श्रद्धांजलि :: अमन चांदपुरी :: अमन चांदपुरी की ग़ज़लें : सौजन्य :के.पी.अनमोल
अमन चांदपुरी की ग़ज़लें –
लोग उत्पात करते रहते हैं
घात-प्रतिघात करते रहते हैं
काम जो शत्रु भी नहीं करता
आजकल भ्रात करते रहते हैं
तीन और तीन को ये व्यापारी
जाने क्यों सात करते रहते हैं
हम ही चिढ़ते हैं युद्ध से लेकिन
हम ही शुरुआत करते रहते हैं
वो समझते हैं दिन को दिन ही कहाँ
दिन को जो रात करते रहते हैं
हर घड़ी कौन साथ रहता है
जिससे हम बात करते रहते हैं
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बाहर उदास है कोई भीतर उदास है
जिसको भी देखता हूँ बराबर उदास है
सबके लबों पे जिसकी वजह से थी कल हँसी
क्या हो गया जो आज वो जोकर उदास है
तारीख़ उसके आने की बढ़ती है रोज़-रोज़
दिन को निगल-निगल के कैलेंडर उदास है
हम जानते हैं नश्शा उदासी का हमसे पूछ
वो क्या बताये तुझको जो पल भर उदास है
इस पर उगेगी फ़स्ले-वफ़ा किस तरह ‘अमन’
दिल की ज़मीन देख के बंजर उदास है
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ख़िज़ाँ और आँधियों के हैं नतीजे
मेरी बर्बादियों के हैं नतीजे
लगी है लत जो मुझको शायरी की
नहीं शहजादियों के हैं नतीजे
वो अब तो चीख़ भी सुनता नहीं है
ये सब फ़रियादियों के हैं नतीजे
क़फ़स में अब हमें रहना पड़ेगा
यही आज़ादियों के हैं नतीजे
हर इक चेहरा हसीं लगने लगा है
ये क्या तन्हाइयों के हैं नतीजे
जो तुम मुझमें बुराई ढूँढते हो
मेरी अच्छाइयों के हैं नतीजे
ऐ दुनिया! हम जो कुछ बिगड़े हुए हैं
तेरी उस्तादियों के हैं नतीजे
जो ख़ुद से भागता फिरता हूँ अब मैं
मेरी परछाइयों के हैं नतीजे
तमाशा बन गई है ज़ीस्त मेरी
‘अमन’ नादानियों के हैं नतीजे
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हमारे ज़ेह्न की जो तीरगी है
हमारा रास्ता रोके खड़ी है
मुहब्बत ही मुहब्बत बाँटती है
न जाने कैसे युग की बाँसुरी है
उसी से लड़-झगड़ कर कट रही है
वो इक चेहरा जो मेरी ज़िन्दगी है
मोहब्बत की नदी सूखी हुई है
भला कैसे कहूँ ये दोस्ती है
वही अब मुझको ख़ुश रखने लगे हैं
कि जिनके ग़म से मेरी शायरी है
हमें भी कृष्ण अब होना पड़ेगा
हमारे सामने राधा खड़ी है
मुसलसल दिल पे दस्तक दो ‘अमन’ जी
कहाँ इक रोज़ में खिड़की खुली है
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मिला है इश्क़ में किसको मुनाफ़ा
सो तुम घाटे को ही समझो मुनाफ़ा
ख़ुशी होगी तेरा ग़म बाँट कर भी
किसी तरह तो मुझको हो मुनाफ़ा
मेरी ग़ैरत मुझे रखनी है ज़िन्दा
तुम अपने पास ही रक्खो मुनाफ़ा
मुनव्वर उसके ख़्वाबों से हैं आँखें
मेरी आँखों का तुम देखो मुनाफ़ा
तुम्हारा ग़म सबब है शायरी का
समझते हैं इसे हम तो मुनाफ़ा
मुनाफ़े की तिजारत जब भी करना
मिले जब ख़ुद से तब ले लो मुनाफ़ा
हँसी तो है मुकद्दर में सभी के
उदासी को ‘अमन’ समझो मुनाफ़ा
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दोस्ती-आशिकी के चक्कर में
पड़ गए सब किसी के चक्कर में
एक से ज़िन्दगी मुहाल हुई
क्यूँ पड़ा है कई के चक्कर में
अपना चैनो-सुकूँ गँवा बैठे
हम भी इस शायरी के चक्कर में
वो मुसलसल हुआ ग़लत साबित
जब से उलझा सही के चक्कर में
छाँव पीपल की धूप बन बैठी
जब पड़े बम्बई के चक्कर में
ख़ुद को जोकर बनाए रक्खा है
एक तेरी हँसी के चक्कर में
उनको जन्नत की चाह है शायद
जो पड़े है वली के चक्कर में
मौत के दर तक आ गया हूँ ‘अमन’
आज फिर ज़िन्दगी के चक्कर में