हिन्दी ग़ज़ल के बढ़ते आयाम-मूलभूत तथ्यों की पहचान :: अनिरुद्ध सिन्हा

हिन्दी ग़ज़ल के बढ़ते आयाम”-मूलभूत तथ्यों की पहचान

 – अनिरुद्ध सिन्हा

आधुनिक कवियों ने एक विशेष ढंग से,एक विशेष दिशा में हिन्दी कविता को मोड़ने का प्रयास किया। हिन्दी कविता नए जागरण का पर्याय माने जाने लगी। कविताओं में वस्तु से अधिक टेकनीक पर ज़ोर दिया गया। परिणामस्वरूप वातावरण का अंकन,नूतन बिंबों,उपमानों, विदेशी छंदों के प्रयोग,मुक्तछंद तथा एकालाप का संयोजन कविताओं की उपलब्धियां रह गईं। छंद खासकर भारतीय छंद हाशिये पर चले गए।लेकिन दुष्यंत कुमार के ग़ज़ल-लेखन की सफलता ने हिन्दी कविता को एक नया मोड़ दिया। छंदों की वापसी के द्वार खुल गए। छंद की विभिन्न विधाओं में एक नयी जान आ गयी। ऐसे तो ग़ज़ल एक नयी विधा के रूप में थी। पाठकों ने अपनी रुचि  इसके प्रति कुछ ज़्यादा दिखलाई। नई कविता के ग़ज़ल विरोधी अभियान के बावजूद ग़ज़ल लेखन की धारा समाप्त नहीं हुई। पाठकीय लोकप्रियता ने इसको जन-मानस के बीच पूरी तरह से स्थापित कर दिया। हिन्दी ग़ज़लकारों ने हिन्दी कविता को नए भाव,नए चित्र,और नई भाषा ही नहीं दी,अपठनीयता को तोड़कर उसे लचीला और गतिशील बनाने की भी सफल कोशिश की। ग़ज़ल की लोकप्रियता इस बात से भी आँकी जा सकती है अगर सौ कवियों की सूची बनाई जाए तो अस्सी कवि ग़ज़ल से जुड़े मिलेंगे। ग़ज़ल की बढ़ती लोकप्रियता के बीच आलोचना के भी द्वार खुले। लेकिन दुर्भाग्य से जिस अनुपात में पाठकों के समक्ष ग़ज़लें आयीं, आलोचना की रफ्तार धीमी रही। पूरे देश में हिन्दी ग़ज़ल के बहुत कम प्रतिबद्ध आलोचक मिले। इस निराशा के दौर में भी ग़ज़लकारों का धैर्य बना रहा और ग़ज़ल-लेखन से जुड़े रहे।

आलोचना पठनीयता और शास्त्रीयता के बीच सेतु का काम करती है। किसी भी विधा को स्थापित करने में इसकी प्रमुख भूमिका मानी गई है। इसके लिए आलोचक का ईमानदार होना भी आवश्यक है। साहित्य में लेखक की अनुभूतियाँ,धारणात्मक मूल्यों,दार्शनिक स्थापनाओं और उद्बोधनों को क्या स्थान मिला है यह आलोचक के माध्यम से ही सम्मिलित किया जाता है। आलोचना यथार्थवाद का वह रूप है जिसमें लेखक की अभियक्ति को विस्तृत विवरण देकर उसकी सार्थकता को पाठकों के समक्ष लाया जाता है। हिन्दी ग़ज़ल की इस नयी जागृति के साथ डॉ भावना ग़ज़ल आलोचना के क्षेत्र में आयीं,जिन्होंने अपनी योगयता के अनुसार हिन्दी ग़ज़ल समीक्षा के पथ का प्रसार किया। ग़ज़ल की शिल्पसंरचना उसकी आवशयकताओं की जानकारी  रहने के कारण ग़ज़ल के प्रतिमानों को नए मापदण्डों का रूप देना प्रारम्भ किया।हद तक इन्हें सफलता भी मिली। इसकी  पुष्टि हाल ही में प्रकाशित हिन्दी ग़ज़ल आलोचना की पुस्तक (श्वेतवर्णा प्रकाशन दिल्ली)  ”हिन्दी ग़ज़ल के बढ़ते आयाम”करती है। पुस्तक में विभिन्न विषयों पर आधारित कुल 14 आलेख हैं, 1॰हिन्दी ग़ज़ल एक पड़ताल 2.हिन्दी ग़ज़ल की परंपरा(व्याख्या सहित 14 शेर उद्धृत ) 3.समकालीन हिन्दी ग़ज़ल के बढ़ते आयाम(व्याख्या सहित 81 शेर उद्धृत) 4.हिन्दी ग़ज़ल में समकालीनता(व्याख्या सहित 38 शेर उद्धृत) 5.सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध हिन्दी ग़ज़ल(व्याख्या सहित 23 शेर उद्धृत) 6.हिन्दी ग़ज़ल में प्रकृति और पर्यावरण(व्याख्या सहित 39 शेर उद्धृत) 7.हिन्दी ग़ज़ल में बुजुर्गों की स्थिति(व्याख्या सहित 32 शेर उद्धृत) 8.समकालीन ग़ज़ल में स्त्री(व्याख्या सहित 24 शेर उद्धृत) 9.शहर की तलाश में गुम होते गाँव और हिन्दी ग़ज़ल(व्याख्या सहित 59 शेर उद्धृत) 10.हिन्दी ग़ज़ल में प्रेम और सौंदर्य(व्याख्या सहित 52 शेर उद्धृत) 11.हिन्दी ग़ज़ल में माँ(व्याख्या सहित 45 शेर उद्धृत) 12.कोरोना काल में हिन्दी ग़ज़ल की भूमिका(व्याख्या सहित 25 शेर उद्धृत) 13.समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में युवा ग़ज़लकारों का हस्तक्षेप(व्याख्या सहित 73 शेर उद्धृत) 14.समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में महिला ग़ज़लकारों की भूमिका।(व्याख्या सहित 44 शेर उद्धृत)”हिन्दी ग़ज़ल एक पड़ताल”के अंतर्गत विभिन्न विद्वानों के के अभिमत हैं जिन्होंने समय-समय पर हिन्दी ग़ज़ल के समर्थन में अपने मत से हिन्दी ग़ज़ल को समृद्ध किया है।डॉ भावना ग़ज़ल-लेखन से खुद जुड़ी हुई हैं इसलिए इन्होंने ग़ज़ल के शिल्प पर भी थोड़ी बात की है जो एक हल्का इशारा भर है—(“हिन्दी में छंद-विधान के अनुसार ग़ज़ल एक वार्णिक छंद है। एक ओर जहाँ हिन्दी में मात्रा का पतन दोष माना जाता है,वहीं उर्दू में छंद की स्थिति बिल्कुल उल्टी है। यानि हिन्दी की मात्रिक व्यवस्था जितनी ठोस है,उर्दू में उतनी ही तरल। यही वजह कि उर्दू छंदशास्त्र में मिठास,कोमलता,गहराई और लोच पाई जाती है। यहाँ वर्णों तथा शब्दों की उच्चरित मात्राएँ ही वजन का पैमाना बनती हैं जिसकी वजह से छंदों में एक लहर जैसी उछाल और क्षिप्रता आ जाती है”। डॉ भावना का मत है कि हिन्दी कि मात्रिक व्यवस्था जितनी ठोस है, उर्दू में उतनी ही तरल। यही कारण है कि उर्दू छन्दशास्त्र में मिठास,कोमलता,गहराई और लोच पाई जाती है। यहाँ पर सवाल उठता है “क्या हिन्दी की मात्रिक व्यवस्था मिठास,गहराई और लोच के मामले में शून्य है या शिथिल है? यह बहस का मुद्दा हो सकता है। इस विषय पर गहराई से चिंतन करने की आवश्यकता है।शेष आलेखों में विषय के हिसाब से उद्धृत शेर मेरी दृष्टि में पूर्ण हैं। विषय को समझने,जाँचने-परखने के लिए काफी हैं। आलोचना के लिए यह ज़रूरी भी है विषय का आकलन करते समय संदर्भ को भी ध्यान में रखें। आलोचना को विषय को पकड़ने में सुविधा होती है। विषय को संदर्भ से जोड़ना आलोचना की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी है। डॉ भावना ने इसे गंभीरता से लिया है इनकी आलोचना दृष्टि के कई आयाम प्रकट होते हैं। इन्होंने नवीन युग की सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप साहित्य निर्माण की प्रेरणा दी और अपनी आलोचना समीक्षा में उन्हीं शेरों को महत्व दिया है जो सामाजिक उत्थान  सामाजिक विकास की भावना से ओत-प्रोत हैं। प्रत्येक युग का रचनात्मक साहित्य ऐसी आलोचना की उद्भावना करता है जो उसके अनुरूप होती है,और इसी प्रकार प्रत्येक युग की आलोचना भी उस युग की रचना को अपने अनुकूल बनाया करती है। यह डॉ भावना की सफलता है कि आलोचना के इस रहस्य और गूढ़ता को पकड़ने में इन्होंने अपनी चातुर्य-बुद्धि का इस्तेमाल किया। यही कारण है कि हिन्दी ग़ज़ल की सही स्थितियों का आकलन करने में इन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई। डॉ भावना अपने लेखन के प्रति ईमानदार तो हैं ही और सच्चाई की तलाश कर सकने की क्षमता  भी रखती हैं। इस पुस्तक से हिन्दी ग़ज़ल की शक्तियों का विकास और उसके अंतर्गत भावों की तुष्टि और पुष्टि होती है।

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गुलज़ार पोखर,मुंगेर(बिहार)811201 mobile-7488542351

 

 

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