आलता लाल एक जोड़ी घिसे पाँव
निकल पड़े हैं आदिम दिशा को
कर आई विदा जिन्हें बस कल ही
वो पलटे नहीं न ठिठके
न ही बदली दिशा अपनी
पुकारता रहा आकाश
बरसता रहा जल
खूब धधकी अग्नि
चंदन पहने डोलती रही पवन
धरती ने फिर किया वहन
एक और वियोग का भार
अपने आदिम धैर्य से
संकोच ने रुंधन को जड़ दिया था ग्रंथियों में ही
दुबकी रही वह
महानगर की थमी विथिकाओं से उभरी संवेदना
जुटी और फिर वहीं लौट गईं
असहाय सी एक दूसरे से आँखें चुराए
लौटती मेरी देह से झूलता रहा
चिरायंध
चटकता रहा कानों में बंधनों का खुलते जाना
मन में बिखरा रहा कुछ देर शमशान-वैराग्य
फिर कपूर सा उड़ गया
बस एक चिन्ह से स्मृति में रुके हुए हैं
आलता से लाल एक जोड़ी घिसे पाँव
गिरना
गिरना
गिरने से बहुत पहले शुरु हो जाता है
जब जड़ें छोड़ने लगती हैं
मिट्टी का हाथ
खोने लगती हैं भरोसा
धरती पर
बाक़ी जो भी है बचा
.
शरीर की कोशिकाओं
का मरना जारी है
साथ ही
जारी है कहीं पहुँच सकने के
संतोष के भ्रम का मरना
देह और मन बट कर बनाये
गए सारे रस्ते मिटते जाते हैं
कहीं भी पहुँचते ही
खो जाता है वहां होने का प्रयोजन
हाँ बस खुद को पहले से
ज़्यादा रोज़ मिलने लगी हूँ
एक बुलबुले में क़ैद
अपनी इस सोच को
अगर बाहर से देख सकूं
तो एक्वेरियम में
अकेली बची उस मछली की तरह ही है
वो जो बाकियों को मार चुकी है
या जैविक किसी वजह से
उनसे उम्र की दौड़ जीत चुकी है
और अब
एक घुन्नी और बेवकूफ़ ज़िद में
अपने अकेलेपन का पीछा करती रहती है
उमस
फ्रीडा की चिर रोगशय्या और फीतों वाली कसी पोशाक के बीच कहीं से
उसके पकते-सूखते घावों और आइने से चित्रों के रास्ते
वर्षावनों के किसी प्रौढ़ बारहसिंगे सी
ठिठक ठिठक कर बढ़ती आती है उमस
मीज़ो बांसवनों के उष्णकटिबंधीयता में उभरती
बज उठती है रह-रहकर झींगुर की तमाम पीढ़ीयों में
उनके गुणसूत्रों में पिरोई कड़ियाँ बनकर
हुगली-जल पर बहती, डूबती, उतराती
उमड़ आती है घाट की सीढ़ियों पर
कालीपद के जवा पुष्प सरका कर, तनिक सुस्ताती है
दर्शन को आई नववधु का सिंदूर
पसीजकर नाक की नोक तक जा बहता है
सबसे लाल जवापुष्प वही है
भाप के नख से कुरेदती है
लाल माटी, संथाल वनान्तर की
पुचकार पुकारती है बीज में सोए शिशु वनों को
हंड़िया, महुआ, सघा-साकवा, बांसुरी, मांदर के तिलिस्म के बीच
हुलसती है ममत्व से, छलक जाती है
हमने भी तो बालों में, सीने पर और कान के पीछे
पहन लिया है उसे गहनों की तरह
उमस हमारी साधी हुई दूरीयों में रेंगती है
व्यक्त होने की कगार से लौट-लौट
सर पटक कर केश बिखराए
हारी-थकी, बीच में आ पसरती है
श्रद्धांजलि में दो मिनट का मौन
जो मारता है, वो कौन है
जो मारे गए, वो कौन थे
जो बचा न सके, वो कौन रहे
जो सियासत करेंगे, वो कौन हैं
और आज के संदर्भ में सबसे प्रासंगिक
जो प्रतिक्रियाएँ दे रहे, वो कौन हैं
इन सबसे हटकर वो कौन हैं जो मौन हैं
इन बिंदुओं पर सोचने की जगह हम सिर्फ़ नाराज़ हैं
ये फ़लसफ़ा नहीं क्रूर सच्चाई है
कितना आक्रोश भरा है कि हम वही करते हैं हर बार
एक प्रतिनिधि युद्ध लड़ते हैं
अपनी रोज़मर्रा के निजी पराजयों के विरुद्ध मात्र
बस जीतने भर की तृप्ति के लिए
अपनी जेबों से लेबल निकाल
हर दूसरे का माथा खोजते हैं
बहस/संवाद सुने बिना होते हैं
इस सार्वजनिक मंच पर जहाँ हम उतने ही निजी स्पेस में भी हैं
अपने अपने क्रोध से लैस
हम सिर्फ़ कहने बैठते हैं
ये भी आतंकवाद ही है
अरे साहब! या तो अपने स्तर वालों से भिड़ें
नहीं तो सामने वाले की समझ देख कर ही कुछ कहें
अपनी अपनी कहकर अपने अपने अहं को सहलाने वाले
हम सबके सब भी आतंकवादी हैं
और ये कोई कविता नहीं है
दृश्य में टांकती हूँ
सुविधानुसार कुछ आवश्यक उपस्थितियाँ
जो फ़िलहाल अनुपस्थित हैं
बुरक देती हूँ
संवेदना, सम्मोहन, सामिप्य
नमक को स्वादानुसार ही होना होता है
कतरती रहती हूँ
सभी चुभती अतिरिक्तताएँ
अनावश्यक माने गए हर सिरे को धर
उड़ा देती हूँ फूंक मारकर
कुछ संतुष्टियों के पीछे-पीछे चलती
एक नया भुगोल जीवन का रचने लगी हूँ
संवारती हूँ इसी तरह दृश्य को अक्सर
अक्सर समक्ष से पलायन कर जाती हूँ
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परिचय : कवयित्री, गोरखपुर