संस्मरण बेनीपुर की :: बिभेष त्रिवेदी

गेहूं रहा न गुलाब 
23 दिसंबर 2024 को बेनीपुर से लौटकर
– बिभेष त्रिवेदी
इस बार हम लौटने के समय बेनीपुर पहुंचे। मुजफ्फरपुर -सीतामढ़ी रोड में जनाढ़ चौक से पूरब उतरते ही पुरानी स्मृतियां उमड़ने-घुमड़ने लगीं। साहित्यकारों-पत्रकारों,  सामाजिक -राजनीतिक कार्यकर्ताओं के चेहरे याद आने लगे, जिनके साथ मैंने अलग-अलग साल बेनीपुर की यात्रा की। हमारे संपादक सुकांत नागार्जुन, जिन्होंने मुझे पहली बार बेनीपुर भेजा था। सुरेन्द्र नाथ दीक्षित, जिन्होंने बेनीपुरी के साहित्य क्षितिज का दिग्दर्शन कराया। वर्ष 2001 से लेकर आजतक हर साल बेनीपुर आता रहा हूं। बीच-बीच में दो-तीन बार ऐसा भी हुआ, जब मैं 23 दिसंबर को नहीं आ सका, लेकिन जब-जब मैं यहां नहीं आया , पूरी शिद्दत से दिन भर यहीं मौजूद रहा। मेरा दिल-दिमाग अपराध-बोध के साथ दिन भर बेनीपुर की पगडंडियों पर, नाव पर, रामबृक्ष बेनीपुरी की समाधि ( बेनीपुरी जी ने स्वयं कहा था, यह मेरा घर नहीं, मेरी समाधि है) श्रद्धावनत रहता था। अमर साहित्यकार, पत्रकार, स्वतंत्रता सेनानी और समाजवाद के पुरोधा, राजनेता व विधायक रामबृक्ष बेनीपुरी का समग्र साहित्य, उनकी डायरी के पन्ने और उनके व्यक्तित्व ने मुझे सर्वाधिक प्रेरित किया है।
जब आप बेनीपुर रेल पुल ( मुजफ्फरपुर -सीतामढ़ी रेल मार्ग) के निकट पहुंचेंगे तो बिहार के अभियंताओं के प्रति श्रद्धावनत हो जाएंगे। इसे इंजीनियरिंग का कमाल ही कहेंगे कि पुल के नीचे से निकल कर बागमती नदी तीन धाराओं में बंट जाती है। बागमती परियोजना के महान अभियंताओं ने ठीक बगल की जमीन काटकर नदी के दोनों किनारे तटबंध बनवाया। मिट्टी काटे जाने से दोनों तटबंधों के किनारे -किनारे अघोषित नहरें बन गईं। बाढ़ आयी तो तटबंधों के अंदर दोनों नहरें बागमती की दो खतरनाक धाराएं बन गईं। दोनों के बीच से सीधे पूरब जाने वाली मूल धारा मृतप्राय है। दोनों नयी धाराओं को बंद कर पुरानी धारा को ही पुनर्जीवित करने की सैंकड़ों करोड़ की योजना का आकार वर्ष दर वर्ष बढ़ता जा रहा है। जस-जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा॥ यह पुण्य परियोजना जल संसाधन मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक के लिए, ठेकेदार से लेकर अभियंता तक के लिए कामधेनु गाय बन चुकी है।
नीरज नयन ने जब घुमावदार बेनीपुर बांध ( बागमती नदी का दायां तटबंध) पर कार चढ़ाई तो सामने एक किलोमीटर दूर से सफेद बगुलों की कतार की तरह कारों का काफिला आता दिखा। ये गाडियां नया बेनीपुर गांव के नए स्मारक स्थल से ही लौट रही हैं। ऊंचे बांध से सामने और दाएं-बाएं दूर तक सब-कुछ दिख रहा है। बांध के बाएं नया बेनीपुर गांव बस गया है। बेनीपुर रेलवे हाॅल्ट और पश्चिम का लाल क्षितिज। सामने दक्षिण की ओर जा रहा वृत्ताकार बांध आगे पूरब दिशा में मुड़ रहा है। हमारी गाड़ी इसी बांध पर जर्जर खरंजा सड़क पर आगे बढ़ रही है। बांध के दाएं ठीक नीचे बागमती के उस पार पूरब में निर्जन बेनीपुर गांव, खड़ ( गुरहन) की झाड़ियां, रेत पर खेसारी के हरे-हरे पौधे। औरतों के सिर पर मवेशियों के चारा-जलावन का बोझा। उजड़े बेनीपुर गांव से नाव पर लोग सिर्फ चारा, खेसारी और जलावन ही ला पाते हैं। धनुषाकार बांध पर सामने से रेंगती कारों का काफिला हमारे करीब आता गया। आगे- आगे सायरन बजाती एस्काॅर्ट गाड़ी। जगह देने के लिए नीरज जी ने अपनी कार को बांध पर किनारे किया। एस्काॅर्ट के ठीक पीछे वाली गाड़ी आकर हमारी कार के ठीक बगल में दो सेकंड के लिए रूकी। शीशे उतरे। सीतामढ़ी के सांसद देवेशचंद्र ठाकुर जी मुस्कुरा रहे थे। हमने एक-दूसरे का अभिवादन किया। हमारी गाड़ी कुछ और आगे बढ़ी तो सामने से आ रही गाड़ी में पिछली सीट पर दो बुजुर्ग दिखे। गाड़ी हमारे बगल से गुजर गई। दोनों जाने-पहचाने से लगे। अरे, ये तो गांधी शांति प्रतिष्ठान के पूर्व राष्ट्रीय सचिव सुरेंद्र कुमार और डॉ. हरेंद्र कुमार थे! अचानक 1982-84 वाले सुरेन्द्र भाई- हरेंद्र भाई के चेहरे याद आए। मैं भावुक हो गया। सचमुच युग बीत गया। मैंने पश्चिम में ढ़लते सूरज की ओर देखा। अचानक मुझे खुद की उम्र का आभास हुआ। धूल उड़ाती गाड़ियां हमारे बगल से गुजरती गईं। बांध के नीचे समानांतर बह रही बागमती में छोटी-छोटी नाव। पूरब दिशा से पगडंडी पर लोगों की टोलियां नदी की ओर आ रही हैं। कलम के जादूगर रामबृक्ष बेनीपुरी की समाधि पर शीश नवाकर ये श्रद्धालु पुराने निर्जन बेनीपुर गांव से लौट रहे हैं। कुछ लोग नाव पर सवार हुए और बाकी को अगली खेप का इंतजार है।
सामने की गाड़ियों के निकलने लायक जगह छोड़कर नीरज जी ने कार खड़ी की है। हम बाहर निकले तो सामने से आकर एक और गाड़ी रूकी। शीशा उतरा, अंदर से फिर एक चेहरा मुस्कुराया। अपने लेट कर देली। हम सअ रस्ता देखइत रहली हअ। हम दिलीप शाही छी, अहां के फेसबुक पर पढ़इत रहइले। मैंने झेंपते हुए हाथ जोड़कर कहा, हम एक दिन अपने के घरे आके मिलब! उनका चेहरा खिल उठा, जरूर आएल जाओ। आगे बढ़े तो एक सहनी जी की आंखों ने हमें पहचाना, सुफल भाई अपने के पयरा तकइत हतन। बांध के बाहर नए समाधि स्थल का समारोह संपन्न हो चुका है। लिहाजा हमने शाम ढलने से पहले बेनीपुरी जी के ऐतिहासिक घर पर ही शीश नवाने में भलाई समझी। अंधेरा बढ़ते ही जंगली सुअरों व नीलगायों का खतरा बढ़ जाता है। हम बांध के नीचे नदी किनारे नाव की ओर बढ़े, ऊपर से आवाज आई – भाईजी… भाईजी। जुझारू यूट्यूबर मिथुन कुमार और रंजन सिंह ( चहुटा) तेजी से बांध से उतर कर पास आए, हम अपने के काॅल कइली हअ! मैंने सफाई दी, चलती गाड़ी में मोबाइल काॅल से बेखबर रहा। मिथुन पहले से मेरे आत्मीय हैं। हाल ही में जब ये जनता की आवाज उठाने पर जेल भेजे गए, इस छोटे भाई के प्रति मेरे मन में सम्मान का भाव आ गया है। गर्दन उठायी तो ऊपर बांध पर दीनबंधु क्रांतिकारी ने अभिवादन किया और मैंने उनकी तबीयत पूछ ली। अपने विलंब पर झेंपते हुए हमने सबसे विदा लिया। सबने नाविक को आवाज दी, खुल चुकी नाव दोबारा किनारे लगी और हम सवार हो गए। यादों का एल्बम खुल गया। बागमती गवाही देगी। साल दर साल कभी पत्रकारों, तो कभी साहित्यकारों की टोली में, सामाजिक -राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ। कभी बेटी पूर्वा ईशा साथ होती है और कभी पत्नी रूबी। नाव से पार उतरते हुए कभी भावुक होता हूं और कभी रोमांचित! आज हम समाधि पर अंतिम आगंतुक होंगे।
हमारी नाव नदी पार कर रही है और पश्चिम में बांध पर राजनेता के जयकारे लग रहे हैं। तटबंध के बाहर गेहूं उगाने वाले किसान अपने सांसद, मंत्री, विधायक पर गुलाब की पंखुड़ियां बरसा रहे हैं। नेता के जयकारे लगा रहे हैं। माला से लदे नेता विदा ले रहे हैं। गांव का एक मजदूर बुदबुदाया, अब जाय दहु हिनका सअ के। चुनाव आ गेलई, अब तअ अबइते – जाइत रहतथुन। नेताओं को जाते और किसान -मजदूरों को चिल्लाते देखकर मैं सोचने लगा, क्या गेहूं और गुलाब में कभी संतुलन हो पाएगा? मेरे कान में ‘गेहूं और गुलाब’ की पंक्तियां फड़फड़ाने लगीं-
“वह परंपरा चली आ रही है। आज चारों ओर महाभारत है, गृहयुद्ध है, सर्वनाश है, महानाश है!
गेहूँ सिर धुन रहा है खेतों में, गुलाब रो रहा है बगीचों में – दोनों अपने-अपने पालन-कर्ताओं के भाग्‍य पर, दुर्भाग्‍य पर !
गेहूँ की दुनिया खत्‍म होने जा रही है। वह दुनिया जो आर्थिक और राजनीतिक रूप में हम सब पर छाई है।
जो आर्थिक रूप से रक्‍त पीती रही, राजनीतिक रूप में रक्‍त बहाती रही!
अब दुनिया आने वाली है, जिसे हम गुलाब की दुनिया कहेंगे। गुलाब की दुनिया-मानस का संसार-सांस्‍कृतिक जगत्।
अहा, कैसा वह शुभ दिन होगा हम स्‍थूल शारीरिक आवश्‍यकताओं की जंजीर तोड़कर सूक्ष्‍म मानव-जगत् का नया लोक बनाएँगे?
जब गेहूँ से हमारा पिण्‍ड छूट जाएगा और हम गुलाब की दुनिया में स्‍वच्‍छंद विहार करेंगे!
क्या सचमुच ऐसा हो पाएगा?”
सीतामढ़ी से मुजफ्फरपुर तक बेनीपुर की तरह दर्जनों गांव बागमती के दोनों तटबंधों के बीच आकर उजड़ गए। कोई कुछ दाएं तटबंध के बाहर तो कोई बाएं तटबंध के बाहर नया आशियाना बनाने को मजबूर हुआ। सैकड़ों परिवारों ने हमेशा के लिए गांव छोड़कर सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, पटना एवं महानगरों की राह पकड़ी।
नाव से उतरकर पूरब बढ़ने से पहले मैंने पश्चिम की ओर मुड़कर देखा। दो-दो सूरज ने हिदायत दी, जल्दी लौट आना। एक बांध के नीचे डूबने जा रहा था और दूसरा बागमती की धारा में ऐसे प्रतिबिम्बित हो रहा था, मानो खिलखिला रहा है। बांध के ऊपर लाल क्षितिज देखकर मुझे अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की प्रसिद्ध रचना ‘प्रिय प्रवास’ की ये पंक्तियां याद आयीं –
दिवस का अवसान समीप था।
गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरु-शिखा पर थी अब राजती।
कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभा॥१॥
हमने पूरब की पगडंडी ढूंढ़ ली। राम सुफल भाई हमारी राह देखकर लौट चुके हैं। हर साल हमारी अगवानी के लिए बांध पर पहुंच जाते हैं। करीब सत्तर को छू रहे राम सुफल भाई उन तीन ढ़ीठ घरवैयों में से हैं, जो जन्मभूमि का मोह नहीं त्याग पाए हैं। बेटा-बहू, पोता परदेस ( अंबिकापुर) में हैं। सरकार ने इन्हें भी नया बेनीपुर में घर के लिए जमीन दी, मुआवजा दिया। फिर भी विरान, बेचिरागी गांव के जंगल में मंगल कर रहे हैं। छतदार घर में सोलर पैनल से बल्ब जलाते हैं और मोबाइल चार्ज कर लेते हैं। इनके अलावा दो बथान वाले भी मवेशी पालते हैं। खंडहर बन चुके बाकी घरों में सुअरों, नीलगायों का बसेरा है। बाढ़ में बहकर आयी रेत हर साल यहां का भूगोल बदल देती है। खेसारी के खेतों में पगडंडी पर हम दोनों भाई राह भटक गए। गुरहन की झाड़ियों में बार-बार पगडंडी विलुप्त होने लगी। सही राह पहचानने के लिए हमारी आंखें खंडहर बन चुके स्कूल -मकान की निशानी, बिजली के ठूंठ खंभे ढूंढ़ती रहीं।
बांसवाड़ी और गाछी पार करते पूरब दिशा में करीब सवा किलोमीटर चले तो अचानक बेनीपुरी जी का दरवाजा नजर आया। बस यूं समझिए कि हम इस मकान के पीछे ( पश्चिम) से आए और इसके दक्षिण से गुजरते हुए आगे निकल गए। पीछे गाछी -गुरहन की ओट से अचानक वह ऐतिहासिक मकान प्रकट हुआ, जिसे रामबृक्ष बेनीपुरी ने अपनी समाधि बताया था। आज यहां सन्नाटा पसरा है। न माइक है न मंच! न दरी बिछी है और न लोग बैठे हैं। जिन खेतों से पृथ्वीराज कपूर के बेटे हाथों में सरसों के फूल लेकर फूले नहीं समाते थे, उनमें रेत पर खड़ – गुरहन फैले हैं। जिस चबूतरे पर दो साल पहले तक बेनीपुरी जी की प्रतिमा विराजती थी, उस पर फूल-माला रखे हैं। जहां कभी रामधारी सिंह दिनकर, शिवपूजन सहाय और पृथ्वीराज कपूर के साथ रामबृक्ष बेनीपुरी के कहकहे गूंजते थे, वहां आज न कोई पूछने वाला और न कोई जवाब देने वाला।
हमें याद आया, 23 दिसंबर 2016 को इसी पगडंडी से निकला तो दरवाजे पर बने मंच पर पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह, डॉ. महेंद्र बेनीपुरी, डॉ. हरेंद्र कुमार एवं पूर्व विधायक डॉ. सुरेन्द्र यादव समेत कई अन्य राजनेता, बाहर से आए साहित्यकार विराजमान थे। हमारे साथ प्रभात खबर के तत्कालीन स्थानीय संपादक शैलेन्द्र जी, कवि डॉ. संजय पंकज, किसान नेता एवं कवि नीरज नयन, कवयित्री मीनाक्षी मीनल, युवा कवि प्रवीण मिश्रा और नगर निगम वाले कवि ललन कुमार सिंह ( इस्सर पट्टी निवासी) भी पहुंचे थे। डॉ. महेंद्र बेनीपुरी जब तक जीवित रहे, हर साल यहां बड़ी श्रद्धा से जयंती समारोह आयोजित कराते रहे। अब सरकार ने तटबंध के बाहर नया स्मारक स्थल बनवाया है। आदम कद स्मारक स्थापित किया गया है। लौटते समय वहां भी शीश नवाऊंगा, लेकिन अगर यहां नहीं आता तो मन कचोटने लगता। यह धरती खींच लाती है। रोक लेती है। जर्जर हवेली बातें करती है, इस बार बड़ी देर कर दी?
नहीं चाहते हुए भी देर हुई। आज सुबह 8:12 बजे नीरज नयन का नंबर डायल किया। वे अस्पताल में शाश्वत श्वेतम की डायलिसिस करा रहे थे। मोनी भी साथ थीं। गूगल को खंगालते-खंगालते श्वेतम अब डायलिसिस की तकनीकी प्रक्रिया का जानकार हो गया है। उसके सुझाव पर डाक्टर की भी मुहर लगती है। तीन दिन के अंतराल पर उसकी नियमित डायलिसिस होती है। निर्भिक है और अस्पताल के कर्मचारियों से उसका दोस्ताना रिश्ता है। वह सिर्फ मां के साथ भी डायलिसिस के लिए जा सकता है, लेकिन नीरज नयन हर बार मौजूद होते हैं। पिता-पुत्र दोनों को साथ होने की तसल्ली होती है। नीरज जी ने बताया कि वे 12 बजे तक घर लौट जाएंगे। तय हुआ कि हमलोग एक बजे अहियापुर स्थित उनके आवास से बेनीपुर के लिए रवाना होंगे। हर साल बेनीपुरी जयंती पर हम दोनों साथ जाते हैं। पहले राम सुफल भाई के घर पहुंचते हैं। वे बेनीपुरी जी के ऐतिहासिक मकान के पड़ोस के विराने में इकलौते बाशिंदे हैं। उन्हीं के साथ हम झाड़ियों के बीच से समाधि स्थल पर पहुंचते हैं। हर साल आते-जाते हम इस निर्जन में  राम सुफल भाई से एक आत्मीय रिश्ते से बंध गए हैं। बेनीपुरी जी की समाधि के प्रति श्रद्धा और राम सुफल भाई से मिलने का अनुराग मुझे भावुक कर देता है।
इस बार उल्टा हुआ। हम राह क्या भटके, पहले समाधि पर आ पहुंचे। शीश नवाकर राम सुफल भाई के घर पहुंचने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ी। जब हम उनके दरवाजे पर पहुंचे, वे मेरा ही नंबर डायल कर रहे थे। हमारी आवाज सुनकर चहक उठे। सुफल भाई की सेहत, सैलाब और सुअरों ने मिलकर घर के चारों ओर की बागवानी उजाड़ डाली है। साग, गोभी, परबल और गेंदा-गुलाब के पौधे इस बार नजर नहीं आए। पपीता- केला के पौधे भी नदारद। सरसों के पीले-पीले फूलों ने हंसते हुए हमारी अगवानी की। हां, सुफल भाई की चुस्ती -फुर्ती पहले ही जैसी है। खूब पैदल चलते हैं और कुदाल भी चलाते हैं।
वे तेज कदमों से बाहर निकले। इस बार भाभी जी के साथ उनके छोटे बेटे मनीष ने भी अगवानी की। मनीष आज ही अंबिकापुर से आए हैं। हम पहले एक -दो बार मोबाइल पर बात कर चुके हैं। मनीष भी हमसे मिलने को उत्सुक थे। सज्जन और शालीन युवक। बोलते कम हैं, पिता के मजाक, मिठे ताने पर सिर्फ मुस्कुराते हैं। राम सुफल भाई और भाभी ने हमारे सामने अपनी दुश्वारियों की टोकरी उड़ेल दी। दीवार पर खिड़की छूते निशान दिखाते हुए बोले, एमरी इहां तक दाहर आ गेल। एक बजे रात के बिछावन लेके छत पर चढ़ गेली। मैं अचंभित हो गया। जमींदोज खरंजा सड़क से चार फीट ऊंचे टीले पर उनका मकान है। मकान की कुर्सी करीब पांच फीट ऊंची। बागमती में सैलाब आया तो घर में तीन फीट ऊपर तक पानी चढ़ गया! बाढ़ के बाद परिवार की बातें। पति-पत्नी साल भर की बकाया बातें दो घंटे में सुनाने को आतुर हो गए। एक की बात पूरी होने से पहले दूसरे की शुरू हो जाती। कभी बड़े बेटे -बहू की कहानी, कभी छोटे की। कभी डॉक्टर (एमएस) बन चुकी नतनी की शादी की तैयारी में खो जाते हैं तो कभी विरान बस्ती में मस्ती की दिनचर्या सुना रहे हैं। हम कभी भाई-भाभी की बातों पर और कभी बाप-बेटे की बातें सुनकर खिलखिलाते रहे।
भाभी जी का दर्द छलक पड़ा। बउआ जी, अब बर्दाश्त न कर सकी ले। हमरा दाहर के पानी से कौनो दिक्कत नइखे, बाकी अब इहां हिम्मत जवाब दे रहल बा। हिनकर ( राम सुफल भाई की ओर इशारा करते हुए) जब पेट बहे लागल, तअ बंद होए के नाम नअ लेबे। दवाई फेल हो गेल। हिनकर हालत नाजुक हो गेल। रिश्तेदार के फोन कइली, तअ मुजफ्फरपुर से दवाई भेजलन। अगर कुछ हो जाई, इहां हमनी के उठावे वाला न मिली। लंबी सांस लेते हुए बोलीं, अब इ जगह छोड़े के चाही ले। नया बेनीपुर में एगो घर बनावे के पड़ी। घर बनाना खेल नहीं है। मुआवजे की राशि से दोनों बेटों को साढ़े आठ-आठ लाख दिए। कुछ अपनी परवरिश के लिए बैंक में रखे। उसमें से भी बड़ा बेटा दो लाख मांगकर ले गया, परन्तु लौटाया नहीं। राम सुफल भाई ने हंसते हुए मनीष से पूछा, घर बनाने के लिए कितना पैसा दे सकते हो? बहुत कमा रहे हो। मनीष ने भरोसा दिया, जहां तक संभव होगा, मैं भी पैसे दूंगा। बड़े बेटे से मदद की उम्मीद नहीं है। राम सुफल भाई ने ट्रैक चेंज किया- इ सअ तअ होइत रहतई, चलु शुरू ( सामने रखे प्लेटों की ओर इशारा करते हुए) करू। हमारे सामने हमेशा की तरह काजू- किशमिश, अखरोट, नमकीन, पपीता के प्लेट आ गए। बालूशाही और काला जामुन भी। ना -नुकुर के बावजूद कुछ -कुछ खाना ही पड़ा। फिर कुल्हड़ जैसे कप में सोंधी खुशबू वाली चाय।
विदा लेने से पहले हम टेबल पर रखी बेनीपुरी जी की तस्वीर के सामने शीश नवाने के लिए खड़े हुए। तस्वीर के सामने गेहूं का पौधा और गुलाब का फूल देखकर मैं चौका! मैं पूछ बैठा, इस निर्जन में गेहूं और गुलाब! भाभी जी ने सुफल भाई की ओर इशारा करते हुए बताया, नाव से नदी पार कर बहुत दूर से गेहूं के पौधे व गुलाब ले आए हैं। यहां तो रेत पर खेसारी के सिवा कुछ नहीं उपजता है। राम सुफल भाई बहुत कम पढ़े -लिखे हैं, लेकिन उन्हें मालूम है कि संपूर्ण हिन्दी साहित्य जगत में बेनीपुरी जी का निबंध  ‘गेहूं और गुलाब’ चर्चित है। चलते -चलते मैं आश्वस्त हुआ , मैं रहूं न रहूं, ‘गेहूं और गुलाब’ की महत्ता रहेगी। बेनीपुरी जी रचनाएं रहेंगी। राम सुफल भाई और उनके बड़े भाई शिव कुमार सिन्हा ( अवकाश प्राप्त शिक्षक) जैसे लोग अंबपाली, माटी की मूरतें,  गेहूं और गुलाब की चर्चा करते रहेंगे। रजिया, बलदेव सिंह, सरयू भैया, रूपा की आजी, बुधिया,  बालगोबिन भगत और सुभान खां जैसे अमर पात्रों के ‘रेखा चित्र’ पढ़ते वाले जिज्ञासु पाठक रहेंगे। पता नहीं यह कौन सुनाएगा कि शिव कुमार सिन्हा कैसे-कैसे बनारस से ट्रेन में बेनीपुरी जी की प्रतिमा लेकर आए थे?
अब तो नया बेनीपुर में महान की मिश्रधातु से निर्मित रामबृक्ष बेनीपुरी की आदमकद प्रतिमा भी स्थापित कर दी गई है। बेनीपुरी रचनावली और उनकी समस्त रचनाओं के पुनर्प्रकाशन में डॉ. महेंद्र बेनीपुरी ( बेनीपुरी जी के पुत्र) को उल्लेखनीय सफलता मिली। वे नया बेनीपुर में स्मारक स्थल के लिए भी प्रयासरत रहे। उनके निधन के बाद नया स्मारक स्थल विकसित कराने में बेनीपुरी जी के नाती डॉ. महंथ राजीव रंजन दास का अथक प्रयास सराहनीय है। पटना सचिवालय में सरकारी फाइल बढ़वाने में सीतामढ़ी के सांसद देवेशचंद्र ठाकुर के फाॅलोअप को भुलाया नहीं जा सकता है। महंथ राजीव रंजन दास चाहते हैं कि उनकी मामी डॉ. शीला बेनीपुरी ( बेनीपुरी चेतना समिति न्यास की अध्यक्ष) की आंखों के सामने आदमकद प्रतिमा का अनावरण हो जाय। देवेशचंद्र ठाकुर ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से शीघ्र लोकार्पण कराने का आश्वासन दिया है। लौटते समय मैं नीरज नयन के साथ नया बेनीपुर में स्थापित स्मारक के सामने शीश नवाने पहुंचा। शिलालेख पर रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां पढ़कर रोमांचित हो उठा। दिनकर जी ने लिखा है- “बेनीपुरी मेरे साहित्य जीवन के निर्माता थे। मैं कभी उनसे उऋण नहीं हो सकता। नाम का दिनकर मैं था, पर असली सूर्य बेनीपुरी थे।… बेनीपुरी को आत्मा का शिल्पी कहकर मैंने अति युक्ती नहीं की थी। वे सचमुच मेरी आत्मा के शिल्पी और मेरे कवि जीवन के निर्माता थे।”
घर लौटकर मैंने अगली सुबह राम सुफल भाई के नंबर पर काॅल किया। यथाशीघ्र भाभी जी की आंखों का इलाज कराने का आग्रह किया। यह भी याद दिलाया कि मुजफ्फरपुर आकर खादी माॅल से गर्म कपड़े खरीद लें। राम सुफल भाई ने हामी भरी। उन्होंने बताया, क्या  कहूं ! कल शाम आप दोनों को नदी किनारे पहुंचा कर मनीष के साथ लौटते वक्त मैं खुद गुरहन में अपने ही घर का रास्ता भूल गया!  भटकते हुए घर लौटा। मैं इस सोच में डूबा हूं कि आने वाली पीढ़ी पुराने बेनीपुर गांव में कलम के जादूगर की ऐतिहासिक ‘समाधि’ की राह कितने दिनों तक याद रख पाएगी?
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परिचय : बिभेष देवी स्वतंत्र पत्रकार और लेखक हैं.

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