रेत की तरह फिसल जाये उम्मीद : शबनम सिन्हा
चिलचिलाती धूप में
टपकते पसीने के बाद भी
आगे बढ़ते कदम
इस उम्मीद के साथ
कि पेट भरने के लिये हो जायेगा कुछ जुगाड़
क्या होगा, मजूरी करने से कुछ और गिरेंगे पसीने
पर, भूखे पेट तो नहीं सोना पड़ेगा
वक्त के पहिये के साथ
पता नहीं, कब छूट गयी जवानी
इसके साथ ही छूटा
बच्चों से उम्मीद
कभी सोचा नहीं था
कि क्षीण हो चुकी काया को भी
दो वक्त की रोटी के लिये
जूझना होगा
जीवन के झंझावतों से
सिर्फ, इसलिये कि वह जिंदा रह सके
कभी-कभी
मन बहुत बेचैन हो उठता है
खुद पर ही आता है गुस्सा
बच्चों पर इतना भरोसा ठीक है क्या
कोई जरूरी तो नहीं कि बुढ़ापे में
वह पिता का लाठी बने
कुछ रह गये होंगे अधूरे संस्कार
और कुछ जरूरत से ज्यादा उम्मीद
इसे बह जाना चाहिये
आंसुओं में
या रेत की तरह मुट्टियों से फिसल कर
बिखर जाना चाहिये जमीन पर
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परिचय : शबनम सिन्हा
घाट रोड, सुल्तानगंज
भागलपुर