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हिंदी साहित्य की मासिक इ-पत्रिका
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गहन संवेदना का प्रमाण ‘देवता पाषाण के’ :: डॉ.प्रेम प्रकाश त्रिपाठी

January 15, 2023January 16, 2023

हिंदी ग़ज़लों की महत्वपूर्ण कृति ‘रास्तों से रास्ते निकले’ : डॉ भावना

January 14, 2023January 16, 2023

‘मेरा चेहरा वापस दो’ ग़ज़ल का नया और मौलिक चेहरा : डॉ. भावना

December 22, 2022January 16, 2023

साहित्यिक सुरभि से भरी विद्यालयी आत्मकथाएं :: डॉ.शांति सुमन

November 11, 2022January 16, 2023

साहित्य में बदलाव का साक्षी ‘रास्ता दिल का’ :: डॉ.भावना

November 11, 2022November 11, 2022

अदम्य :बिहार के युवा ग़ज़लकार :: देवयानी झाडे

November 11, 2022November 11, 2022

आम आदमी की कविताएं ‘आकाश के पन्ने पर’ :: आशीष मोहन

September 29, 2022

भाव और कला पक्ष का उत्कृष्ट सृजन ‘मेरी मां में बसी है…’ :: अविनाश भारती

September 29, 2022September 29, 2022

पुस्तक समीक्षा :: एटमी हथियारों की होड़ पर गंभीर सवाल ‘रुई लपेटी आग’ :: ऋचा वर्मा 

August 7, 2022August 7, 2022
Sunday, January 29th, 2023
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गहन संवेदना का प्रमाण ‘देवता पाषाण के’ :: डॉ.प्रेम प्रकाश त्रिपाठी ख़ास कलम :: सुमन आशीष विशिष्ट कवि :: भरत प्रसाद अनेक मान्यताओं का साक्षी मंदार बिखेर रहा है सांस्कृतिक गरिमा :: कुमार कृष्णन विशिष्ट ग़ज़लकार :: डॉ विनोद प्रकाश गुप्ता ‘शलभ’
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कविता - विशिष्ट कवि

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संपादक की कलम से ( तीसरा संस्करण )

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July 1, 2017August 30, 2017
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आंच व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है. इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं. लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है
यह पत्रिका प्रत्येक महीने की एक तारीख को प्रकाशित की जाती है. कृपया रचनाएं इमेल पर भेजें. रचनाओं के मौलिक व किसी अंतरजाल पर प्रकाशित नहीं होने का प्रमाण भी संलग्न करें.
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संपादक –            भावना
संपादकीय टीम – विनय कुमार, संतोष सारंग
कला व परिवर्धन – अरुप सरकार

संपादकीय

संपादकीय –

जोशीमठ के बहाने…

स्वर्ग का द्वार कहे जाने वाले जोशीमठ की जमीन धँसने लगी है और मकानों की दीवारों में दरारें पड़ गई हैं। वैज्ञानिक और विशेषज्ञ बताते हैं कि जिस ढाल पर ऐतिहासिक नगर जोशीमठ बसा हुआ है, वह भूस्खलन के परिणामस्वरूप इकट्ठा हुआ मलबे का ढेर है। ऐसी धरती बहुत अधिक बोझ बर्दाश्त नहीं कर पाती और धँसने लगती है। फिर भी आबादी का इस तरह बढ़ना प्रशासन और नागरिक दोनों की भूमिका को संदिग्ध बनाता है। जोशीमठ में राहत का कार्य तेज कर दिया गया है और राहत के तौर पर 42 परिवारों को 63 लाख की धनराशि वितरित कर दी गई है, लेकिन इसकी क्या गारंटी है कि देश के अन्य हिस्सों में रह रहा आदमी इस घटना से सबक लेकर प्रकृति एवं पर्यावरण से छेड़छाड़ नहीं करेगा? आज का आदमी तात्कालिक लाभ को देखता है। दूरगामी सोच रखना आज की पीढ़ी को गंवारा नहीं। आदमी की सोच अब वर्तमान आधारित हो गयी है। हमारा आज कैसे अच्छा हो? किस तरह हम अधिक-से-अधिक सुख सुविधा अर्जित कर पाएँ…  इसी गुणा भाग में मनुष्य अपना पूरा जीवन व्यतीत करता है। पर्यावरण की चिंता हमारे जीवन में नहीं, बल्कि हमारे भाषण में है। नदियों को भरकर मकान बनाया जाना, पेड़ों को काटकर अपार्टमेंट बनाया जाना, पहाड़ों को रौंद कर व्यापार का जरिया बना देना, न ही प्रशासन से छुपा है न ही सरकार से।

राजधानी दिल्ली जो आज सबसे प्रदूषित महानगर है, वहीं मुजफ्फरपुर और पटना जैसे शहर भी कम प्रदूषित नहीं। आज देश के 132 शहरों की हवा प्रदूषित है। इस सूची में पहले 102 शहर ही शामिल थे।  आदमी की आपसी प्रतिस्पर्धा की वज़ह से गाड़ियों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। एक ही घर में अगर 5 सदस्य हैं तो सबकी अपनी-अपनी गाड़ियां हैं। कोई भी व्यक्ति अपनी गाड़ी दूसरे व्यक्ति के साथ शेयर करना पसंद नहीं करता। कई-कई गाड़ियाँ रखना स्टेटस सिबंल हो गया है, वहीं पैदल चलना बेवकूफ और गरीब लोगों की निशानी। आलम यह है कि किसी जमाने में खचाखच भरी बस भी खाली नजर आती है। लोग ‘बस’ में चलने की बनिस्बत मोटरसाइकिल या ऑटो रिक्शा रिजर्व कर आना-जाना पसंद करते हैं।

काश ! लक्जमबर्ग  की तरह भारत भी सार्वजनिक परिवहन के इस्तेमाल  के लिए अपने नागरिकों को प्रोत्साहित करता एवं सार्वजनिक परिवहन को अपने नागरिकों के लिए निःशुल्क कर देता !

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