विशिष्ट ग़ज़लकार :: केशव शरण

1
पीते न सब जनाब हैं ये इश्क़ की शराब क्या
हम हो गये ख़राब क्यों हमने किया ख़राब क्या

मुझसे तुम्हें लगाव है ? सबसे मुझे लगाव है !
मैंने किया सवाल क्या, तुमने दिया जवाब क्या

मालूम क्या करें कि हम सँवरे भला कहाँ तलक
बिगड़े भला कहाँ तलक इस इश्क़ में हिसाब क्या

दिल एक जीत तो लिया, हारा अगर जहान है
उस जीत की ख़ुशी मुझे इस हार का जनाब क्या

क्या हाल रात-रात है मदहोश आँख-आँख का
वो चाँद और चाँद पर चढ़ता हुआ शबाब क्या

काँटे रहे ज़ुबान में बेशक चुभान से भरे
लेकिन बरक्स होंठ के कोई खिला गुलाब क्या

न्यारा प्रकाश मिल रहा पढ़कर उसे अगर मुझे
चेहरा हसीन ही पढ़ूँ अध्यात्म की किताब क्या

2
कुदरत, हसीन रूप की कविता ललित किया करूँ
या फिर विमर्श-वाद में पिछड़ा-दलित किया करूँ

सादा मिज़ाज ही रहा, सादा मिज़ाज ही रहे
होता न लाभ-हानि का जो मैं गणित किया करूँ

मैं भी अगर जवाब दूँ होगी ग़लत न बात ये
जिसने मुझे व्यथित किया उसको व्यथित किया करूँ

मैं दर्द को दबा रखूँ दुनिया न डूबने लगे
इस बात से कभी न मैं दृग को सरित किया करूँ

सीधे अहित न कर सका लेकिन तुला अभी तलक
जग चाहता कि होश खो अपना अहित किया करूँ

इक रूपसी चला चुकी इक रूपसी चला रही
रंगीन अग्नि बाण को कैसे शमित किया करूँ

नक़्क़ाद और लोग जो बोलें चुका हुआ मुझे
शहकार एक दे नया सबको चकित किया करूँ

3
दिन गुज़रते ही रहे वायदा देखा किया
जागने से नींद तक रास्ता देखा किया

इक किनारा मैं रहा इक किनारा तू रहा
जो सिमटने से रहा फ़ासला देखा किया

वो तुम्हारा रूप है, जगमगाता शून्य को
ये नज़ारा आर से पार का देखा किया

बंद पलकें जब करूँ खोजकर, थक-हारकर
सामने ही आँख के लापता देखा किया

आरज़ू ही आरज़ू, जुस्तजू ही जुस्तजू
ज़िंदगी में और है, क्या मज़ा देखा किया

वक़्त का पाबंद था और पक्का नेम का
आ इबादतगाह से मयकदा देखा किया

वो न आलोचक रहे चाँदनी पुरख़्वाब के
दाग़ का ही दायरा चाँद का देखा किया

4
लुत्फ़ थोड़ा रह गया आज भी चलिए वहीं
गुलमुहर की छाँव में चंद पल रहिए वहीं

हर घड़ी कुदरत जहाँ इक नये अंदाज़ में
कुछ नया कहिए वहीं कुछ नया सुनिए वहीं

इक लहर पर दूसरी, दूसरी पर तीसरी
यूँ नदी बहती जहाँ रोकिए पहिए वहीं

नील चादर तानकर कीजिए आराम भी
घास का बिस्तर वहीं बाँह के तकिए वहीं

झोंपड़ी में फूस की चायवाली चाय दे
सुस्त तन को है तलब, ताज़गी भरिए वहीं

गीत आएँ होंठ पर, चित्र घूमें आँख में
पग पड़ें नभ पर जहाँ सैर भी करिए वहीं

शोर, गरदा, धूल से दूर पागल भीड़ से
मिल गई कोई जगह, सोचिए, थमिए वहीं

5
मैं तमाशा देखने जाऊँ कि मछली मारने
रख दिया है सामने प्रस्ताव दो-दो यार ने

देर तक ये प्यार से अवलोकने का फल रहा
लाल मुझको कर दिया है गुलमुहर की डार ने

एक मैं हूँ एक तुम हो और कोई भी नहीं
ख़त्म दुनियादारियाँ कर दीं तुम्हारे प्यार ने

जीत मुझको बाँध लेती जीत जाता मैं अगर
हर तरह आज़ाद रक्खा कोहबर की हार ने

दिल लुभाया फूल ने तो हाथ छूने को हुए
चिन्ह अब तक हैं लगायीं जो खरोंचें ख़ार ने

दे न पाये तुम किसी को काँच का भी आवरण
सैकड़ों दीपक बुझाये इक हवा के वार ने

अब यही तो बात है अभियान कैसे हो सफल
हम लगे दम झोंकने तो वो लगे हैं टारने
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परिचय : केशव शरण की ग़ज़ल और कविता की करीब एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.  विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी इनकी रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं.
संपर्क – एस2/564 सिकरौल
वाराणसी  221002
मो.   9415295137
व्हाट्स एप 9415295137

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