अस्तित्व काले रंग का न होना ही है। सफेद कोई रंग नहीं है, मगर सारे रंग सिर्फ सफेद रंग पर ही अपने विभेदों के साथ अस्तित्वान होते हैं। काले रंग के कैनवास पर अन्य रंगों का प्रभाव वही नहीं होता जो सफेद रंग के कैनवास पर होता है। रंगों का खेल भी विचित्र है। सफेद और काला जीवन दर्शन के प्रतीक हैं, वे सिर्फ मनोभावों को ही नहीं, जीवन दर्शन और जीवन दृष्टि को प्रतीकित करते हैं। यह भी महत्वपूर्ण विभेद है कि सफेद और काला तथा अंधकार और प्रकाश एक ही जीवन दृष्टि के प्रतीक नहीं माने जाने चाहिए।
मुक्तिबोध आधुनिक बोध के ऐसे रचनाकार हैं जिनके जीवन दर्शन में अंधकार से प्रकाश की ओर की यात्रा नहीं है। उनमें अंधकार और प्रकाश का द्वंद्व भी नहीं है। उनकी दृष्टि साफ है, वे अंधकार की जीवन दृष्टि वाले कवि हैं। उनके यहाँ ‘अंधकार’ का विलोम प्रकाश है न कि प्रकाश का विलोम अंधकार। प्रकाश और उजाला मुक्तिबोध के जीवन दर्शन में वही स्थान रखता है जो वैदिक परंपरा में अंधकार का है। वे इस क्रम को उलट देते हैं। अंधेरे में प्रकाश की खोज उनका अभीष्ट नहीं है, अंधेरे में जीवन के रंगों को स्थापित करना, और आत्मान्वेषण की प्रक्रिया में इस सत्य का अन्वेषण करना उनकी सृजन प्रक्रिया का लक्ष्य है। अंधकार का भी इन्द्रधनुष हो सकता है, यह देखना हो तो मुक्तिबोध की काव्य यात्रा से गुजर जाइये। इस यात्रा में आपको तारामंडल में यात्रा करने का आनन्द आयेगा। खुले अन्तरिक्ष में अंधकार के हजारों प्रतिदर्श आपको दिखाई देगें। वे अंधकार को महिमामंडित नहीं करते और न प्रकाश को अपमानित। रवि किरणें जब ब्रह्मराक्षस के पास पहुंचती हैं तो वह समझता है कि सूर्य ने उसे झुककर नमस्कार किया। यह न अहं है और प्रकाश का अपमान। यह अंधकार को जीने का दर्शन है। आधुनिक व्यवस्था में मुक्तिबोध जैसे प्रतिबद्ध और कर्मबद्ध रचनाकार जिस उपेक्षा और अंधकार का जीवन जी रहे थे उसमें अंधकार को जीने की दृष्टि विकसित करने का श्रेय मुक्तिबोध को ही है। निराला ने भी अंधकार को जीवन दृष्टि के रूप में विकसित करने का प्रयास किया था – ‘रवि हुआ अस्त’। पर इस अंधकार में ‘केवल जलती मशाल’ का रोमांटिक छायावादी बोध भी समाहित था। मुक्तिबोध के अंधेरे में मशाल का रोमांटिक बोध नहीं है। वे अंधकार को उसके तमाम घनत्व और गहनता के साथ भोगते हैं। अंधकार स्याह भी हो सकता है और ज्योर्तिमय भी। वह विद्युत्कणों को चुन सकता है और सूर्य और चन्द्र की किरणों का स्वागत कर सकता है। मुक्तिबोध के कला फलक पर अंधकार और प्रकाश साथ-साथ रह सकते हैं, वे एक दूसरे के अभाव या न होने के सूचक नहीं है। इसीलिए मैंने कहा कि उनके यहाँ अंधकार और प्रकाश का द्वंद्व नहीं है। अंधकार को भोगने की दृष्टि है। अंधकार और प्रकाश के बीच द्वंद्व का अर्थ है, परंपरागत मूल्यों की श्रेणीबद्धता को स्वीकार करना। इस श्रेणीबद्धता में प्रकाश स्वीकार्य है, श्रेष्ठ है, स्वर्गीय है, जीवन का लक्ष्य है पर मुक्तिबोध इस श्रेणीबद्धता को विखंडित कर देते हैं। अंधकार से प्रकाश की ओर की यात्रा उनका लक्ष्य नहीं है। अंधकार को अपने गहनतम और स्याह रूप में ही स्वीकार करना और जीवन के विविध रंगों को इस स्याह आलोक में ही जीने की दृष्टि विकसित करना है।
अंधकार के इन्द्रधनुष रचने के सामाजिक और राजैनतिक संदर्भ हैं। हमारी सामाजिक परंपरा में प्रकाश के नाम पर अंधकार की हमेशा हत्या की गई। राजनैतिक बोध ने भी जीवन में अंधकार फैलाया पर अंधकार को जीने की दृष्टि विकसित नहीं होने दी। प्रकाश का होना एक बात है और प्रकाश का बोध दूसरी बात। अंधकार से बचने का प्रयत्न अलग बात है पर अंधकार को ही जीवन दृष्टि बना लेना अलग बात है। प्रकाश की पक्षधरता सत्ता और वर्चस्व की भाषा है। अंधकार का स्वीकार सत्ता और वर्चस्व के खिलाफ विद्रोह का स्वर है। सत्ता और वर्चस्वशाली ताकतें दिन के उजाले में विभ्रम और अंधकार का खेल खेलती हैं। वे उजाले के स्वप्न दिखाती हैं और जीवन में यथार्थ के अंधकार के स्वीकार से वंचित करती हैं। प्रकाश के भ्रम और अंधकार की हकीकत का फर्क वर्चस्वी ताकतें कभी भी स्पष्ट नहीं होने देती हैं। मुक्तिबोध ने इनके बीच के फर्क को अंधकार की रोशनी में स्पष्ट कर दिया है।
यहाँ प्रेमचंद जी का एक कथन याद आ रहा है, वे कहीं कहते हैं कि ‘रात के अंधकार में भटकने की संभावना कम होती है, जबकि दिन के उजाले में आदमी भटक जाता है।’’ (भाषा कुछ अलग हो सकती है, पर कथन यही था) मुक्तिबोध अंधकार को जीवन का पथ बनाते हैं, जो मानवीय संदर्भ से भटकने नहीं देता।
वे शक्तिकणों को हमेशा अंधकार के परिवेश में एकत्र करते हैं, विद्युतकण, मणिरत्न, तमसकण, चिन्गारियाँ, आग और कोयला इत्यादि सब अंधकार में अपना प्रकाश बिखेरते हैं पर अंधकार को विलोपित नहीं करते –
जमाने का चेहरा एक – ‘‘आधी रात/अंधियारा क्षितिज धधकता था/सन्ध्या के लाल-लाल उमड़ते मेघ ज्यों/ऊँची-ऊँची लपटों के महल धधकते हों।/अँधियारे आसमान तले, अरे,/गेरुआ घमासान मचा था।’…………….‘‘मृत्यु का मेघाकार काला भूत/काले-काले कुहरे के भयानक शीश पर।’’
इन पंक्तियों में अंधकार के ताने बाने को कितनी तरह से बुना गया है। एक पूरा वातावरण जमीन से आसमान तक सब अंधकार के स्याह रंग में डूबा है। ‘काले काले कुहरे’ कुहरे का काला विशेषण कभी कहीं सुना है? कुहरा पूरा अमानवीय परिवेश है जिसके भयानक शीश पर मुत्यु का ‘काला भूत’ इनके सिर पर ‘गूेरुआ घमासान’ यह रंगों की उनकी दृष्टि है। काले कैनवास पर लाल और गेरुआ रंग ही अधिक तेजी से उभरता है। वे अधिकांशतः अंधकार में रोशनी को लाल और चमकीले पन से व्यंजित करते हैं।
इसी बैलगाड़ी को कविता में – ‘‘खींच रहे हो शहरी अँधेरे में/वही बैलगाड़ी/वही हाँकना/सिर्फ एक फर्क है/फर्क है आबोहवा का।/शहराती गलियों के घुप्प अँधेरे में/उदास उजाला है।’’
नगरीय जीवन में उनकी उपेक्षा को कैसे बिम्बित किया है – शहरी अँधेरे, घुप्प अँधेरे’ दोनों ही नगरीय जीवन को बताते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था नगरीय जीवन के आँचल में ही फलती फूलती रही है। इन नगरों को वे अंधेरे से पूर्ण दिखाते हैं। और उजाले का उदास कहते हैं। यहाँ उजाला आंतरिक ज्योति है और आबोहवा के फर्क से स्वाभाविक जीवन और कृत्रिम जीवन के अंतर को भी प्रतिबिम्बित करते हैं।
‘भविष्य धारा’ कविता की यह पंक्तियाँ – ‘‘वह नीचे नीला शून्य/खो गए पैर नसेनी के…./व ऊपर नीला शून्य/खो गया सिरा नसैनी का/कहीं गायब कुछ सीढ़ियाँ।/व नीले अधर अँधेरे में।’’
‘किन्तु मटमैली श्याम हथेली पर घट्टे होंगे/चेहरे पर होंगे दाग स्याह काले/तभी निज भद्रवर्ग से होगे तुम बाहर।’’
इन पंक्तियों में ‘भद्रवर्ग’ से बाहर होने की शर्तें या स्थितियाँ तीखा व्यंग्य करती हैं मध्यवर्गीय चेतना की कृत्रिमता पर। हाथेली- मटमैली हो उस पर काली हो, और घटटे हों या काम करने से उठी चांई हों। तब ही इस भद्रवर्ग की श्रेणी से बाहर हो सकोगे। ऊपर नसैनी का संदर्भ भी महत्वपूर्ण है। उसके ऊपर के सिरे भी गायब हो गये और नीचे के पैर नीले शून्य में खो गये हैं। क्या गजब बिम्ब है। बीच की सीढ़ियाँ भी गायब हैं नीले अधर अंधेरे में। अब बचा क्या? यही ट्रजेडी है।
‘‘भूमि के गहन गर्भांधकार में घुसकर तुम/कोयला-खान में पहुँचोगे/साँवले हाथ होंगे, कजलाया मुँह होगा।’’ (कोयला आग का कारण होता है)/‘‘जहाँ की काली गलियों की/अति श्याम रंग फैंण्टेसी।’’
इन पंक्तियों को रचते समय उनकी मानसिक स्थिति का अंदाजा लगाइये। पाँच पंक्तियों में छह बार अंधेरे या कालेपन का प्रयोग किया है – गर्भांधकार, कोयला खान, साँवले हाथ, कजलाया मुंह, काली गलियों, श्याम रंग फैंटेसी। कल्पना भी अंधकार युक्त है। अंधकार किस कदर हावी था उनके दिमाग पर। कुछ भी हो कहीं भी हों अंधकार को ले आते हैं।
‘‘अपने रंगों को खोजो,/हरिया-तूता, आक, धतूरा काम आयेंगे।’’ (जहर के रंग हैं ये जो अंधेरे के ही संदर्भ हैं)
गरम रंग हैं/पृथ्वी के भीतर के तंग पृथों पर जाओ/यूरेनियम-रेडियम प्रणाली/काली और कोयले वाली खानें बहुत मिलेंगी/रंग अनेकों देंगी तुमको!!’’
काली कोयले की खानें अनेक रंग देंगी….? कौन से रंग मिलने वाले थे इन काली खदानों से। यूरेनियम – रेडियम। ये विद्रोह के प्रतीक हैं। ऊपरी सतह पर नहीं मिलेगें विद्रोह के स्वर। इसके लिये चेतना की भीतरी पर्तों में उतरना होगा।
उनकी कुछ अन्य कविताओं से चुने गए अंधेरे के इन संदर्भों को उदाहरण के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ – ‘जमाने का चेहरा’ एक लम्बी कविता है। इसमें द्वितीय विश्वयुद्ध के समय की विश्व की अमानवीय परिस्थितियों का दृश्य है। इसका शिल्प अंधेरे में जैसी कविताओं जैसा कसा हुआ नहीं तथापि मानवीय गरिमा के पतन की और हिंसा के तांडव का बहुत सजीव चित्रण इसमें हुआ है। इसकी कुछ पंक्तियाँ हैं जिनमें अंधेरे के कई अलग अलग रंग देखने को मिलते हैं –
‘‘जमाने का चेहरा एक- एकाएक/उसके शीश गया बैठ/गया जम/स्याह काना कौवा एक।’’ ‘‘क्षितिज के चेहरे पर उभरा काला भाव एक’’/‘‘जहरीले काले मृत्यु सागर में डूब गयी’’/‘‘घूमते थे नपुंसक भीति के काले व्याल’’/‘‘आधी रात/ अंधियारा क्षितिज धधकता था/सन्ध्या के लाल-लाल उमड़ते मेघ ज्यों/ऊँची-ऊँची लपटों के महल धधकते हों।/अँधियारे आसमान तले, अरे,/गेरुआ घमासान मचा था।’’/‘‘मृत्यु का मेघाकार काला भूत/काले-काले कुहरे के भयानक शीश पर।’’
‘इसी बैलगाड़ी को’ शीर्षक है जिसमें बैलगाड़ी को नगरीय आधुनिकता के बरक्स यथार्थ भारतीय संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है – इसी बैलगाड़ी को – ‘‘खींच रहे हो शहरी अँधेरे में/वही बैलगाड़ी/वही हाँकना/सिर्फ एक फर्क है/फर्क है आबोहवा का।/शहराती गलियों के घुप्प अँधेरे में/उदास उजाला है।’’/‘‘दूर उधर पहाड़ी चढ़ान की/अँधेरी ऊँचाई में।/क्या करें अँधेरी ऊँचाई पर/हमारे अंग-अंग में/खूब हवा खेलती।’’/दूर उधर/किसी तमस्कण के/किसी तमस अणु के/‘‘परिचित भी राह हो/अँधेरी ऊँचाई में/लगती अपरिचित है।’’
‘सुदूर नील कुहरे का धुंधलापन ओढ़े हुए/आसमानी रंग का गिरि रूप।’’
रात्रि के गोल गुम्बज का स्याह किनारा ही।/‘‘काले पहाड़ की चोटी को।
तिमिर में समय झरता है;/व उसके गिर रहे एक एक कण से/चिनगियों का दल निकलता है!!/अँधेरे वृक्ष में से गहन आभ्यन्तर/सुगन्ध भभक उठती है।’’
‘‘उलझकर, मुक्तिकामी श्याम गहरी भीड़ में चलती/उतरकर, आत्मा के स्याह घेरे में/अचानक दृप्त हस्तक्षेप करती है।’’/मैं देखता क्या हूँ/अँधेरे आइनों में सिर उठाती है
‘‘जब सूर्य फूटेंगे/व उनके केन्द्र टूटेंगे/उड़ेंगे खण्ड/बिखरेंगे गहन ब्रह्माण्ड में सर्वत्र/उनके नाश में तुम योग दो!!’’
मुक्तिबोध के संपूर्ण काव्य में ये पंक्तियाँ सर्वश्रेष्ठ मानी जानी चाहिये। अंधेरे का वास्तविक संदर्भ यही है, सूर्य के केन्द्र के बिखरने से उपजे अंधकार में जीवन की ज्योति जलाना और पूर्व से बने हुए रोशनी के किलों के टूटने में योग देना। ‘उनके नाश में तुम योग दो’ यही क्रांतिधर्मा चेतना है मुक्तिबोध की।
मुक्तिबोध के काव्य में अंधेरे के सैकड़ों संदर्भ हैं, जो अधिकांशतः आन्तरिक चेतना के संदर्भ में आये हैं। वे अंधेरे का जीवन के विसंगतिपूर्ण उजालों के बरक्स अन्तरआत्मा की प्रतिष्ठा के रूप में ही प्रस्तुत करते हैं।
इस पूरे लेख में मुक्तिबोध की सबसे चर्चित कविता ‘‘आशंका के द्वीप: अंधेरे में’’ का जिक्र सोच विचारकर ही नहीं किया है। इसका तो नाम ही ‘अंधेरे में हैं’, इसके बावजूद इसकी व्याख्या और व्याख्यानों में अंधेरे को उस तरह नहीं खोला जाता है। यह भी उनके साथ की गई एक मानवीय और साहित्यिक ट्रजेडी है।